आज कालजयी कवि नागार्जुन की जयंती है। नागार्जुन का जन्म 1911 ईस्वी की ज्येष्ठ पूर्णिमा को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। वे भारतीय दार्शनिक, लेखक और सामाजिक सुधारक थे। उनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और मां उमा देवी थी। बचपन में इन्हें ‘ठक्कन मिश्र’ कहकर बुलाया जाता था।
गोकुल मिश्र और उमा देवी के चार बच्चे होने के बाद वे सब चले बस गए थे। इसके कारण गोकुल मिश्र का जीवन निराशाजनक था। उन्होंने ईश्वर के प्रति आस्था व्यक्त की थी और विशेष रूप से बाबा वैद्यनाथ की पूजा करने लगे थे। उन्होंने वैद्यनाथ धाम (देवघर) में उपासना की और वहां से लौटने के बाद घर में पूजा-पाठ का समय निकालने लगे।
गोकुल मिश्र की आर्थिक स्थिति खराब हो गई थी और वे काम नहीं करते थे। उन्होंने अपनी सारी जमीन आधे पर रख दी थी और असमय में कठिनाइयां उत्पन्न हो जाने के कारण उन्हें जमीन बेचने का फैसला करना पड़ा। गोकुल मिश्र के अंतिम समय में, उनके बच्चे नागार्जुन के लिए मात्र तीन कट्ठा जमीन बचा पाए। सूद भरकर लंबे समय बाद नागार्जुन अपनी जमीन वापस पा सके।
युवा लड़के वैद्यनाथ मिश्र को अपने परिवार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। छह साल की आयु में ही उनकी माता का निधन हो गया। उनके पिता, गोकुल मिश्र, जो केवल एक ही संतान के देखरेखवाले थे, उन्हें कंधे पर बिठाकर अपने रिश्तेदारों के यहां-वहां घूमते रहते थे। इस तरह, वैद्यनाथ ने बचपन में ही अपने पिता की बेबसी के कारण घूमने की आदत बना ली और जब वे बड़े हुए, तो यह उनके जीवन का स्वाभाविक हिस्सा बन गई। “घुमक्कड़ी का अणु जो बचपन में ही शरीर में प्रवेश कर गया था, वह उनके रचना-धर्म के समान ही विकसित और मजबूत हो गया।”
वैद्यनाथ मिश्र की शिक्षा उस पारिवारिक स्थिति में “लघु सिद्धांत कौमुदी” और “अमरकोश” जैसी संक्षिप्त पाठ्यपुस्तकों के जरिए शुरू हुई। उन दिनों मिथिला के धनी लोग गरीब और प्रतिभाशाली छात्रों की पढाई में सहायता करते थे। छोटी उम्र में ही वैद्यनाथ को मिथिला के कई गांवों का दौरा करने का मौका मिला। बाद में, उन्होंने वाराणसी में संस्कृत की विधिवत पढ़ाई शुरू की। वहीं पर उन पर आर्य समाज के प्रभाव भी पड़ा और इसके बाद उन्हें बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ।
उस समय राजनीति में नेताजी सुभाष चंद्र बोस उनके पसंदीदा थे। बौद्ध के रूप में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को अपना अग्रज माना। बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए श्रीलंका पहुंचे। यहां ‘विद्यालंकार परिवेण’ में उन्होंने बौद्ध धर्म का गहराई से अध्ययन किया। एक तरह से राहुल और नागार्जुन ‘गुरु भाई’ भी थे।
लंका की इस विख्यात बौद्धिक शिक्षण संस्थान में प्रवास के दौरान ना केवल बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया बल्कि विश्व राजनीति की ओर रुचि जगी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की ओर सजग नजर भी बनी रही। १९३८ ई० के मध्य में वे श्रीलंका से वापस आए, फिर आरंभ हुआ उनका घुमक्कड़ी जीवन।
नागार्जुन स्वामी सहजानंद से बहुत अधिक प्रभावित थे। इन्हीं के प्रभाव में आकर उन्होंने बिहार के कृषक आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया। पुलिस के डंडे तो खाए ही जेल की सलाखों के पीछे भी गए। लेकिन कभी कदम पीछे नहीं हटाए। चंपारण किसान आंदोलन में भी नागार्जुन की सक्रिय भागीदारी थी। जेपी आंदोलन भी इसका गवाह है। इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए उन्होंने कहा था कि “सत्ता के खिलाफ जनयुद्ध चल रहा है, इसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की होनी चाहिए, इसीलिए मैं आज अनशन कर रहा हूं, कल जेल भी जाना पड सकता है। और सचमुच इस आंदोलन के सिलसिले में काफी समय जेल में रहना पड़ा।
१९४८ ई० में पहली बार नागार्जुन को दमा हुआ था। काफी इलाज कराया लेकिन दमा ठीक नहीं हुआ। इसके बाद कुछ समय के अंतराल पर समय समय पर दमा से जुझते रहे। दो पुत्रियों एवं चार पुत्रों से भरे-पूरे परिवार वाले नागार्जुन कभी गृहस्थ धर्म का सही तरीके से पालन नहीं कर पाए। उन्हें जो तीन कट्ठा जमीन विरासत में मिली थी वही परिवार को दे पाए।
लेखन-कार्य एवं प्रकाशन
नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएं कीं। काशी में रहते हुए उन्होंने ‘वैदेह’ उपनाम से भी कविताएं लिखी थीं। सन् 1936 में सिंहल में ‘विद्यालंकार परिवेण’ में ही ‘नागार्जुन’ नाम ग्रहण किया। आरंभ में उनकी हिन्दी कविताएं भी ‘यात्री’ के नाम से ही छपी थीं। वस्तुतः कुछ मित्रों के आग्रह पर १९४१ ईस्वी के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी नाम से न लिखने का निर्णय लिया था।
नागार्जुन की पहली प्रकाशित साहित्यिक कृति एक मैथिली कविता थी। यह १९२९ में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित होने वाली ‘मिथिला’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इनकी पहली हिंदी कृति ‘राम के प्रति’ कविता थी जो १९३४ में लाहौर की पत्रिका ‘विश्वबन्धु’ में छपी।
नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य — सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली, संस्कृत के अलावा बांगला में भी लिखा। बांगला से लगाव शुरू से ही रहा। काशी प्रवास के दौरान मूल बांग्ला पढ़ना शुरू किया। मौलिक लेखन 1978 ई० में किया और सितंबर 1979 ई० तक करीब 50 कविताएं लिखी। कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और मेघदूत प्रिय पुस्तक।
जयदेव के गीत गोविंद का भावानुवाद करने के बाद उन्होंने मेघदूत का मुक्तछंद में भी अनुवाद किया। १९४४ और १९५४ के बीच नागार्जुन ने कई अनुवाद के कार्य किए। बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी के उपन्यास ‘पृथ्वीवल्लभ’ का गुजराती से हिंदी में अनुवाद १९४५ ई० में किया था। १९६५ ई० में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की ‘पुरुष-परीक्षा’ (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था जो ‘विद्यापति की कहानियां’ नाम से १९६४ ई० में प्रकाशित हुई थी।