संविधान पर संकट बताकर ताकत हुआ विपक्ष
लेखक:- प्रमोद भार्गव (वरिष्ठ स्तंभकार)
Independence day 2024: दुनिया के गणतंत्रों में भारत प्राचीनतम गणतंत्रों में से एक है। यहां के मथुरा, पद्मावती और त्रिपुरी जैसे अनेक हिंदू राष्ट्र दो से तीन हजार साल पहले तक केंद्रीय सत्ता से अनुशासित लोकतांत्रिक गणराज्य थे। केंद्रीय मुद्रा का भी इनमें चलन था। लेकिन भक्ति, अतिरिक्त उदारता, सहिष्णुता, विदेशियों को शरण, वचनबद्धता जैसे भाव व आचरण कुछ ऐसे उदात्त गुणों वाले दोष रहे, जिनकी वजह से भारत विरोधाभासों, विडंबनाओं और चुनौतियों के ऐसे देश में बदलता चला गया है कि राजनीति का एक पक्ष समस्याओं को यथास्थिति में रखने की पुरजोर पैरवी करने लग गया था। नतीजतन देश का पतन हुआ।
कई सामंतो ने अपने पड़ोसी सामंत को ध्वस्त करने की दृष्टि से इस्लाम धर्मावलंबी आक्रांताओं को भी बुलाने में संकोच नहीं किया। कुछ ऐसे ही हालात हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल में देख रहे हैं। विपक्ष संविधान पर संकट बताकर थोड़ा ताकतवर क्या हुआ हर उस बुराई को संरक्षण देने में लग गया, जो देश को संकट में डालने वाली हैं।
संसद में जो हालात देखने में आ रहे हैं, यदि यही आगे भी बहाल रहे तो देश की अखंडता को भी हानि हो सकती है। बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के संदर्भ में जो राष्ट्रीय नागरिकता पत्रक की सूची आई है, उस परिप्रेक्ष्य में यही देखने में आ रहा है। विपक्षी दलों के ऐसे स्थाई भाव के चलते चुनौतियों से निपटना और आजादी के बाद अनुत्तरित रह गए प्रश्नों के व्यावहारिक हल खोजना मुश्किल हो रहा है।
जबकि ये घुसपैठिए भारतीय मूल के लोगों के संसाधन और प्राकृतिक संपदा हड़पते चले जा रहे हैं। नागरिकता संषोधन अधिनियम 2019 को इस नाते बड़ी उम्मीद से अस्तित्व में लाया गया था, लेकिन उस पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। इसी तरह कश्मीर में धारा-370 और 35-ए खत्म करने के बाद कश्मीर का बहुलतावादी चरित्र बहाल करने की उल्लेखनीय कोशिश की गई है। इससे अलगाववाद आतंकवाद नियंत्रित हुए हैं और कश्मीर में पर्यटन से रोजगार धंधे के उपाय बढ़े हैं।
लेकिन विपक्ष और लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़े रहने वाले काश्मीरी अलगाववादी नेता इस पर भी सवाल खड़े करने लगे हैं। कांग्रेस और देश का अन्य विपक्ष अलगाववादियों की इस भाषा पर अकसर मौन दिखाई देता है।
विपक्ष कश्मीर के उन विस्थापित पांच लाख लोगों के पुनर्वास पर भी मुंह बंद रखता है, जो 35 साल से शिविरों में दरिद्रता का जीवन जीने को मजबूर हैं। ऐसे में इस लोकतंत्र की संप्रभुता कैसे और कब तक अखंडित रह पाएगी ? जबकि देश की अखंडता और जनसांख्यकीय घनत्व को संतुलित बनाए रखने के लिए जनसंख्या नियंत्रण और समान नागरिक संहिता कानून अनिवार्य रूप से लागू किया जाना जरूरी है।
लोकसभा चुनाव के दौरान संविधान को खत्म कर देने के जिस मुद्दे को कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने हवा दी थी, उन्हें अपने गिरेवान में झांकने की जरूरत है कि कांग्रेस जब केंद्रीय सत्ता में लंबे समय तक रही, तब वाकई सबसे ज्यादा संविधान की मूल भावना को आहत करने का काम कांग्रेसी सरकारों ने किया था।
1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर सभी विपक्षी नेताओं को कारागार में ठूंस दिया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करते हुए अखबारों पर लगाम लगा दी थी। 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 42वां संशोधन करते हुए संविधान की प्रास्तावना में पंथ निरपेक्ष शब्द जोड़ दिए थे।
संविधान में जोड़े गए इन शब्दों को लेकर इंदिरा गांधी की मंशा पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। आरक्षण को लेकर लोकसभा चुनाव में सवाल उठाया गया कि भाजपा गठबंधन को 400 सीटें मिल गईं तो वह संविधान को बदलकर दलित आदिवासी और पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण को खत्म कर देगी।
जबकि हकीकत है कि कर्नाटक सरकार ने पिछड़ों के कोटे में मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने की संविधान विरोधी कोशिश की हुई है। संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने का कोई प्रावधान नहीं है। अतएव कहा जा सकता है कि संविधान की भावना पर सबसे ज्यादा कुठाराघात कांग्रेसी सरकारों में हुआ है। मोदी को लेकर केवल काल्पनिक शंकाओं को हवा दी गई। यदि यही विरोधाभासी स्थिति बनी रही, तब लोकतंत्र कैसे टिका रह पाएगा ?
यह विरोधाभास इसलिए भी आश्चर्यजनक है, कि जब हमारे स्वतंत्रता सेनानी ब्रिटिश हुकूमत से लड़ रहे थे तब वे अभावग्रस्त और कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद अपने पारंपरिक ज्ञान और चेतना से इतने बौद्धिक थे कि किसान-मजदूर से लेकर हर उस वर्ग को परस्पर जोड़ रहे थे, जिनका एक-दूसरे के बिना काम चलना मुश्किल था।
इस दृष्टि से महात्मा गांधी ने चंपारण के भूमिहीन किसानों, कानपुर, अहमदाबाद, ढाका के बुनकरों और बंबई के वस्त्र उद्यमियों के बीच सेतु बनाया। नतीजतन इनकी इच्छाएं आम उद्देश्य से जुड़ गईं और यही एकता कालांतर में शक्तिशाली ब्रिटिश राज से मुक्ति का आधार बनी। इसीलिए देश के स्वतंत्रता संग्राम को भारतीय स्वाभिमान की जागृति का संग्राम भी कहा जाता है।
राजनीतिक दमन और आर्थिक शोषण के विरुद्ध लोक-चेतना का यह प्रबुद्ध अभियान था। यह चेतना उत्तरोतर ऐसी विस्तृत हुई कि समूची दुनिया में उपनिवेशवाद के विरुद्ध मुक्ति का स्वर मुखर हो गया। परिणामस्वरूप भारत की आजादी एशिया और अफ्रीका की भी आजादी लेकर आई।
भारत के स्वतंत्रता समर का यह एक वैश्विक आयाम था, जिसे कम ही रेखांकित किया जाता है। इसके वनिस्वत फ्रांस की क्रांति की बात कही जाती है। निसंदेह इसमें समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता के तत्व थे, लेकिन एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की अवाम उपेक्षित थी। अमेरिका ने व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता और सुख के उद्देश्य की परिकल्पना तो की, परंतु उसमें स्त्रियां और हब्शी गुलाम बहिष्कृत रहे।
मार्कस और लेनिन ने एक वैचारिक पैमाना तो दिया, किंतु वह अंततः तानाशाही साम्राज्यवाद का मुखौटा ही साबित हुआ। इस लिहाज से गांधी का ही वह विचार था, जो सम्रगता में भारतीय हितों की चिंता करता था। इसी परिप्रेक्ष्य में दीनदयाल उपध्याय ने एकात्म मानववाद और अंत्योदय के विचार दिए, जो संसाधनों के उपयोग से दूर अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के उत्थान की चिंता करते हैं।
कमोबेश इन्हीं भावनाओं के अनुरूप डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान को आकार दिया। इसीलिए जब हम 75 साल पीछे मुड़कर संवैधानिक उपलब्धियों पर नजर डालते हैं तो संतोष होता है। प्रजातांत्रिक मूल्यों के साथ राष्ट्र-राज्य की व्यवस्थाएं जीवंत हैं। बीच-बीच में आपातकाल जैसी अतिरेक और अराजकता भी दिखाई देती है, लेकिन अंततः मजबूत संवैधानिक व्यवस्था के चलते लंबे समय तक ये स्थितियां गतिशील नहीं रह पाती।
फलतः तानाशाही ताकतें स्वयं ही इन पर लगाम लगाने को विवश हुई हैं। यही कारण है कि प्रजातंत्र, समता, न्याय और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ विधि का षासन अनवरत है। भारत की अखंडता और संप्रभुता स्थापित करने की दृष्टि से सरदार पटेल जैसे लोगों ने कूटनीतिक कड़ाई से 600 से भी ज्यादा रियासतों का विलय कराया। हैदराबाद व जम्मू-कश्मीर रियासतों का विलय हुआ। जमींदारी उन्नमूलन व भूमि-सुधार हुए। सर्वोदयी नेता विनोवा भावे ने सामंतों की भूमि को गरीब व वंचितों में बांटने का उल्लेखनीय काम किया। पुर्तगाल और फ्रांस से भी भारतीय भूमि को मुक्त कराया। गोवा आजाद हुआ और सिक्किम का भारत में विलय हुआ।
अतएव लगता है कि संविधान की प्रस्तावना के उदात्त आदर्ष व उद्देष्य पूरे नहीं हुए हैं। गोया राजनीति त्याग, समता, अपरिग्रह और जनसेवा की भावना से प्रेरित होने की बजाय लाभकारी व्यवसाय, धनोपार्जन का माध्यम और सत्तासुख भोगने का साधन बनती जा रही है। भारतीय संविधान ने संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया, जिसमें समस्त निर्वाचित जन-प्रतिनियों और मंत्रियों के पवित्र उत्तरदायित्व की परिकल्पना है। साफ है, संविधान निर्माताओं ने ऐसी संकल्पना कतई नहीं की थी, जिसमें मंत्रियों के दायित्व में आम आदमी और बुनियादी प्रष्न बहिश्कृत होता चले जाएं। इसी कृटिल मंशा के चलते सत्ता में भागीदार अपने लिए तो अधिकतम प्रजातांत्रिक अधिकारों की मांग उठाते हैं, लेकिन दूसरों को उनके प्रजातांत्रिक अधिकार के कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्धता जताते नहीं दिखते हैं। अधिकार और कर्तव्य की यह ऐसी विडंबना है, जो लोकतंत्र की बढ़ती उम्र के साथ जटिल होती जा रही है। इसी तात्कालिक लाभ की दृश्टि के चलते नेताओं की दलों के प्रति निश्ठा भंग हुई है। लिहाजा चुनावी मौसम में दलबदलुओं के टिड्डी दल दिखाई देने लगते हैं। इसी कारण संसद और विधानसभाएं दलबदल और अस्थायी बहुमत का दंश झेलने को बाध्य हो रही हैं।
(नोट- यह लेखक के निजी विचार हैं)