सुखपाल

सुखपाल दो तरह की होती थीं। यह स्त्रियों की सम्मानित सवारी थी। यह एक लाल गुंबदनुमा डोली थी। एक लंबे-चौड़े खटोले पर एक शानदार बुर्ज-सा बना दिया जाता था, जिसमें चाँदी सोने के कलश होते थे और चारों तरफ़ परदे लटके होते थे। दूसरे प्रकार की सुखपाल नए चाँद के आकार की कुछ गोल और कुछ तिकोनी खासी बड़ी सवारी थी जिसके ऊपर ऊँट की खाल के रंग या लाल रंग का कपड़ा पड़ा होता था और उसके दोनों ओर बाँधने के लिए विभिन्न धातुओं की सुन्दर जंजीरें लटकी होती थीं। अबुल फजल ने सुखपाल को ‘खुश्की की किश्ती’ कहा है। यह एक आदमी के लिए बड़ी आरामदेह सवारी थी और इसमें आराम से बैठा, लेटा या सोया जा सकता था। दरअसल बंगाल में यह अमीर आदमियों की सवारी थी और वहाँ इसे ‘सुखासन’ कहा जाता था। अकबर के जमाने में दिल्ली और आगरा में सुखपाल इस्तेमाल होने लगी, मगर बहुत लोकप्रिय नहीं हुई केवल कुछ नवाबों और हिन्दू रईसों के पास उनकी निजी सुखपाल थी।

महामंडल

महामंडल का बड़ा डोला होता था जिसमें महारानियाँ, अमीरों की लड़कियाँ, नवाबजादियाँ पालकी की बजाए इसमें सवार हुआ करती थीं।

हवादार

उच्च वर्ग के शहजादे या नवाब या उसी कोटि के धनिक हवादार और बूचों में सवार होकर निकलते थे। हवादार टमटम की शक्ल की एक खुली डोली थी जिसके पीछे चमड़े का टप होता और लोहे की कमानियों के जरिए खोला-बंद किया जाता था। ठंडे वक़्त में जब टप गिरा दिया जाता तो हर तरफ़ का वातावरण खुला होता । आगे-पीछे उसमें फ़ीनस के से डंडे लगे होते। चार कहार उसको कंधों पर उठाकर ले जाते और जो शख्स सवार होता वह बड़ी शान और गर्व से बाज़ार की सैर करता, हर तरफ़ और हर चीज को देखता भालता और परिचितों से बातचीत करता जाता था। यह मुगलों के अंतिम दौर की लोकप्रिय सवारी थी।

बूचा

हवादार से ज़्यादा शानदार और रोबदाब की सवारी थी। इसमें पाए होते और आगे-पीछे फ़ीनस के से दो डंडे होते और कम-से-कम आठ और अक्सर सोलह कहार इसको उठाकर चलते इसलिए कि वह कहारों के उठाने की तमाम सवारियों से ज्यादा भारी होता था।

फ़ीनस

ज्यादातर लोग फ़ीनसों पर सवार होते। विद्वान लोग, हकीम, अमीर और खाते-पीते लोग चार नौकर रख लेते तो खिदमतगारी का काम भी देते औरतें फ़ीनस में बैठकर बड़ी शान से निकलतीं। फ़ीनस पर लाल छटके पड़े होते जिन पर कभी गोटा लचका भी टाँक दिया जाता। कहार सुर्ख बानात का चुग़ा पहने रहते। सिरों पर सुर्ख पगड़ियाँ होतीं जिनके कंगरों पर चाँदी की मछलियाँ टैंकी रहतीं।

चंडोल

बादशाहों, नवाबों और अमीरों के लिए जो सबसे ज्यादा आरामदेह और शान-शौकत वाली सवारी थी, उसे चंडोल कहते थे। यह सवारी क्या थी बस चारों तरफ़ से बंद एक अच्छा-खासा कमरा था। इसमें खिड़कियाँ होती थीं जिन पर चमड़े या रेशम के परदे पड़े रहते थे। चमड़े के परदों पर सुनहरा काम किया होता था और वे बड़े नक़्क़ाशीदार और खुशनुमा होते थे। नीचे मोटे-मोटे रेशमी गद्दे बिछे हुए होते थे। कई चंडोलों में नीचे फ़र्श पर शेर की ख़ालें बिछा देते थे। चंडोलों की बाहरी सतह बहुत सजी हुई होती थी। कई चंडोलों पर मीनाकारी वाले वरक चढ़े होते थे। कई अपनी चंडालों पर तरह-तरह की नक्काशी पेंट करवाते थे और कुछ उसमें अनोखी चीजें और सुनहरे रंग की जंजीरें और घंटियाँ लटका देते थे। कुछ ऐसे भी थे जिनमें खूबसूरत बरतन में पीने का पानी या शरबत भी लटका रहता था।

इस पालकीनुमा सवारी में आगे और पीछे दो डंडे लगे होते थे। उन डंडों को भी बड़ा उम्दा सजाया जाता था। चंडोल की बारह आदमी उठाते थे। तीन-तीन आदमी एक-एक डंडे पर आगे की तरफ़ और इतने ही पीछे के दोनों डंडों पर। एक शायर ने किसी राजा या नवाब की चंडोल का जिक्र इस तरह किया है-

“उस चंडोल के दस्ते सोने और जवाहिरात के बने हुए थे और उन पर चंदन का तेल मला हुआ होता था। चंडोल की छत को बड़े मोटे रेशमी परदे से ढँका जाता था और उसके चारों ओर की झालर में कीमती हीरे और जवाहिरात लटके रहते थे। चंडोल को सजाने के लिए मोर के परों का इस्तेमाल भी होता था। चारों तरफ़ सजावटी चित्रों की चमक से आँखें चुधिया जाती थीं। राजा चंडोल में एक ओर बैठ जाता था और उसके

दाएँ-बाएँ उसके दो सेवक चैंबर हिलाते रहते थे।” इस शायर के बयान में जहाँ तक हीरे-जवाहिरात और सोने के इस्तेमाल का सवाल है, काफ़ी अत्युक्ति है। बहरहाल, इसमें कोई शक नहीं कि चंडोल बड़ी सजी-सजाई सवारी होती थी। ‘आईन-ए-अकबरी’ में लिखा है कि ऐसी सजी-सजाई चंडोलों को ‘बहल’ भी कहा जाता था। उसमें यह हवाला भी है कि अकबर ने भी एक शानदार असाधारण सवारी ईजाद की थी। यह काफ़ी बड़ी और कई कमरों वाली सवारी थी, जिसमें गुस्लखाना भी था और उसे एक हाथी खींचता था।

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