बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली
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महान देशभक्त, प्रख्यात शिक्षाविद्, राजनेता, वक्ता, सुविख्यात पत्रकार और समाज सुधारक पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर 1861 को हुआ था। इन्हें वाक्पटुता अपने पिता से तथा उद्देश्य-निष्ठा और आत्मा की शुद्धता अपनी धर्मपरायण माता से प्राप्त हुई थी और वह न केवल अपने माता-पिता के, अपितु भारत माता के भी सच्चे सपूत सिद्ध हुए।
वह एक विशाल हृदयी व्यक्ति थे तथा कुशाग्र बुद्धि और सहृदयता के श्रेष्ठ गुणों के स्वामी थे। उन्होंने कभी भी तुच्छ वस्तुओं की इच्छा नहीं की और न ही कभी तुच्छ भावनाओं को मन में स्थान दिया। इसी कारण उन्हें ‘महामना’ कहा गया।
सितारवादन प्रिय
मदन मोहन बाल्यावस्था से ही अति प्रतिभाशाली छात्र थे जिन्हें अंग्रेजी के उच्चारण और लेखन पर अधिकार प्राप्त था। उनकी संगीत में भी गहरी रुचि थी और वह अच्छे गायक भी थे। वह एक कुशल सितारवादक थे। यह कला उन्होंने अपने पिता से सीखी थी।
सितारवादन में प्रवीण होने के कारण उन्होंने शास्त्रीय संगीत में कई भक्ति गीतों की रचना की और ‘मकरंद’ के छद्म नाम से कई रोमानी और व्यंग्य काव्यों की रचना की। अपने विद्यालय में उन्होंने सार्वजनिक वक्ताओं की एक सोसाइटी की स्थापना की।
उन्होंने अपने गृहनगर प्रयाग (इलाहाबाद) के सामाजिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभायी और इससे उन्हें सभी लोगों का सम्मान प्राप्त हुआ। इलाहाबाद की ग्रन्थालय और वाद-विवाद सोसाइटी की सदस्यता ने उन्हें अपनी वक्तृत्व कला में निखार लाने का अवसर प्रदान किया। इसके अतिरिक्त वह हिन्दी और अंग्रेजी नाटकों का मंचन करने वाली नाट्य सोसायटियों से निकट रूप से सम्बद्ध रहे।
अधूरी छोड़नी पड़ी पढ़ाई
सन् 1884 में मदन मोहन मालवीय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा पास की। पारिवारिक उत्तरदायित्व के कारण वह आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सके और उन्होंने एक स्थानीय राजकीय स्कूल में, जिसके यह छात्र रहे थे, शिक्षक को नौकरी कर ली।
शिक्षक के रूप में मालवीय जी की सफलता का रहस्य यह था कि उनके पास धर्म ग्रन्थों की उपयोगी जानकारी का भंडार था जिसे उन्होंने पिता और दादा से प्राप्त किया था। अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी और फारसी का उनका उच्चारण बहुत शुद्ध था और छात्र हमेशा उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे।
1891 में कानून की पढ़ाई की
मालवीय जी ने 1891 में कानून की पढ़ाई भी पूरी की और शीघ्र ही “बार” के एक प्रतिभाशाली सदस्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।
अपने मुकदमे के विवरण को अत्यन्त सावधानी से तैयार करना, प्रभावी भाषण और उसे आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत करने की कला, वे महान विशेषताएं थीं जिनसे वह एक सफल वकील के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
पत्रकारिता को कला मानते थे
मालवीय जी पत्रकारिता को एक कला मानते थे। उन्होंने पत्रकारिता में नई परम्पराओं की शुरुआत की, हिन्दी प्रेस की आधारशिला रखी और इसे भारतीय जनता की सेवा का माध्यम बनाया।
उन्होंने सदा प्रेस की स्वतंत्रता के लिए कार्य किया, इसके लिए लड़ाई लड़ी और “अखिल भारतीय सम्पादक सम्मेलन” की शुरुआत की तथा बड़ी संख्या में सम्पादकों को प्रशिक्षित एवं प्रेरित किया।
“हिन्दुस्तान” के सम्पादक के रूप में वह जनसमुदाय में बहुत लोकप्रिय हो गए और उनके सम्पादन काल में यह समाचारपत्र भी अत्यधिक लोकप्रिय हुआ।
मालवीय जी ने वर्ष 1907 में एक हिन्दी साप्ताहिक “अभ्युदय” का भी प्रकाशन शुरू किया।
अखबारों के प्रकाशन में योगदान
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, जो कि उनका एक सपना था, के प्रस्ताव का समर्थन करने के साथ-साथ इस समाचार पत्र में उस समय की ज्वलंत समस्याओं पर भी प्रकाश डाला जाता था।
बंगाल के विभाजन से समूचा भारत ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ। देशभक्त भारतीयों की भावनाओं को संकलित तथा अभिव्यक्त करने के लिए एक अंग्रेजी दैनिक की शुरुआत करने को अनिवार्य आवश्यकता महसूस हुई।
फलस्वरूप मालवीय जी के प्रयासों के कारण 24 अक्तूबर, 1909 को “दि लीडर” समाचार पत्र अस्तित्व में आया। एक हिन्दी मासिक पत्रिका “मर्यादा” के प्रकाशन में भी मालवीय जो का काफी योगदान था।
साहित्यिक योगदान
न्यायालयों में फारसी मिश्रित उर्दू के प्रयोग के विरोध के फलस्वरूप प्रयाग में 1884 में ‘हिन्दी उद्घारिणी प्रतिनिधि सभा’ नामक संस्था की स्थापना की गई थी।
यह सभा का सौभाग्य था कि उसे मदन मोहन मालवीय के रूप में एक उत्साही कार्यकर्ता मिला। जब महान विद्वान पंडित बालकृष्ण भट्ट ने अपनी हिन्दी मासिक पत्रिका “प्रदीप” शुरू की तो मालवीय जी इसके लिए नियमित रूप से अपने लेख भेजा करते थे।
यह कार्य उस कार्य के अतिरिक्त था जो यह युवा देशभक्त हिन्दी के विकास हेतु “हिन्दुस्तान” तथा “अभ्युदय” के माध्यम से पहले ही कर रहा था।
अक्तूबर 1910 में मालवीय जी ने वाराणसी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता की तथा अध्यक्षीय भाषण दिया। फरवरी 1915 में उन्होंने इलाहाबाद में अखिल भारतीय सेवा समिति’ की स्थापना की। मालवीय जी ने काशी की ‘नागरी प्रचारणी सभा’ की गतिविधियों में आरंभ से ही अत्यधिक रुचि ली।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की
अपने जीवन की प्रारंभिक अवस्था में ही मदन मोहन मालवीय ने एक ऐसी संस्था खोलने की बात सोचनी शुरू कर दी जिसमें विश्व के सभी छात्रों के लिए, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म और राष्ट्रीयता के हों, सभी विषयों की शिक्षा उपलब्ध हो।
यह स्वप्न तब साकार हुआ जब वर्ष 1904 में बनारस के महाराजा की अध्यक्षता में काशी में हुई बैठक में उन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु एक औपचारिक संकल्प प्रस्तुत किया।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु संकल्प की सार्वजनिक घोषणा 1 जनवरी 1906 को कांग्रेस पंडाल में की गयी। अन्ततः बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की आधारशिला 4 फरवरी 1916 को रखी गयी।
होम रूल आंदोलन का झंडा किया बुलंद
वर्ष 1909 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में मालवीय जी से नये अध्यक्ष के रूप में राष्ट्र की नियति का मार्गदर्शन करने का अनुरोध किया गया। लाहौर अधिवेशन में उनका भाषण उत्साह और आत्मसंयम का संतुलित मिश्रण था।
उन्होंने ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों की आलोचना की और भारतीयों से स्वतंत्रता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए निष्ठा से कार्य करने का आह्वान किया।
वर्ष 1914 में यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया जिससे पूरे विश्व की शान्ति को खतरा पैदा हो गया। इसके फलस्वरूप, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में प्रस्ता 4 पारित किया गया कि जिन देशों ने भारतीयों को अपने देश से निष्कासित किया है, उन सभी का आर्थिक बहिष्कार किया जाये।
मालवीय जी ने मती एनी बेसेंट द्वारा प्रारंभ किए गए होम रूल आन्दोलन का झंडा निर्भयतापूर्वक उठाया।
देश की आजादी की मांग
मालवीय जी भारत में संवैधानिक आंदोलन के प्रबल समर्थकों में से थे। वर्ष 1916 में मदन मोहन मालवीय ने इम्पीरियल काउंसिल के अन्य गैर-सरकारी सदस्यों के साथ हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में “मेमोरन्डम ऑफ नाइन्टीन” नामक एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए जिसमें स्पष्ट शब्दों में स्वतंत्रता की मांग की गई और अंग्रेजी हुकूमत की उसकी दमनकारी नीतियों के लिए निंदा की गई थी।
मालवीय जी की दृढ़ इच्छाशक्ति
मदन मोहन मालवीय दृढ़ इच्छा शक्ति वाले व्यक्ति थे। आलोचना अथवा किसी के कोपभाजन की परवाह किए बिना, जो कुछ भी वह ठान लेते थे उसे दृढ़तापूर्वक पूरा करते थे।
वह स्वदेशी नीति के साथ- साथ शुल्क संरक्षण नीति के समर्थक थे। उन्होंने स्वदेशों के संबंध में गोखले की उक्ति को स्वीकार किया, जिन्होंने इसकी व्याख्या इस प्रकार को यो “अपने देश के प्रति गहन लगाव, तीव और प्रगाढ़ प्रेम”।
स्वदेशी को बढ़ावा
मालवीय जी के अनुसार शुल्क संरक्षण नीति के अभाव में भारतीय उद्योगों का विकास और उन्हें बचाये रखना केवल तभी संभव हो सकता है जब स्व सहायता और आत्मत्याग की इस नीति को स्वयं पर आत्मसंयम लागू करके अपनाया जाये कि भारत में बनी वस्तुओं को ही खरीदा जाये, चाहे वे विदेशी वस्तुओ से महंगी ही क्यों न हों।
मालवीय जी ने माना कि देश में पूंजी और प्रतिभा की कमी नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि जनहित की भावना से ओत-प्रोत सम्माननीय शिक्षित व्यक्ति इस उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए आगे आयें। मालवीय जी ने स्वदेशी आन्दोलन को उत्साहपूर्वक शुरू किया और प्रयाग तथा अन्य स्थानों पर स्वदेशी निर्माण केन्द्रों की स्थापना के प्रयास किये। मार्च 1932 में मालवीय जी ने स्वदेशी विचार के जोर-शोर से प्रचार-प्रसार हेतु वाराणसी में ‘अखिल भारतीय स्वदेशी संघ’ की स्थापना की।
ब्रितानिया हुकूमत ने किया गिरफ्तार
मालवीय जी से 1932 में दिल्ली में आयोजित होने वाले कांग्रेस के 47वें अधिवेशन की अध्यक्षता करने का अनुरोध किया गया था।
उस समय कांग्रेस पर कानूनी प्रतिबंध लगा हुआ था। मालवीय जी ने कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया परंतु, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा दिल्ली कांग्रेस अधिवेशन के कुछ दिनों के पश्चात् छोड़ दिया गया।
कम्यूनल अवार्ड का खुलकर विरोध
वर्ष 1932 में ब्रिटेन के प्रधान मंत्री रैम्से मैक्डोनाल्ड ने “कम्यूनल अवार्ड” की घोषणा की जिसकी मालवीय जी ने खुलकर भर्त्सना की।
उनका विश्वास था कि जब तक “कम्यूनल अवार्ड” बना रहेगा, सांप्रदायिकता बढ़ती जायेगी जो राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रीय सरकार दोनों के लिए बाधक होगी।
मालवीय जी प्रतिनिधित्व को किसी भी योजना के बारे में बहुसंख्यकों तथा अन्य अल्पसंख्यकों के बीच सहमति बनने तक संवैधानिक सुधारों के लिए प्रतीक्षा करने को तैयार थे।
वर्ष 1937 में मालवीय जी ने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया फिर भी वे भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करते रहे।
निधन
दिनांक 12 नवंबर 1946 को नियति के क्रूर हाथों ने भारत माता के इस महान सपूत को हमसे छीन लिया।
उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए महात्मा गांधी ने कहा थाः “पंडित मालवीय जी के निधन से भारत में अपना सबसे वरिष्ठ तथा एक योग्यतम। एवं अप्रतिम सेकक खो दिया है। अंतिम समय तक वह भारत तथा इसकी स्वतंत्रता के बार में सोचते रहे।”
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मालवीय जो को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए कहा थाः
यह उन महान लोगों में से एक थे जिन्होंने आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद को धरथी और इसपर एकाएक एक पत्थरखकर भारतीय स्वतंत का शानदार भवन खड़ा किया।”
भारत रत्न से नवाजा गया
पडित मदन मोहन मालवीय द्वारा आधुनिक भारत के निर्माण में को गई निःस्वार्थ सेवाओं और बहुमूल्य योगदानों के सम्मान स्वरूप उन्हें मरणोपरांत 24 दिसम्बर 2014 को देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया।
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