लाल किले के दीवान ए खास के पछील की दीवार के मध्य में करीब 21 फुट की चौड़ाई में संगमरमर पर पच्चीकारी का काम किया गया है, जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के और रंगों के पत्थर जड़े हुए हैं और जहां तरह-तरह की फूल-पत्तियां, बेल-बूटे, गुलदस्ते और चिड़ियों की सनअतकारी दिखाई गई है। बीच में एक संगमरमर का चबूतरा आठ फुट ऊंचा और सात फुट चौड़ा है, जिस पर संगमरमर का कुर्सीदार बंगला चार गज मुरब्बा बना हुआ है।

इसके चार खंभे हैं, जिन पर वह बंगला खड़ा है। ये खंभे संगमरमर की खुदाई के काम के हैं जिन पर सुनहरी कलस चढ़े हुए हैं। इस बंगले पर और पीछे की दीवार पर, जो सात गज लंबी और ढाई गज चौड़ी है, तरह-तरह के रंगीन और बहुमूल्य पत्थर लगे हुए हैं और बेल-बूटे तराशे हुए हैं। इस दीवार के पीछे शाही महल था उसमें दरवाजे लगे हुए थे।

जब कभी दरबारे आम होता था, बादशाह उस ओर से आते थे और तख्त पर बैठते थे और तमाम राज्य अधिकारी हाथ बांधकर तख्त के सामने खड़े होते थे। तख्त को कुर्सी आदमी के कद से ऊंची है। इस वास्ते इस तख्त के आगे संगमरमर का बहुत सुंदर एक तख्त रखा है। जब किसी को कुछ निवेदन करना होता था तो आज्ञा पाकर वजीर खड़ा होकर बादशाह के सामने निवेदन पेश करता था।

यह तख्त संगमरमर का है और 7 फुट लंबा, 4 फुट चौड़ा तथा 3 फुट ऊंचा है। इसका सारा काम लोग उखाड़कर ले गए। चबूतरे के चारों ओर भी वैसा ही रंगीन फूल-पत्ती का काम है। संगमरमर का यह चबूतरा और बंगला दालान की पूरी चौड़ाई में नहीं है, बल्कि चबूतरे के दोनों ओर है। इस बंगले की जमीन के बराबर दो संगमरमर की बैठकें थीं, जो उन उमरा के बैठने के लिए थीं, जो बादशाह के खास खिदमतगार थे। इस तख्त के तीन ओर मुलम्मा किया हुआ था और चौथी ओर एक लोहे का 30 फुट * 40 फुट का कटारा था। यह स्थान दरबारी उमरा के लिए नियत था।

बादशाह के दरबार की शान भी अजीब हुआ करती थी। उस वक्त बड़े-बड़े राजा, उमरा और मनसबदार दरबार में हाजिर होने के लिए जर्क-बर्क लिबास पहने, बड़ी शानो-शौकत के साथ आते थे। मनसबदार घोड़ों पर सवार दो नौकर उनके आगे, दो पीछे ‘हटो, बचो’ कहते चलते थे। राजा और उमरा घोड़ों पर चढ़कर या पालकियों में सवार होकर आते थे, जिन्हें छह आदमी कंधों पर उठाते थे। पालकियों में किमखाब के मसनद-तकिए लगे रहते थे, उमरा उनका सहारा लगाए, पान चबाते आते थे, पालकी के एक तरफ एक नौकर चीनी या चांदी का पीकदान उठाए और दूसरी तरफ दो नौकर मोरपंख से हवा करते और मक्खियां उड़ाते चलते थे। तीन-चार पैदल आगे-आगे ‘हटो, बचो’ करते चलते थे। पीछे चंद घुड़सवार अंगरक्षकों के रूप में चलते थे।

दरबार डेढ़-दो घंटे होता था। दरबार के शुरू में चंद घोड़े बादशाह के सामने से गुजारे जाते थे, ताकि बादशाह देख सकें कि वे अच्छी हालत में रखे जाते हैं या नहीं। फिर हाथी गुजारे जाते थे, जिनको खूब सजाया होता था। वे सूंड उठाकर बादशाह को सलाम करते थे। फिर हिरन, नीलगाय, भैंसे, कुत्ते और फिर परिंदे गुजारे जाते थे। इसके बाद किसी-न-किसी अमीर की फौज गुजरती थी। इतना ही नहीं, बादशाह खुद अपनी फौज के एक-एक सिपाही का ध्यान रखते थे। सबसे वह खुद मिलते थे और पूछताछ करते थे। जनता की तमाम अर्जियां बादशाह के सामने पेश की जाती थीं, जिन्हें वह खुद सुनते थे। अर्जीरसां दरबार में खुद हाजिर होकर दरख्वास्त गुजारता था। बादशाह उसकी शिकायत सुनकर हुक्म सादिर फरमाते थे और इंसाफ करते थे। ये सब अदब- कायदे फर्रुखसियर के जमाने तक ही जारी रहे।

दीवाने आम के उत्तर की ओर के दरवाजे से होकर एक सहन को पार करके एक और दरवाजा आता था, जिसे लाल पर्दा कहते थे। इससे जनानखाने में दाखिल होते थे, जो दीवाने खास के सामने की तरफ था। इस दरवाजे पर बादशाह के अंगरक्षक खड़े रहते थे। अंतिम सहन के मध्य में और नदी की ओर की दीवार के साथ, जिसे जेरसरोखा कहते थे, दीवाने खास, शाही हम्माम और मोती मस्जिद की इमारतें तथा बादशाह के निजी मकान थे। इधर से ही रंगमहल और जनानखाने को रास्ता था। इसके उत्तर की तरफ हयात बख्श बाग था।

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