Gen z के विरोध प्रदर्शनों के चलते तत्कालीन नेपाली सरकार को देना पड़ा इस्तीफा
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
नेपाल की हाल की और ऐतिहासिक घटनाएं, जिसमें राजशाही के अंत के बाद से राजनीतिक अस्थिरता, लोकतंत्र के प्रति बढ़ता मोहभंग, और भ्रष्टाचार का गहराता संकट शामिल है, भारत के लिए गहन भू-राजनीतिक और रणनीतिक निहितार्थ रखती हैं। यह रिपोर्ट इन घटनाओं का एक विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करती है, यह दर्शाते हुए कि नेपाल की आंतरिक उथल-पुथल केवल एक घरेलू मामला नहीं है, बल्कि यह सीधे तौर पर भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और ‘पड़ोसी पहले’ की नीति की प्रभावशीलता को प्रभावित करती है। विश्लेषण से यह पता चलता है कि नेपाल में लोकतंत्र का संक्रमण अधूरा रहा है, जहाँ माओवादी क्रांति और बाद की सरकारें जनता की सामाजिक-आर्थिक आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रही हैं। इस विफलता ने राजनीतिक शून्य पैदा किया है, जिसका फायदा उठाकर चीन ने “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” (BRI) जैसी पहलों के माध्यम से अपनी आर्थिक और रणनीतिक पैठ बढ़ाई है।
भारत के लिए, इन घटनाओं से कई महत्वपूर्ण सबक सामने आते हैं। सबसे पहला सबक यह है कि भारत को नेपाल के प्रति अपनी “सब कुछ या कुछ नहीं” की नीति को छोड़ देना चाहिए और एक अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो संप्रभुता का सम्मान करता हो। दूसरा, ऐतिहासिक संधियों, जैसे 1950 की शांति और मैत्री संधि, का समय-समय पर पुनर्मूल्यांकन करना आवश्यक है ताकि वे समकालीन वास्तविकताओं के अनुरूप हों। तीसरा, भारत को नेपाल की आंतरिक स्थिरता को अपनी स्वयं की सुरक्षा के लिए अपरिहार्य मानना चाहिए, क्योंकि एक अस्थिर पड़ोसी सीमा-पार अपराध, तस्करी और विदेशी हस्तक्षेप के लिए एक उपजाऊ जमीन प्रदान करता है। अंत में, यह रिपोर्ट सिफारिश करती है कि भारत को अपनी सॉफ्ट पावर—सांस्कृतिक, धार्मिक और लोगों-से-लोगों के संबंधों—का प्रभावी ढंग से उपयोग करना चाहिए ताकि चीन की “हार्ड पावर” (आर्थिक और सैन्य) कूटनीति का मुकाबला किया जा सके। नेपाल की आंतरिक स्थिरता में सक्रिय रूप से सहयोग करके और आपसी सम्मान पर आधारित संबंध बनाकर ही भारत एक स्थायी और लचीले पड़ोस का निर्माण कर सकता है।
नेपाल – एक अस्थिर पड़ोस, भारत के लिए एक चुनौती
भारत और नेपाल के संबंध केवल दो पड़ोसी देशों के बीच की सीमा तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह अनादि काल से चली आ रही एक गहन सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक डोर है। दोनों देशों के बीच 1,751 किलोमीटर की एक खुली और झरझरा सीमा है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और सिक्किम से सटी हुई है। इस खुली सीमा ने दोनों देशों के लोगों के बीच बेरोक-टोक आवागमन और मजबूत संबंध स्थापित किए हैं, जिससे लाखों नेपाली नागरिक भारत में निवास और कार्य करते हैं। स्वतंत्रता के बाद, इन विशेष संबंधों को 1950 की भारत-नेपाल शांति और मैत्री संधि के माध्यम से एक संस्थागत रूप दिया गया, जिसने नेपाली नागरिकों को भारत में अद्वितीय अवसर प्रदान किए।
हालांकि, नेपाल में हाल के वर्षों में हुई घटनाओं ने इस पारंपरिक संबंध की नींव को हिला दिया है। राजशाही के अंत के बाद से, नेपाल ने एक अपूर्ण और अस्थिर राजनीतिक संक्रमण का अनुभव किया है। इस अवधि में, देश ने लगातार सरकारों में बदलाव, बढ़ते भ्रष्टाचार, और लोकतंत्र से जनता के मोहभंग को देखा है, जिसने राजशाही की वापसी जैसी मांगों को फिर से जन्म दिया है। ये आंतरिक उथल-पुथल सीधे तौर पर भारत को प्रभावित करती है, क्योंकि एक अस्थिर नेपाल भारत के लिए गंभीर भू-राजनीतिक और सुरक्षा जोखिम पैदा करता है, विशेष रूप से चीन के बढ़ते प्रभाव के संदर्भ में।
यह रिपोर्ट नेपाल की घटनाओं की जड़ों को गहराई से तलाशती है। यह नेपाल की आंतरिक अस्थिरता के सामाजिक-राजनीतिक कारणों का विश्लेषण करती है, भारत के साथ संबंधों की बदलती रूपरेखा पर प्रकाश डालती है, और इस भू-राजनीतिक परिदृश्य में चीन के रणनीतिक प्रवेश का मूल्यांकन करती है। अंततः, इस विश्लेषण का उद्देश्य भारत के लिए महत्वपूर्ण रणनीतिक सबक निकालना है, ताकि वह अपनी विदेश नीति को पुन: संरचित कर सके और एक स्थायी, सुरक्षित और पारस्परिक रूप से लाभकारी भविष्य सुनिश्चित कर सके।
खंड 1: नेपाल की आंतरिक अस्थिरता का गहन विश्लेषण
नेपाल का राजनीतिक इतिहास राजशाही, लोकतंत्र और माओवादी विद्रोह के बीच एक जटिल संघर्ष से भरा रहा है। इन संघर्षों ने वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता की नींव रखी है, जो भारत के लिए एक गंभीर चुनौती बनी हुई है।
1.1. राजशाही से गणतंत्र तक: एक अपूर्ण संक्रमण
नेपाल की वर्तमान अराजकता की जड़ें 1996 से 2006 तक चले माओवादी विद्रोह में पाई जा सकती हैं। इस गृहयुद्ध का दावा “सामाजिक-आर्थिक ढांचे को बदलकर” एक न्यायपूर्ण और समतावादी समाज बनाने का था, लेकिन इसके परिणामस्वरूप 16,000 से अधिक लोगों की जान गई। इस आंदोलन की परिणति 2008 में 240 साल पुरानी राजशाही के खात्मे के रूप में हुई, जब एक नव-निर्वाचित संविधान सभा ने नेपाल को एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया। राजा ज्ञानेंद्र ने नारायणहिती पैलेस खाली कर दिया, जिसे बाद में एक संग्रहालय में बदल दिया गया। इस क्रांति को नेपाल के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ माना गया, लेकिन जनता की स्थिति में कोई मुकम्मल बदलाव नहीं आया है।
यह संक्रमण एक अपूर्ण क्रांति का चक्रव्यूह बन गया है। माओवादी आंदोलन ने सामाजिक और आर्थिक न्याय का वादा किया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद वे उन वादों को पूरा करने में विफल रहे। यह विफलता, लोकतांत्रिक सरकारों की अक्षमता और भ्रष्टाचार के साथ मिलकर, जनता के मोहभंग का कारण बनी। भारत के लिए, यह एक महत्वपूर्ण सबक है कि किसी भी पड़ोसी देश में राजनीतिक व्यवस्था का परिवर्तन केवल एक घटना नहीं होता, बल्कि इसके दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक परिणाम होते हैं जो सीधे तौर पर क्षेत्रीय सुरक्षा को प्रभावित कर सकते हैं। एक पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह से बदलने के बावजूद, यदि नई व्यवस्था लोगों की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती है, तो अस्थिरता का चक्र जारी रहता है।
1.2. राजनीतिक अराजकता और सत्ता की छीनाझपटी
राजशाही के उन्मूलन के बाद से, नेपाल ने राजनीतिक अस्थिरता का एक अभूतपूर्व दौर देखा है। 2008 के बाद से, देश ने लगभग 17 वर्षों में 14 सरकारों का गठन देखा है। यह लगातार सत्ता परिवर्तन एक बिखरी हुई और कमजोर शासन व्यवस्था का संकेत है। जैसा कि हाल के विरोध प्रदर्शनों के दौरान देखा गया, तत्कालीन प्रधानमंत्री ओली की पार्टी के पास भी संसद की 285 सीटों में से केवल 78 सीटें थीं, जो शासन को कमजोर बनाता है और भ्रष्टाचार को पनपने का मौका देता है।
यह अस्थिरता केवल एक आंतरिक मामला नहीं है; यह बाहरी शक्तियों, विशेषकर चीन, के लिए हस्तक्षेप का एक खुला निमंत्रण है। जब कोई मजबूत और स्थिर सरकार नहीं होती है, तो बाहरी खिलाड़ी छोटे राजनीतिक गुटों और नेताओं को साधकर अपनी भू-राजनीतिक पकड़ मजबूत कर सकते हैं। यह भारत के लिए एक गंभीर सुरक्षा चुनौती है, क्योंकि नेपाल की अस्थिरता से सीमा पार आपराधिक गतिविधियां जैसे ड्रग ट्रैफिकिंग और आतंकवादी गुटों का आधार बनाना बढ़ सकता है।
1.3. लोकतंत्र से मोहभंग: भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और नागरिक असंतोष
नेपाल में हाल के विरोध प्रदर्शनों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जनता का गुस्सा केवल सोशल मीडिया प्रतिबंध जैसे तात्कालिक मुद्दों से नहीं उपजा है, बल्कि यह दशकों से चले आ रहे भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, अस्थिर राजनीति और कमजोर अर्थव्यवस्था का परिणाम है। युवाओं का असंतोष विशेष रूप से गहरा है, क्योंकि वे नेताओं के आलीशान जीवनशैली और बड़े घोटालों (जैसे गिरि बंधु भूमि स्वैप और ओरिएंटल कॉरपोरेटिव घोटाले) से निराश हैं, जबकि बेरोजगारी दर लगातार बढ़ रही है। यह निराशा युवाओं के बड़े पैमाने पर विदेश पलायन का भी एक प्रमुख कारण है, जो सरकार की विफलता का एक स्पष्ट संकेत है।
यह स्थिति भारत को एक महत्वपूर्ण सबक देती है: लोकतंत्र केवल चुनावों का आयोजन नहीं है, बल्कि यह सुशासन, आर्थिक विकास और नागरिक आकांक्षाओं को पूरा करने की क्षमता भी है। जब ये उम्मीदें पूरी नहीं होतीं, तो जनता का मोहभंग होता है। यह मोहभंग व्यवस्था के प्रति अविश्वास को जन्म देता है, न कि केवल नेताओं के प्रति, और भारत जैसे अन्य लोकतांत्रिक देशों के लिए एक चेतावनी है।
1.4. राजशाही की वापसी की मांग के सामाजिक-राजनीतिक कारण
लोकतंत्र से निराशा के बीच, नेपाल में राजशाही की वापसी की मांग ने फिर से जोर पकड़ा है, जहाँ हजारों लोग “राजा वापस आओ, देश बचाओ” जैसे नारे लगाते हुए सड़कों पर उतरे हैं। पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के समर्थक मानते हैं कि राजशाही के दौर में कम से कम स्थिरता थी और भ्रष्टाचार आज की तुलना में कम था। यह मांग नेपाल के लोगों द्वारा वर्तमान राजनीतिक अराजकता से भागकर एक सरलीकृत अतीत में शरण लेने का संकेत है। यह एक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक मोड़ है, जो दर्शाता है कि लोग राजनीतिक स्वतंत्रता की तुलना में स्थिरता, भ्रष्टाचार-मुक्त शासन और आर्थिक सुरक्षा को अधिक महत्व दे रहे हैं। भारत के लिए यह सबक है कि लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन करना पर्याप्त नहीं है; उसे अपने पड़ोसियों को सुशासन और स्थिरता प्राप्त करने में भी मदद करनी चाहिए।
नेपाल के राजनीतिक घटनाक्रम को समझने के लिए, निम्नलिखित तालिका प्रमुख घटनाओं का एक कालानुक्रमिक अवलोकन प्रस्तुत करती है:
तालिका 1: नेपाल में प्रमुख राजनीतिक घटनाक्रम (1990-वर्तमान)
घटनाक्रम | अवधि / वर्ष | प्रभाव और परिणाम |
माओवादी विद्रोह | 1996 – 2006 | 16,000 से अधिक लोगों की मौत। सामाजिक-आर्थिक न्याय के लिए संघर्ष। |
लोकतांत्रिक आंदोलन | 2006 | राजा के प्रत्यक्ष शासन के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन। |
राजशाही का अंत | 28 मई, 2008 | 240 साल पुरानी राजशाही समाप्त। नेपाल एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित। |
संविधान का अनावरण | सितंबर, 2015 | नेपाल का पहला लोकतांत्रिक संविधान अपनाया गया। इसने राजतंत्र की वापसी की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। |
सरकारों का गठन | 2008 – वर्तमान | 17 वर्षों में 14 सरकारों का गठन, जो अत्यधिक राजनीतिक अस्थिरता को दर्शाता है। |
खंड 2: भारत-नेपाल संबंधों की बदलती रूपरेखा
भारत और नेपाल के संबंध गहरे हैं, लेकिन हाल के वर्षों में कई प्रमुख मुद्दों ने इस रिश्ते में तनाव पैदा किया है। इन तनावों से भारत की विदेश नीति के लिए महत्वपूर्ण सबक मिलते हैं।
2.1. पारंपरिक संबंधों का मूल्यांकन: सांस्कृतिक और आर्थिक डोर की वर्तमान स्थिति
भारत और नेपाल के संबंध भौगोलिक निकटता, साझा इतिहास और गहन सांस्कृतिक संबंधों पर आधारित हैं। दोनों देश खुली सीमा साझा करते हैं, जिससे लोगों का बेरोक-टोक आवागमन होता है। यह संबंध धार्मिक स्थानों जैसे पशुपतिनाथ और मुक्तिनाथ मंदिर और नेपाल के जनकपुर को माता सीता की जन्मस्थली मानने जैसी सांस्कृतिक डोर से भी बंधा हुआ है। भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार और निवेशक है, और लाखों नेपाली नागरिक रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भारत पर निर्भर हैं।
हालांकि, यह करीबी और आर्थिक निर्भरता एक दोधारी तलवार साबित हुई है। नेपाल के दृष्टिकोण से, यह निर्भरता अक्सर “बड़े भाई” के कथित व्यवहार की भावना पैदा करती है, जो राष्ट्रवाद की भावना को भड़काता है। भारत द्वारा दी गई सहायता या खुले बाजार के अवसर, जो भारत की तरफ से सद्भावना के प्रतीक हैं, उन्हें नेपाल में एकतरफा संबंध और संप्रभुता पर हस्तक्षेप के रूप में भी देखा जा सकता है। भारत को यह समझना होगा कि एकतरफा निर्भरता का संबंध अक्सर असमानता की भावना को जन्म देता है, जिससे राष्ट्रीय संप्रभुता के मुद्दों पर तनाव बढ़ जाता है।
2.2. 1950 की शांति और मैत्री संधि: सम्मान या संप्रभुता का मुद्दा
1950 की भारत-नेपाल शांति और मैत्री संधि को दोनों देशों के संबंधों की आधारशिला माना जाता है। यह संधि नेपाली नागरिकों को भारतीय नागरिकों के समान ही सुविधाएं और अवसर प्रदान करती है, जिसमें भारत में मुक्त आवाजाही और रोजगार शामिल है। हालांकि, यह संधि, जो अपने समय में संबंधों को मजबूत करने के लिए थी, अब नेपाल के कुछ वर्गों द्वारा “विभेदमूलक” और “भारत द्वारा थोपी गई” मानते हुए इसकी आलोचना की जाती है। उनका तर्क है कि यह संधि उनकी संप्रभुता और स्वतंत्रता के विपरीत है।
यह स्थिति भारत के लिए एक कूटनीतिक चुनौती है। यह एक महत्वपूर्ण सबक है कि भारत को अपनी ऐतिहासिक संधियों का समय-समय पर पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए ताकि वे बदलती भू-राजनीतिक वास्तविकताओं और अपने पड़ोसियों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं के अनुरूप हों। पुरानी संधियों को कठोरता से पकड़े रहना संबंधों में अनावश्यक तनाव का कारण बन सकता है, जिससे दोनों देशों के बीच विश्वास का भारी घाटा हो सकता है।
2.3. सीमा विवादों का भावनात्मक और रणनीतिक पहलू: कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा
भारत-नेपाल संबंधों में एक प्रमुख तनाव का कारण सीमा विवाद रहा है। 1816 की सुगौली की संधि के बाद भी, कालापानी और सुस्ता जैसे कुछ क्षेत्र अनसुलझे रह गए हैं। यह विवाद महाकाली नदी के उद्गम स्थल को लेकर विभिन्न राय का परिणाम है, जहाँ दोनों देश अपने-अपने दावे पेश करते हैं। 2020 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली की सरकार ने एक नया राजनीतिक नक्शा जारी किया, जिसमें उत्तराखंड के लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाल का हिस्सा बताया गया।
नेपाल के लिए, सीमा विवाद केवल एक भौगोलिक मुद्दा नहीं है; यह उसकी संप्रभुता और राष्ट्रवाद से जुड़ा एक भावनात्मक मुद्दा है। ओली जैसे नेताओं ने भारत विरोधी भावना भड़काने के लिए इस मुद्दे का राजनीतिकरण किया, यह दावा करते हुए कि लिपुलेख विवाद पर अपने रुख के कारण ही उन्हें सत्ता से हटाया गया। भारत के लिए यह सबक है कि सीमा विवादों का समाधान केवल तकनीकी बातचीत से नहीं, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक संवेदनशीलता के साथ किया जाना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह घरेलू राजनीति का शिकार न बने।
2.4. “बड़ा भाई” दृष्टिकोण: नेपाल की संप्रभुता पर कथित हस्तक्षेप का संकट
भारत को नेपाल में अक्सर “बड़े भाई” के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह दृष्टिकोण अक्सर नेपाल के भीतर भारत विरोधी भावना को बढ़ावा देता है। नेपाल लगातार भारत पर उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाता रहा है। 2015 के मधेशी आंदोलन और नाकाबंदी के दौरान भारत के रुख को इस कथित हस्तक्षेप का एक प्रमुख उदाहरण माना जाता है। नेपाल के भीतर यह संदेश गया कि नाकाबंदी में भारत की सहमति थी, जिससे दोनों देशों के बीच विश्वास का भारी घाटा हुआ।
भारत की नेपाल नीति में एक मौलिक विरोधाभास है। भारत एक जिम्मेदार पड़ोसी के रूप में नेपाल की स्थिरता चाहता है, लेकिन जब वह स्थिरता खतरे में होती है, तो भारत की प्रतिक्रिया को अक्सर आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप माना जाता है। भारत को यह समझना होगा कि संप्रभु राष्ट्र अपने आंतरिक मामलों में बाहरी भागीदारी को पसंद नहीं करते, भले ही वह सद्भावपूर्ण क्यों न हो। भारत को कूटनीति और नागरिक सहायता के बीच एक महीन रेखा खींचनी होगी।
भारत-नेपाल संबंधों में प्रमुख तनाव बिंदुओं को संक्षेप में समझने के लिए, निम्नलिखित तालिका देखें:
तालिका 3: भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों के मुख्य तनाव बिंदु
तनाव बिंदु | विवरण | नेपाली दृष्टिकोण |
1950 की संधि | लोगों के मुक्त आवागमन और व्यापार के प्रावधान। | संप्रभुता के विपरीत, विभेदमूलक माना जाता है; इसके पुनर्मूल्यांकन की मांग। |
सीमा विवाद | कालापानी, लिपुलेख, लिम्पियाधुरा और सुस्ता पर विवाद। | 2020 में नया नक्शा जारी कर इन क्षेत्रों पर दावा किया; भावनात्मक और राजनीतिक मुद्दा। |
कथित हस्तक्षेप | 2015 की मधेशी नाकाबंदी में भारत पर आरोप। | भारत को अपने आंतरिक मामलों में दखल देने वाला माना जाता है, जिससे विश्वास का भारी घाटा हुआ। |
खंड 3: नेपाल में चीन का रणनीतिक प्रवेश और भारत पर इसका प्रभाव
नेपाल में आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता और भारत-नेपाल संबंधों में आए तनाव का लाभ उठाकर चीन ने अपनी आर्थिक और भू-राजनीतिक पैठ बढ़ाई है। यह भारत के लिए एक गंभीर और दीर्घकालिक सुरक्षा चुनौती है।
3.1. “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” (BRI) के तहत आर्थिक और अवसंरचनात्मक पैठ
चीन ने नेपाल को अपने महत्वाकांक्षी “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” (BRI) में एक प्रमुख भागीदार के रूप में शामिल किया है। इस पहल के तहत, चीन नेपाल में अरबों डॉलर का निवेश कर रहा है, जिसमें तिब्बत से काठमांडू तक रेलवे लाइन, सड़कों का निर्माण, और जलविद्युत परियोजनाएं शामिल हैं। यह निवेश नेपाल को अपनी भौगोलिक सीमाओं से बाहर दुनिया से जुड़ने का सपना दिखाता है।
हालांकि, चीन का यह निवेश परोपकार नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित रणनीतिक चाल है। जैसा कि श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह के मामले में देखा गया है, चीन “कर्ज के जाल” (debt trap) की नीति का उपयोग करता है। वह उन परियोजनाओं में निवेश करता है जो आर्थिक रूप से विफल होने की संभावना होती हैं, जिससे देश कर्ज के बोझ तले दब जाता है और चीन को रणनीतिक संपत्ति पर नियंत्रण मिल जाता है। भारत के लिए यह सबक है कि चीन के निवेशों को केवल आर्थिक नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक लेंस से देखना होगा। चीन की आर्थिक सहायता नेपाल की भारत पर निर्भरता को कम करने का एक साधन है।
3.2. राजनीतिक और कूटनीतिक प्रभाव का विस्तार
नेपाल की आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता ने चीन को वहां अपना प्रभाव बढ़ाने का मौका दिया है। जब भारत की पारंपरिक रूप से मजबूत पकड़ कमजोर हुई है, जैसे 2015 की नाकाबंदी के बाद, चीन ने इस राजनीतिक शून्य को भरा है। चीन नेपाल के चीन-समर्थक राजनीतिक दलों, जैसे के.पी. शर्मा ओली की सरकार, को बढ़ावा देता है, जिसके कार्यकाल में नेपाल ने भारत विरोधी रुख अपनाया। चीन नेपाल की लेफ्ट पार्टियों को एकजुट करने की कोशिश करता रहा है, ताकि वह वहां एक स्थिर और चीन-समर्थक सरकार सुनिश्चित कर सके।
चीन की कूटनीति नेपाल के नेताओं और दलों के बीच आंतरिक झगड़ों का लाभ उठाती है। भारत को यह समझना होगा कि अपने पड़ोसियों में अस्थिरता को नजरअंदाज करने से सीधे तौर पर विरोधी शक्तियों को फायदा होता है।
3.3. भारत की सुरक्षा पर भू-रणनीतिक जोखिम: हिमालयी बफर क्षेत्र का क्षरण
नेपाल का सामरिक महत्व भारत के लिए बहुत अधिक है, क्योंकि यह भारत और चीन के बीच एक “बफर राज्य” के रूप में काम करता है। चीन का बढ़ता प्रभाव और उसकी अवसंरचना परियोजनाएं इस बफर स्थिति को कमजोर कर सकती हैं। चीन द्वारा नेपाल तक बनाई जा रही रेलवे और सड़क परियोजनाएं हिमालय के दुर्गम इलाकों को भेद रही हैं, जिससे भारत के उत्तरी मैदानों के लिए सुरक्षा जोखिम बढ़ रहा है। यदि चीन का नेपाल की जमीन पर कब्जा होता है, तो यह भारत के लिए एक सीधा सुरक्षा खतरा होगा, क्योंकि चीन भारत को हिंद महासागर में घेरना चाहता है। भारत को यह समझना होगा कि नेपाल की आंतरिक और बाहरी नीतियां उसकी अपनी सुरक्षा से अविभाज्य रूप से जुड़ी हैं। नेपाल की स्थिरता भारत के लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा अनिवार्यता है।
नेपाल में भारत और चीन के निवेशों की तुलना निम्नलिखित तालिका में की गई है:
तालिका 2: भारत और चीन के आर्थिक और अवसंरचनात्मक निवेशों की तुलना (नेपाल में)
निवेश क्षेत्र | भारत द्वारा निवेश | चीन द्वारा निवेश |
अवसंरचना | सड़कों और रेल लिंक का विकास; सीमा सड़क संगठन (BRO) द्वारा परियोजनाओं का निर्माण | बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत रेलवे, सड़क और दूरसंचार नेटवर्क का विकास |
ऊर्जा | जलविद्युत परियोजनाओं में निवेश (जैसे त्रिशूली, चिलिमे); विद्युत विनिमय समझौते | जलविद्युत परियोजनाओं में भारी निवेश; पनबिजली परियोजनाओं में अधिकांश निवेश |
व्यापार और सहायता | सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार और निवेशक; विकास सहायता और अनुदान | अरबों डॉलर का लोन और सहायता; व्यापार और वाणिज्य क्षेत्र में गहरी पैठ |
खंड 4: भारत के लिए रणनीतिक सबक और भावी कार्ययोजना
नेपाल में हुई घटनाओं का गहन विश्लेषण भारत के लिए कई महत्वपूर्ण और कार्रवाई योग्य सबक प्रदान करता है। ये सबक भारत को अपनी ‘पड़ोसी पहले’ की नीति को अधिक संवेदनशील और प्रभावी बनाने में मदद कर सकते हैं।
4.1. “सब कुछ या कुछ नहीं” की नीति से परे
भारतीय विशेषज्ञों का मानना है कि नेपाल के साथ भारत की “सब कुछ या कुछ नहीं” (all or nothing) की नीति काम नहीं करेगी। यह दृष्टिकोण या तो अत्यधिक हस्तक्षेप का रूप ले लेता है, जिसे नेपाल अपनी संप्रभुता का उल्लंघन मानता है, या फिर पूरी तरह से पीछे हटना, जो चीन जैसे प्रतिद्वंद्वियों के लिए जगह बना देता है। भारत को नेपाल के प्रति अपनी नीति में एक बुनियादी बदलाव लाना होगा। उसे एक ऐसी मध्यस्थता की नीति अपनानी होगी जो नेपाल की संप्रभुता का सम्मान करते हुए उसकी विकासात्मक और सुरक्षा जरूरतों में एक संवेदनशील और उदार भागीदार की भूमिका निभाए। यह दृष्टिकोण भूटान के साथ भारत के सफल संबंधों से भी सीख ले सकता है, जो आपसी विश्वास और सम्मान पर आधारित हैं।
4.2. विश्वास बहाली: कूटनीति के साथ-साथ नागरिक सहायता तंत्र को मजबूत करना
विश्वास केवल आधिकारिक वार्ताओं या संधियों से नहीं बनता, बल्कि संकट के समय वास्तविक सहायता और जमीनी स्तर पर सकारात्मक प्रभाव से बनता है। 2015 के भूकंप के बाद भारत की तत्काल सहायता संबंधों को मजबूत करने का एक सकारात्मक उदाहरण था। भारत को चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए अपनी कूटनीतिक सतर्कता बढ़ानी चाहिए और सीमावर्ती क्षेत्रों में सामाजिक और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना चाहिए। भारत को नेपाल में अपने दूतावास और नागरिक सहायता तंत्र को और मजबूत करने की आवश्यकता है। यह भावनात्मक और व्यावहारिक कूटनीति का मिश्रण है, जो नेपाल की आंतरिक स्थिरता में मदद करके भारत की अपनी सुरक्षा को मजबूत कर रहा है।
4.3. द्विपक्षीय संधियों का पुनर्मूल्यांकन और एक यथार्थवादी समाधान की दिशा में कदम
भारत को यह समझना होगा कि पुरानी संधियों और समझौतों को कठोरता से पकड़कर रखना संबंधों में तनाव का कारण बन सकता है। भारत सरकार ने 1950 की संधि के पुनर्मूल्यांकन के लिए अपनी तत्परता व्यक्त की है। इसके अलावा, सीमा विवादों का समाधान रचनात्मक और यथार्थवादी दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए। भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा विवाद समाधान को एक मॉडल के रूप में अपनाने का सुझाव दिया गया है। यह दर्शाता है कि संवाद और लचीली कूटनीति से लंबे समय से चले आ रहे मुद्दों का समाधान संभव है। भारत को नेपाल के साथ भी इसी तरह की लचीली कूटनीति अपनानी चाहिए, ताकि उसकी संप्रभुता की वैध चिंताओं को दूर किया जा सके।
4.4. सॉफ्ट पावर का पुनरुत्थान: सांस्कृतिक संबंधों और लोगों-से-लोगों के संपर्क पर ध्यान
चीन मुख्य रूप से हार्ड पावर (आर्थिक और सैन्य) का उपयोग कर रहा है, जबकि भारत की सबसे बड़ी संपत्ति उसकी सॉफ्ट पावर है – उसके साझा धर्म, संस्कृति, और भाषा। भारत को अपने सांस्कृतिक और लोगों-से-लोगों के संबंधों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि चीन के प्रभाव को संतुलित किया जा सके। दोनों देशों के सेना प्रमुखों को मानद जनरल के पद से सम्मानित करने जैसी अनूठी परंपरा और भारतीय सेना में नेपाली गोरखाओं की भर्ती जारी रखने जैसी पहल संबंधों को मजबूत करने में मदद कर सकती है। भारत को अपनी सॉफ्ट पावर को एक रणनीतिक संपत्ति के रूप में उपयोग करना चाहिए।
4.5. नेपाल की आंतरिक स्थिरता का समर्थन: भारत की अपनी सुरक्षा के लिए अपरिहार्य
यह सबसे महत्वपूर्ण सबक है। नेपाल की आंतरिक स्थिरता भारत की अपनी सुरक्षा के लिए अपरिहार्य है। एक अस्थिर नेपाल एक सुरक्षित भारत नहीं हो सकता। नेपाल में अस्थिरता से भारत में ड्रग ट्रैफिकिंग और आतंकवादी संगठनों को बेस मिल सकता है, जो खुली सीमा के कारण एक बड़ा खतरा है। भारत को नेपाल के लोकतंत्र को मजबूत करने, भ्रष्टाचार से लड़ने और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय रूप से काम करना होगा, न कि केवल एक बाहरी पर्यवेक्षक के रूप में। भारत को नेपाल की सहायता करने के लिए एक उत्तरदायी पड़ोसी के रूप में अपनी भूमिका को निभाना होगा।
नजरअंदाज नहीं कर सकते पड़ोसी देश की आतंरिक उथल-पुथल
नेपाल की घटनाओं से भारत को यह महत्वपूर्ण सबक मिलता है कि एक पड़ोसी की आंतरिक उथल-पुथल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह सीधे तौर पर अपनी सुरक्षा को प्रभावित करती है। नेपाल में लोकतंत्र का अधूरा संक्रमण, राजनीतिक अस्थिरता, और भ्रष्टाचार ने जनता का मोहभंग किया है, जिससे चीन को अपनी आर्थिक और राजनीतिक पैठ बनाने का मौका मिला है। इस भू-राजनीतिक बदलाव ने नेपाल को एक पारंपरिक “बफर राज्य” से भारत के लिए एक संभावित रणनीतिक मोर्चे में बदल दिया है।
भारत को नेपाल के साथ अपने संबंधों को केवल रणनीतिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक साझेदार के रूप में देखना चाहिए। भारत की नीति का भविष्य संवेदनशीलता, सम्मान और रणनीतिक धैर्य पर आधारित होना चाहिए। यह समय है कि भारत “बड़े भाई” की छवि से बाहर निकले और नेपाल की संप्रभुता का सम्मान करते हुए, उसकी विकासात्मक और राजनीतिक स्थिरता में एक सहयोगी की भूमिका निभाए। पुराने समझौतों का पुनर्मूल्यांकन करके, विश्वास बहाली के लिए ठोस कदम उठाकर, और अपनी सॉफ्ट पावर का प्रभावी ढंग से उपयोग करके, भारत एक स्थायी और लचीला पड़ोसी संबंध बना सकता है जो दोनों देशों के लिए फायदेमंद हो। नेपाल की स्थिरता भारत की अपनी सुरक्षा और समृद्धि के लिए अपरिहार्य है।
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