भगवद् गीता और ओशो की शिक्षाओं पर आधारित इस ज्ञान से जानें जीवन रूपांतरण की वो कला, जो आपको अहंकार से मुक्त कर आनंद से भर देगी
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
ओंकार का रहस्य: हाल ही में हुए एक सत्संग में, मां अमृत प्रिया ने श्रद्धालुओं को जीवन के कोलाहल से परे ‘आत्मा के संगीत’ को सुनने का गहरा रहस्य समझाया। उन्होंने बताया कि आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हम सब अनगिनत आवाजों और विचारों के शोर से घिरे हैं, जिसमें हम खुद की आवाज सुनना ही भूल जाते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि इस बाहरी शोर के पार एक ऐसा संगीत है जो सिर्फ आपके भीतर गूंजता है?
यह लेख मां अमृत प्रिया द्वारा दी गई इन्हीं शिक्षाओं पर आधारित है, जो आपको बताएगा कि कैसे आप गीता, कबीर और ओशो के दिखाए मार्ग पर चलकर इस आंतरिक संगीत को सुन सकते हैं और अपने जीवन को एक उत्सव में बदल सकते हैं।
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ज्ञान का कोलाहल और आत्मा के संगीत में अंतर
हम में से कई लोग आध्यात्मिक शांति के लिए धार्मिक ग्रंथों का पाठ करते हैं, जैसे श्रीमद् भगवद् गीता। गीता निस्संदेह ज्ञान का सागर है। यह हमें विवेक सिखाती है, हमारे भ्रम दूर करती है, और जीवन में हमारी प्राथमिकताएं तय करने में मदद करती है। लेकिन अक्सर यह ज्ञान केवल हमारे मस्तिष्क तक सीमित रह जाता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी संगीत की किताब को पढ़ लेना, पर उसे कभी सुनना या गाना नहीं।
असली रूपांतरण तब होता है जब गीता का ज्ञान हमारे जीवन का चरित्र बन जाए, जब हमारा जीवन ही एक “भागवत गीत” बन जाए। इसके लिए केवल तर्कों और विचारों से बात नहीं बनती। इसके लिए हमें उस शून्य के संगीत, उस खामोशी की आवाज को सुनने की कला विकसित करनी पड़ती है, जिसे ‘ओंकार’ कहते हैं। यह बाहरी ज्ञान को भीतर की अनुभूति में बदलने की कुंजी है।
ओंकार का श्रवण: शून्य के संगीत को सुनने की कला
ओंकार केवल मुंह से बोला जाने वाला एक शब्द नहीं है, यह ब्रह्मांड की वह अनाहत ध्वनि है जो हर पल, हर जगह गूंज रही है—हमारे भीतर भी। यह वह मौलिक गूंज है जिससे सृष्टि का जन्म हुआ। जब हम बाहरी दुनिया के शोर से ध्यान हटाकर अपने भीतर उतरते हैं, तो यह सूक्ष्म ध्वनि हमें सुनाई देने लगती है।
इस पथ पर कोई नया या पुराना नहीं होता। जो साधक वर्षों से साधना कर रहे हैं, उनका ध्यान सहज ही इस संगीत की ओर चला जाता है। लेकिन जो आज भी शुरुआत करना चाहें, उनके लिए भी यह संगीत उतना ही उपलब्ध है। यह ध्यान ले जाने की बात है। जब हम अपना ध्यान इस आंतरिक ध्वनि पर केंद्रित करते हैं, तो बाहरी कोलाहल अपने आप शांत होने लगता है। हर आवाज, चाहे वह चिड़िया का चहकना हो या पत्तों की सरसराहट, हमें उसी एक परम संगीत की याद दिलाने लगती है।
मृत्यु का उत्सव: तीसरे नेत्र और ओंकार का संबंध
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं कि अंत समय में हमारी चेतना की स्थिति यह तय करती है कि हमारी आगे की यात्रा कैसी होगी। हम जीवन भर जिन चीजों को प्राथमिकता देते हैं, जिन संस्कारों को इकट्ठा करते हैं, मृत्यु के समय हमारा सूक्ष्म शरीर उन्हीं को “पैक” करके अपने साथ ले जाता है।
अगर हमारा ध्यान जीवन भर बाहरी दुनिया, भौतिक चीजों और निचले ऊर्जा चक्रों (क्रोध, भय, वासना) में भटका है, तो अंत समय में चेतना का तीसरे नेत्र (आज्ञा चक्र) पर केंद्रित होना लगभग असंभव है। लेकिन यदि हमने जीवन भर ओंकार के श्रवण का अभ्यास किया है, ध्यान को तीसरे नेत्र पर टिकाने की कला सीखी है, तो मृत्यु एक भयावह अंत नहीं, बल्कि एक महामिलन का उत्सव बन जाती है। तब हम कबीर की तरह कह सकते हैं:
जिस मरनै थै जग डरे, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूं, कब देखिहूं, पूरन परमानंद॥
यह तैयारी अचानक नहीं हो सकती। यह जीवन भर की साधना का परिणाम है, जहां हर अनुभव हमें उसी एक की याद दिलाए।
तकनीक नहीं, भावपूर्ण समर्पण है कुंजी
यह जानना महत्वपूर्ण है कि ओंकार का श्रवण या तीसरे नेत्र पर ध्यान केवल एक यांत्रिक तकनीक नहीं है। यदि इसमें भाव और प्रेम का समर्पण न हो, तो यह अधूरा है। विचार हमें खंड-खंड में बांटते हैं, तर्क-वितर्क पैदा करते हैं। लेकिन भाव हमें अखंड करता है, जोड़ता है। जब हमारा पूरा अस्तित्व प्रेम और समर्पण के साथ उस आंतरिक संगीत में डूबता है, तभी वास्तविक रूपांतरण घटित होता है। तब मृत्यु भय नहीं, बल्कि परमात्मा से मिलन की बेला बन जाती है।
क्या आपकी साधना सही है? ये हैं 3 अचूक परिणाम
मां अमृत प्रिया बताती हैं कि आप ओंकार के श्रवण और ध्यान के मार्ग पर सही चल रहे हैं या नहीं, इसे जांचने के तीन सरल पैमाने हैं। यदि आपकी साधना सही दिशा में है, तो आपके जीवन में ये तीन परिणाम स्वाभाविक रूप से दिखाई देंगे:
- होश का विकास (Growth of Awareness): आप अपने कार्यों, विचारों और भावनाओं के प्रति अधिक सजग और होशपूर्ण हो जाएंगे। आपका चैतन्य प्रखर होगा और आप हर पल को अधिक गहराई से जीना शुरू कर देंगे।
- अकारण आनंद की अनुभूति (Experience of Causeless Joy): आपकी खुशी बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं रहेगी। आप भीतर से एक अकारण सुख और आनंद का अनुभव करेंगे, जिसे किसी वजह की जरूरत नहीं होती।
- अहंकार का विसर्जन (Dissolution of the Ego): “मैं हूं” का भाव धीरे-धीरे घुलने लगेगा और “होने” की अनुभूति प्रगाढ़ होगी। वैयक्तिक अहंकार मिटेगा और आप सृष्टि के साथ एक लय में महसूस करेंगे।
यदि ये तीन चीजें आपके जीवन में घट रही हैं, तो समझिए कि आप भगवद् गीत को केवल पढ़ नहीं रहे, बल्कि उसे जी रहे हैं और उस परम संगीत के निरंतर करीब पहुंच रहे हैं।
मां अमृत प्रिया द्वारा दिए गए इस सत्संग का पूरा वीडियो ‘ओशो फ्रैगरेंस’ (Osho Fragrance) यूट्यूब चैनल पर भी अपलोड किया गया है, जहां जिज्ञासु इस विषय पर और गहरी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
प्रश्न और उत्तर (Q&A)
प्रश्न 1: ओंकार का वास्तविक अर्थ क्या है, जैसा कि सत्संग में बताया गया?
उत्तर: सत्संग के अनुसार, ओंकार केवल एक शब्द नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की वह मौलिक, अनकही ध्वनि है जो निरंतर गूंज रही है। यह शांति, सृष्टि और चेतना का प्रतीक है। इसे सुनना ही ध्यान की गहरी अवस्था है।
प्रश्न 2: गीता का पाठ करने और उसे जीवन में उतारने में क्या अंतर है?
उत्तर: गीता का पाठ करना ज्ञान को मस्तिष्क में इकट्ठा करना है, जबकि उसे जीवन में उतारने का अर्थ है उसके सिद्धांतों को अपनी दिनचर्या और चरित्र का हिस्सा बनाना। यह ओंकार जैसे आंतरिक अभ्यासों से ही संभव होता है।
प्रश्न 3: मां अमृत प्रिया के अनुसार साधना की सफलता को कैसे मापें?
उत्तर: मां अमृत प्रिया के अनुसार, साधना की सफलता को तीन पैमानों पर मापा जा सकता है: आपके होश या जागरूकता में वृद्धि, बिना किसी बाहरी कारण के आनंद की अनुभूति, और आपके अहंकार का धीरे-धीरे कम होना।
प्रश्न 4: इस सत्संग का वीडियो कहां देखा जा सकता है?
उत्तर: मां अमृत प्रिया द्वारा दिया गया यह पूरा सत्संग ‘ओशो फ्रैगरेंस’ (Osho Fragrance) नामक यूट्यूब चैनल पर वीडियो के रूप में उपलब्ध है।
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