1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर के बेटों का ब्रिटिश अफसर होडसन ने कत्ल कर दिया था। शव को कोतवाली के बाहर फेंक दिया गया। अफसर हेनरी ऊवरी ने जब शाहजादों की नंगी लाशें कोतवाली के बाहर पड़ी देखीं, तो उसने अपनी डायरी में लिखा कि यह तो अभी बदले की कार्रवाई की शुरुआत ही हुई है। इसके लिए अंग्रेज़ इतने दिन से योजनाएं बना रहे थे।

और थोड़े ही दिन में यह अवश्यंभावी भविष्यवाणी सच साबित होने लगी। बर्बाद हो चुके शहर में हर तरफ फांसी के तख़्ते लगाए जाने लगे-‘कहा जाता है कि दिल्ली में कोई इलाका ऐसा नहीं है, जिसका अपना फांसी का तख्ता न हो’, एक दिल्लीवाले ने लिखा है-और फिर फांसियां शुरू हो गई।

सबसे बड़ा फांसी का तख्ता ‘चांदनी चौक के बीचोंबीच था, एक बेढंगा सा लकड़ी का ढांचा, जो उस पूरी सड़क पर अकेली चीज थी। जो नई थी और साबुत खड़ी थी। कुछ दिन बाद जब 23 वर्षीय लेफ्टिनेंट ओमैनी हवाखोरी के लिए चौक गया, तो उसने सरसरी तौर से अपनी डायरी में लिखा कि उसने 19 आदमी कोतवाली के सामने एक फांसी के तख़्ते पर लटके देखे और 9 दूसरे पर’।

ओमैनी को यह देखकर बहुत बुरा लगा कि जिस तरह क्रांति के जमाने के पेरिस में बहुत से लोग फांसी का तमाशा देखने जमा होते थे, वैसे ही चौक ‘अफसरों और यूरोपियनों’ से भरा था। उसने रात को अपनी डायरी में लिखा, ‘ज़िंदगी कितनी क्षणभंगुर लगती है जब हम देखते हैं कि आदमी इससे कितने जल्दी जुदा हो जाता हैः पल भर में जीवित शरीर आत्मा से अलग हो जाता है, जो अपने रचयिता के पास चली जाती है, लेकिन इस मजमे को देखकर लगता है कि इन्हें इस बात की कितनी कम समझ या अहसास है कि उनकी आंखों के सामने कितनी बड़ी और भयावह तब्दीली हो रही है’।” उसने यह भी कहा कि ‘तख़्ते की ज़मीन से दूरी बहुत कम है क्योंकि प्रोवोस्ट सार्जेंट का कहना था कि रस्सी लंबी दूरी बर्दाश्त नहीं कर पाएगी’-जिसका मतलब था कि इस तरह मुजरिम की मौत गला घुटने से आहिस्ता-आहिस्ता और ज्यादा तकलीफ से होगी। लंबी दूरी के मुकाबले जिससे इंसान की गर्दन एकदम टूट जाती है और फौरन मौत हो जाती है। और देखने वालों को तो इसकी खुशी थी कि छोटी रस्सी जानबूझकर रखी गई है ताकि पीड़ित की मौत आहिस्ता-आहिस्ता हो। कुछ लोगों का तो यह भी कहना था कि सूली देने वालों को ब्रिटिश सिपाहियों से (जो इर्द-गिर्द खड़े सिगार फूंक रहे थे) रिश्वत मिली है ताकि उनके शिकार की “मौत में देर लगे… क्योंकि उन्हें उन मुजरिमों का ‘पांडी हॉर्नपाइप’ देखना बहुत अच्छा लगता था, जो उन्होंने उन बेचारे मुसीबतजदों की मौत की कशमकश को नाम दिया था”। एक जल्लाद ने ‘अपना इस्तीफा देने के बारे में सोचने से पहले 400 या 500 कमीनों’ को फांसी पर चढ़ाया था। कुछ जल्लाद तो अपने शिकारों को लटकाने से पहले तरह-तरह के ‘कलात्मक’ तजुर्बे भी करते थे, जैसे उन्हें ‘आठ के अंक’ के रूप में मारना।

इस तरह की हरकतों की रिपोर्ट से कलकत्ता के लॉर्ड केनिंग को परेशानी शुरू हो गई। 25 सितंबर को उसने मलिका विक्टोरिया को लिखा किः

“बहुत से अंग्रेजों के दिल में हर वर्ग के हिंदुस्तानियों के खिलाफ बहुत हिंसापूर्ण नफरत भरी है। उन पर एक जुनूनी इंतकाम की भावना सवार है। उन लोगों के दिलों में भी जिन्हें दूसरों के लिए बेहतर मिसाल कायम करना चाहिए। यह सब देखकर अपनी कौम के लोगों पर शर्म न आना नामुमकिन है। दस लोगों में से एक भी यह नहीं सोचता कि 40 या 50,000 क्रांतिकारियों  और उनके अलावा दूसरे लोगों को भी फांसी या बंदूक से मार देना जायज के अलावा भी कुछ हो सकता है…”

दिल्ली में हर कैदी को फांसी पर नहीं चढ़ाया गया। कुछ को गोली मारी गई। ह्यू चेचिस्टर ने लिखा है कि ‘पिछले तीन दिन से सिवाय उन बदमाशों को गोली मारने के और कुछ भी नहीं हुआ है। कल ही तीन सौ या चार सौ लोगों को गोली से उड़ाया गया।’ उसका यह भी कहना था कि कुछ नौजवान लड़कों को शहर के दरवाज़ों से बाहर जाने दिया जाता था मगर ‘ज़्यादातर को मार डाला जाता था’ ।

मेजर विलियम आयरलैंड के मुताबिक, ‘पकड़े गए अपराधियों को मुकद्दमे के लिए मिलिट्री कमीशन के हवाले कर दिया जाता था। यह काम बहुत फुर्ती से किया जाता। मौत लगभग एकमात्र सजा थी और हर मुकद्दमे का मुद्दा बस मृत्युदंड था। जिन लोगों को फैसला सुनाना था, वह बिल्कुल नर्मी के मूड में नहीं थे।” इस कल्ले-आम की वजह सिर्फ खून की प्यास या इंतकाम का जज़्बा नहीं थी, बल्कि इससे लोग पैसा भी कमा रहे थे। मुखबिरों को हर गिरफ्तारी पर दो रुपए मिलते थे, जबकि गिरफ्तार करने वाले को ‘क्रांतिकारियों  के पास से मिला सारा माल और सोना रखने की इजाजत थी’।”

जॉर्ज वैगनट्राइबर अपने दिल्ली गजट एक्स्ट्रा में इसकी खूब तारीफ कर रहा था। वह दिल्ली फतह होने के बाद लाहौर से वापस आ गया था ताकि इस इंतकामी कार्रवाई को अच्छी तरह कवर कर सके, जिसकी उसको बड़ी मुद्दत से इच्छा थी। अपने वापस आने के फौरन बाद वह लिखता है:

“मुझे बहुत खुशी है कि फांसी अब रोजाना का नियम बन गया है। छह या आठ बागी रोजाना आसपास के गांवों से पकड़े जाते हैं और हर सुबह फांसी पर चढ़ा दिए जाते हैं। दिल्ली के पुराने लोग शायद किसी घुड़सवार को पहचान सकें, जो हर इतवार को चांदनी चौक में करतब दिखाता था। लेकिन अब वह कितना बदल गया है। उसका चेहरा शायद पहचान लिया जाए लेकिन इतने दयनीय और उदास बदजात इस महलों के शहर में पहले कभी नहीं पाए गए।”

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