1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर की गिरफ्तारी, शहजादों के कत्ल और दरबार के समर्थकों को फांसी दिए जाने के बावजूद अंग्रेज सैनिकों का दिल नहीं भरा। नतीजन, बागियों के पूर्व कमांडर बख्त खां और उसके बागी साथियों की तलाश में एक टुकडी आगरा रवाना हुई। उस वक्त दिल्ली फील्ड फोर्स के सिर्फ 2,600 लोग ही बाकी बचे थे जो आगरा–और फिर 1857 के गदर की आखरी जबरदस्त लड़ाई के लिए लखनऊ में घेराबंदी में फंसे ब्रिटिश रेजिडेंसी के लोगों की मदद के लिए भेजे जा सकते थे। उनके लिए पहली बड़ी परीक्षा उजड़े हुए सुनसान शहर को पार करना था।

रिचर्ड बार्टर लिखता हैं: “सिपाहियों का मार्च बहुत ही भयानक था। हमारे आगे घुड़सवारों और तोपचियों का दस्ता था। उन्होंने चांदनी चौक में पड़ी सड़ती और फूली लाशों को कुचल डाला था। उनकी बदबू असहनीय थी। चारों तरफ अफसरों और सिपाहियों का बुरा हाल था।

मुझे लगता था कि हम कभी शहर से बाहर नहीं निकल पाएंगे। यह एक ऐसा सफर था, जो खुदा मुझे फिर कभी न दिखाए। शायद घोड़ों को भी वैसा ही महसूस हो रहा था जैसा हमें। उन घृणित लोगों के ऊपर से गुजरते हुऐ वह भी हिनहिना रहे थे और कांप रहे थे।

फ्रेंड रॉबर्ट भी इसी तरह दहशतजदा था। वह लिखता हैः

“दिल्ली से सुबह-सुबह गुजरना बड़ा भयानक था। चांदनी चौक से लाहौरी दरवाजे तक कोई आवाज सुनाई नहीं देती थी, सिवाय हमारे कदमों के। कोई जिंदा प्राणी नजर नहीं आता था। हर तरफ लाशें बिखरी थीं, सब उसी हालत में जिस तरह मौत की कशमकश ने उनको छोड़ा था। वह सड़ने और गलने की विभिन्न स्थितियों में थीं। कई जगह मुर्दों की हालत बिल्कुल ऐसी थी जैसे वह जिंदा हों। कुछ के हाथ ऊपर उठे थे जैसे किसी को बुला रहे हों।

पूरा दृश्य अजीबो-गरीब और डरावना था। हालांकि यह सब सिपाही वापस लड़ाई पर जा रहे थे और उनमें से कई लखनऊ में होने वाली घमासान लड़ाइयों में अपनी जान से हाथ धोने वाले थे, लेकिन फिर भी उनमें से बहुत कम लोग ऐसे थे जिन्हें लूटमार के इंचार्जों या उन चंद सिपाहियों पर रश्क हो, जो मुर्दों के शहर की इस सड़ांध में यहीं रुके हुए थे।

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