हाइलाइट्स

  • दिल्ली गजट में प्रकाशित हुए थे इनके विचार
  • 10 मई को मेरठ में बगावत के बाद भारतीय सिपाही मार्च करते हुए 11 मई 1857 को दिल्ली पहुंचे
  • 12 मई को अपदस्थ बहादुर शाह जफर भारत के बादशाह बन गए
  • 16 मई को लाल किले पर सम्राट का नीला झंडा फहराने लगा।

25 अगस्त 1857 को आजमगढ़ के इश्तेहार एवं बाद में 29 सितंबर को दिल्ली गजट में अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर (bahadur shah zafar) के विचार प्रकाशित हुए थे। जिसमें उन्होने कहा था कि- यह सब को विदित है कि इस युग में हिंदुस्तान के लोग चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान, सभी विधर्मी और विश्वास घातक अंग्रेजों के जुल्म से बर्बाद हो रहे हैं। यह उनके विचारों का ही प्रभाव था कि प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम यानी 1857 की क्रांति (revolt of 1857) में हिंदू-मुसलमानों ने कंधे से कंधा मिला अंग्रेजों से ना सिर्फ लोहा लिया बल्कि दिल्ली में कई मोर्चो पर अंग्रेजी सेना को करारी शिकस्त दी। स्वतंत्रता संग्राम में अबू जाफर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह द्वितीय यानी बहादुरशाह जफर के योगदानों को स्मरण करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (pm narendra modi) यंगून स्थित उनके मजार पर भी एक बार गए थेे। दिल्ली सरकार भी इन पर चले ट्रायल संबंधी दस्तावेजों को डिजिटल करेगी। Bahadur Shah Zafar Autobiography पढ़कर उनके बारे में पता चलता है।

क्रांतिकारियों ने किया नेतृत्व का आग्रह

10 मई दिन रविवार को मेरठ में बगावत के बाद भारतीय सिपाही मार्च करते हुए 11 मई 1857 को दिल्ली पहुंचे और बहादुर शाह जफर से क्रांति का नेतृत्व करने का आग्रह किया। जिस पर उन्होंने कहा, मेरे पास खजाना भी नहीं है कि मैं तुम्हें तनख्वाह दे सकूं। न फौज है कि तुम्हारी मदद कर सकूं, सल्तनत भी नहीं है कि तुम लोगों को अमलदारी में रख सकूं। जिस पर सिपाहियों ने कहा कि हमें यह सब नहीं चाहिए, हम आपके पाक कदमों पर अपनी जान कुर्बान करने आए हैं। आप बस हमारे सर पर अपना हाथ रख दीजिए। उन्होंने सहमति जताई तो सिपाहियों ने लाल किले में 21 तोपों की सलामी देकर स्वतंत्रता आंदोलन का श्रीगणेश किया। पहले शाही महल के पास अंग्रेजी शस्त्रागार एवं फिर तिमारपुर, मटकाफ हाउस के मॉल को लूट लिया गया। 12 मई को अपदस्थ बहादुर शाह जफर भारत के बादशाह बन गए और 16 मई को लाल किले पर सम्राट का नीला झंडा फहराने लगा।

चार महीने लगातार संघर्ष

बगावत के शुरूआती कुछ हफ्तों दिल्ली के निजाम का खात्मा अंग्रेजों की पहली प्राथमिकता थी। इसके लिए पंजाब के कमिश्नर जॉन लॉरेंस ने दिल्ली फील्ड फोर्सेज नाम की एक इकाई का गठन किया। जो मई के अंत में दिल्ली की उत्तरी सीमा तक पहुंची। 8 जून को अंग्रेजों एवं सिपाही के बीच दिल्ली करनाल रोड स्थित अलीपुर गांव के पास बादली की सराय में आमने सामने हुए, जिसमें क्रांतिकारियों की शिकस्त हुई। अंग्रेजों ने उत्तरी रिज (यह दिल्ली विश्र्वविद्यालय के मुख्य परिसर के ठीक सामने वाला क्षेत्र है) पर कब्जा कर लिया। अगले दिन सिपाहियों ने रिज पर एक नाकाम हमला किया। क्रांतिकारियों का ध्यान यमुना और रिज के बीच की पट्टी से हट गया। अंग्रेजों ने इसका फायदा उठाते हुए थामस मटकॉफ हाउस पर कब्जा कर लिया। अंग्रेज अधिकारी अब और अधिक सैन्य सहायता आने के बाद ही हमला करने के पक्ष में थे। अंग्रेजों ने पूरी तैयारी के बाद सितंबर महीने में दिल्ली को चारो तरफ से घेर लिया। 14 सितंबर को किले पर कब्जे के लिए धावा बोल दिया। शुरूआती हमले का मकसद कश्मीरी गेट के रास्ते दिल्ली में प्रवेश करना था। लेकिन अंग्रेजों को कड़े प्रतिकार का सामना करना पड़ा। इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि कश्मीरी गेट से लाल किले की दूरी तय करने में अंग्रेजों को एक हफ्ते से ज्यादा समय लगा। 20 सितंबर को अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। ऐसा कहा जाता है कि अपने ही समधी के विश्वासघात के कारण हुमायूं के मकबरे से बहादुर शाह जफर, बेगम जीनत महल, शहजादे जवां बख्त समेत अन्य को गिरफ्तार कर लिया गया। कैप्टन हडसन ने तीन शहजादों की दिल्ली गेट के पास हत्या कर दी। विलियम डेलरिंपल अपनी पुस्तक द लॉस्ट मुगल में लिखते हैं कि दिल्ली पर कब्जे के बाद भी इमारतों, स्कूलों, बाजारों, कालेज, स्मारकों को तहस नहस कर दिया गया। बादशाह के अधिकतर बेटों को मार दिया गया।

बादशाह पर ट्रायल

विलियम लिखते हैं कि जनवरी 1858 के आखिरी सप्ताह तक कई दरबारियों को ट्रायल के बाद फांसी दे दी गई थी। अब बहादुर शाह जफर पर ट्रायल की बारी थी, जिसकी तैयारी मेजर हैरियट ने 1857 में सदी से ही शुरू कर दी थी। इतिहासकार कहते हैं कि मुकदमा चलाने वाले ब्रिटिश अफसर यह जानते थे कि वे कितने भी झूठे साक्ष्य और गवाह पेश करे, वे यह सिद्ध नह़ीं कर पाएंगे कि एक 82 साल के बुजुर्ग 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ गदर के लिए दोषी थे। 27 जनवरी 1858 को उन्हें दिल्ली के लाल किले के दीवाने खास में ट्रायल के लिए पेश किया गया। बहादुर शाह हाथ में छड़ी लिए दीवाने खास में आए। शहजादा जवां बख्त और जफर के वकील गुलाम अब्बास उन्हें सहारा दे रहे थे। मुकदमा शुरू होते ही जजों ने जवां बख्त को बाहर भिजवा दिया। जफर तभी जुबान खोलते थे, जब उनसे पूछा जाता, ‘तुम कसूरवार हो या बेकसूर।’ वे कहते ‘बेकसूर’, यह जानते हुए भी कि अंग्रेजों ने उनके लिए जो सजा तय कर रखी है, वह उन्हें मिलेगी ही। जफर के खिलाफ चार अभियोग लगाए गए थे-

-ब्रिटिश सरकार से पेंशन पाते हुए उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय अधिकारियों और सिपाहियों को सरकार के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया।

-उन्होंने अपने बेटे मिर्जा मुगल को राजद्रोह के लिए प्रेरित किया।

-भारत में ब्रिटिश सरकार की प्रजा होते हुए भी उन्होंने देश की सरकार के साथ गद्दारी कर खुद को मुल्क का बादशाह घोषित किया।

-उन्होंने 16 मई 1857 को महल में 49 यूरोपीय लोगों की हत्या करवाई।

पर्चियां बनी सबूत

इतिहासकारों की मानें तो सबूत के तौर पर बादशाह से सैनिकों को निर्देश दिए जाने में प्रयुक्त पर्चियां भी शामिल की गई। इन पर्चियों पर सामान्य दिशा निर्देशों का भी गूढ़ मतलब निकाला गया। शाही दरबार से उन शाही हुक्मों की प्रतिलिपियां प्रस्तुत की गई, जो 11 मई से लेकर 20 सितम्बर 1857 तक जारी की गई थी। सरकारी गवाह अहसानुल्लाह ने बहादुरशाह के दस्तख्तों की पहचान की। 4 मार्च 1858 को बहादुर शाह ने अपने बेकसूर होने का बयान उर्दू में दिया। इसके बाद, सरकारी वकील हैरियट ने अपना बयान दिया जो 9 मार्च तक हुआ। इसी दिन सुबह 11 बजे अपना बयान खत्म किया। हैरियट ने कहा-आरंभ से ही षडयंत्र सिपाहियों तक सीमित नहीं था और न उनसे वह वह शुरू ही हुआ था। बल्कि इसकी शाखाएं राजमहल और शहर में फैली हुई थी। हैरियट के बयान के बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए बहादुर शाह जफर को उन चारों अभियोगों में दोषी पाए। अदालत ने उन्हें देश से निर्वासन की सजा सुनाई। 7 अक्टूबर 1858 को जफर को जीनत महल और जवां बख्त के साथ रंगून-बर्मा अब यंगून म्यांमार के लिए रवाना कर दिया गया। 8 दिसंबर 1858 को वे रंगून पहुंचे और वहीं 7 नवंबर, 1862 को उनकी मृत्यु हुई। जफर के आखिरी दिनों की पीड़ा इस शेर से झलकती है–

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में

किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें

इतनी जगह कहां है दिल-ए-दागदार में

उम्र-ए-दराज मांग कर लाये थे चार दिन

दो आरजू में कट गये दो इन्तजार में

कितना है बदनसीब जफर दफन के लिये

दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में

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