पृथ्वीराज चौहान के बारे में भी विस्तार से पढ़िए

कुतुब मीनार को लेकर काफी विवाद उपजा। कईयों की राय में इसे हिंदू राजाओं ने बनवाया? तो वहीं कई ऐसे भी इतिहासकार हैं जिनका मानना है कि यह मीनार न तो पृथ्वीराज ने बनाई और न ही कुतुबुद्दीन ने, बल्कि इसे भी किसी और ने ही बनाया है। उनका कहना है कि पृथ्वीराज ने बनाया होता तो उसका चंदवरदाई ने जरूर जिक्र किया होता। यह मीनार उनकी राय में एक वेधशाला थी, जैसा कि जंतर-मंतर बना है और इससे सितारों की चाल को देखा जाता था। इसे तालाब में इसीलिए बनाया गया था, ताकि ज्योतिषी लोगों को आसमान का नक्श पानी में देखने से सहूलियत रहे। यह वेधशाला थी, इसके वह कई प्रमाण देते हैं :

(1) इसका द्वार ठीक उत्तर में है और घुवतारा रात को ऐन सामने दिखाई देता है। महरौली नाम मिहिर पर से पड़ा है, जिसका संस्कृत अर्थ है सूर्य । संभव है कि वराहमिहिर, जो भारत का विख्यात ज्योतिषी हुआ है, ने ही इसे बनवाया हो। इसको कुतुब भी इसीलिए कहते हैं क्योंकि कुतुबनुमा ध्रुवतारा ही होता है।

(2) इस मीनार पर जो लाल पत्थर लगे हैं, केवल इसकी सुंदरता के लिए हैं, अंदर से यह लाट मसाले और पत्थर की बनी हुई है। पत्थरों को आपस में बांधने के लिए जो लोहे के हुक लगाए हुए हैं, वे ऐसे लोहे के हैं जो आज तक फूला नहीं है। मगर मुसलमानों ने अपनी इमारतों में लोहे के जो हुक लगाए हैं, वे फूल गए हैं और उन्होंने पत्थरों के कोनों को तोड़ डाला है।

(3) मुसलमानों ने अपनी जितनी इमारतें बनाई हैं, वे काबे की तरफ मुख किए हुए हैं और मीनार के तथा उनके बीच में कई डिग्री का अंतर है। इस मीनार में पांच डिग्री का ढलान दिया गया है। यह सौ गज लंबी थी, चौरासी गज जमीन के बाहर तथा सोलह गज पानी में और जमीन के नीचे। जहां से जीना चढ़ना शुरू होता है, उसकी दहलीज के नीचे भी जीना गया हुआ था, लेकिन वह मिट्टी में दब गया। इस मीनार पर सूरज की जो किरणें पड़ती हैं, वे भिन्न-भिन्न शक्ल की खास खास जगह साया डालती हैं, जिनसे यदि अच्छी तरह खोज की जाए तो दिन के घंटों का और महिनों का हिसाब निकल सकता है।

चुनांचे वृद्ध शिक्षक ने देखा कि 21 जून को दोपहर के बारह बजे इस लाट का साया मीनार के अंदर ही पड़ता है, कहीं बाहर नहीं पड़ता। इससे साफ जाहिर है कि मीनार में कोई ऐसा ढंग जरूर है, जो ज्योतिष संबंधी हिसाब को बताता है। जिन 27 मंदिरों का जिक्र आता है कि मुसलमानों ने उन्हें ढहा दिया, शिक्षक महोदय की राय में वे उन 27 नक्षत्रों के मंदिर थे, जिन पर धूप पड़ने से तिथि का पता लग जाता था, वरना 27 की संख्या में मंदिर बनाने का और क्या हेतु हो सकता था शिक्षक कोई ज्योतिषी नहीं हैं, न कोई बहुत बड़े हिसावदा, मगर यह इस खोज के पीछे पागल बने रहते हैं।

उन्होंने यह भी बताया कि जिस स्थान पर मीनार बनाई गई है, उसको भी सोच-समझकर चुना गया है क्योंकि इसके पूर्व और पश्चिम में ऊंचाई की पहाड़ियां थीं, जिन पर निशान लगे हुए थे और उनका साया वहां से नापा जाता था। वह अपनी धुन के इतने पक्के हैं कि उन्होंने तो लोहे की कीली पर लिखे लेख का अर्थ भी इस मीनार के संबंध में ही कर डाला और बताया कि उसमें सूर्य की चाल का उल्लेख है।

उनका कहना है कि कोली पर संवत पड़ा हुआ ही नहीं है और इस स्तंभ का निर्माता महाराज मधवा को बताते हैं, जो युधिष्ठिर का वंशज था और जिसने 895 ई. से पूर्व राज्य किया था। क्या ही अच्छा हो, यदि ज्योतिष ज्ञाता और हिसाबदो तथा पुरातत्ववेत्ता दोनों स्थानों की जांच इस दृष्टि से भी कर देखें। शायद कोई नया ही प्रकाश पुराने इतिहास पर पड़ जाए।

कतिपय पुष्टि बिहार के प्रमुख इतिहासकार डा. देव सहाय त्रिवेद के कथन से होती है, जो उन्होंने कुतुब मीनार के संबंध में किया है। उनका कहना है कि यह मीनार उस समय की बनी हुई है, जब भारत में मुसलमानों का शासन नहीं था। डा. त्रिवेद के अनुसार, प्राचीन काल में इसका नाम विष्णु ध्वज था और गुप्तवंश के शासक समुद्रगुप्त ने ईसा से 280 वर्ष पहले इसे बनाया था। वहां जो लौह स्तंभ उसका निर्माण समुद्रगुप्त के बेटे चंद्रगुप्त द्वितीय ने ईसा से 268 वर्ष पहले किया। इस मीनार में 27 खिड़कियां हैं, जो हिंदू ज्योतिष शास्त्र के अनुसार 27 नक्षत्रों की प्रतीक हैं।

डा. त्रिवेद ने बताया कि इतिहास के अनुसार इस मीनार को गुलाम बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया और इसको अधूरा छोड़कर ही वह मर गया, उसके बाद अल्तमश ने इसको पूरा किया; पर यह बात ठीक नहीं जंचती क्योंकि मुसलमानों ने अपने शासन से पहले कभी ऐसी इमारत नहीं बनाई। उन्होंने कहा कि 1857 ई. से पहले अंग्रेज लोग भी इसे ‘हिंदू मीनार’ के नाम से पुकारते थे। कुछ विद्वानों का कथन है कि इसे पृथ्वीराज चौहान ने बनाया, पर यह भी सही नहीं जंचता, क्योंकि पृथ्वीराज रासो में इसका कोई उल्लेख नहीं है।

सर सैयद अहमद लोहे के स्तंभ को चौथी सदी से भी पहले का बताते हैं। उनका कहना है कि इस पर संवत पड़ा हुआ नहीं है और इस स्तंभ का निर्माता वह महाराज मधवा को बताते हैं, जो युधिष्ठिर का वंशज था और जिसने 895 ई. से पूर्व राज्य किया था। इस लाट पर जो दूसरी बातें खुदी हुई हैं, वे इस प्रकार हैं-

1. अनंगपाल द्वितीय के ‘संवत दिहाली 1109 अनंगपाल बही’ अर्थात संवत 1109 (1052 ई.) में अनंगपाल ने दिल्ली बसाई।

2. दो लेख चौहान राजा चतुरसिंह के हैं, जो रायपिथौरा का वंशज था, ये दोनों संवत 1883 (1826 ई.) के हैं। खुद रायपिथौरा का काल संवत 1151 (1094 ई.) दिया गया है।

3. अब हाल का एक लेख छह लाइन का नागरी भाषा में संवत 1767 (1710 ई.) का है, जो बुंदेल राजा चंदेरी का है। इसके नीचे दो लेख फारसी के हैं, जो 1651-52 ई. के हैं। इनमें केवल दर्शकों के नाम दिए हुए हैं।

अनंगपाल के वंशजों ने 19 या 20 पीढ़ी तक दिल्ली की राजधानी में रहकर राज्य किया बताते हैं। अनंगपाल नाम के कई राजा हुए हैं। तोमर वंश का अंतिम राजा अनंगपाल तृतीय था। इसके कोई लड़का नहीं था, दो कन्याएं थीं। बड़ी कन्नौज के राजा विजयचंद्र को ब्याही थी, जिसका लड़का जयचंद्र कन्नौज के सिंहासन पर बैठा था। इसी जयचंद्र ने मुसलमान आक्रमण करने वालों से मिलकर देशद्रोह किया बताते हैं। छोटी बेटी रुकाबाई अजमेर के राजा विग्रहराज के छोटे भाई सोमेश्वर को ब्याही थी। पृथ्वीराज चौहान इसी का पुत्र था। जयचंद्र को यह आशा थी कि अनंगपाल अपनी बड़ी कन्या के पुत्र को गोद लेगा और इस प्रकार दिल्ली की गद्दी भी उसे मिलेगी, मगर उसकी आशा पूर्ण न हो सकी। राज्य मिला पृथ्वीराज को। यह एक कारण था पृथ्वीराज से उसकी ईर्ष्या का।

पता चलता है कि अजमेर के चौहानवंशी विग्रहराज के पिता विशालदेव ने 1151 ई. में दिल्ली पर चढ़ाई की और अनंगपाल उस युद्ध में पराजित हो गया। कोटला फीरोज शाह में जो अशोक स्तंभ लगा है, उस पर विशालदेव का नाम ख़ुदा है और उसका विक्रम संवत 1220 (1163 ई.) बताते हुए लिखा है कि उसका राज्य उत्तर में हिमालय पर्वत तक और दक्षिण में विंध्य पर्वत तक नर्मदा नदी की सीमा तक फैला हुआ था।

अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था। उसने अपने नाती पृथ्वीराज को गोद लेकर दिल्ली का राज्य उसे सौंप दिया।

पृथ्वीराज चौहान हिंदुओं का अंतिम राजा हुआ है। उसे रायपिथौरा भी कहते थे। यह विशालदेव का पोता और सोमेश्वर का लड़का था जिसको अनंगपाल तृतीय की लड़की ब्याही थी। इसने 1170 से 1193 ई. तक राज्य किया। यह कनिंघम का कहना है, मगर सर सैयद इसका समय 1141 से 1193 ई. बताते हैं। इसके नाम से अनेक कविताएं आज भी गाई जाती हैं। आल्हा ऊदल की लड़ाई का किस्सा आज भी इधर के देहातों में प्रसिद्ध है, जिसे सुनने के लिए हजारों की संख्या में लोग जमा हो जाते हैं। उसने पुराने किले लालकोट को 1180 ई. में और बढ़ाया। यह कनिंघम का कहना है।

सर सैयद उसका साल 1143 ई. बताते हैं। यह पांच मील के घेरे में फैला हुआ था। इसको रायपिथौरा का किला कहते थे। इसके खंडहरात दिल्ली से 11 मील दूर कुतुब और महरौली के इर्द-गिर्द मीलों में फैले हुए दिखाई देते हैं। महान कवि चंदवरदाई ने इसके नाम से पृथ्वीराज रासो की रचना करके इस राजा के गुणों का बखान किया है। इसने जयचंद्र की लड़की संयुक्ता से जयचंद्र की इच्छा के विरुद्ध स्वयंवर में विवाह किया था। इस कारण जयचंद्र की ईर्ष्या और भी प्रज्वलित हो उठी थी। यहां से ही हिंदुओं का पतन काल शुरू हुआ और मुसलमानों का अभ्युदय काल । जयचंद्र ने, जो पृथ्वीराज से ईर्ष्या करता था, कहा जाता है, लाहौर के तत्कालीन मुसलमान सूबेदार शहाबुद्दीन गोरी को दिल्ली पर चढ़ाई करने के लिए उकसाया। मुसलमान लोग ऐसा सुअवसर ढूंढ ही रहे थे। मौका पाकर उन्होंने 1191 ई. में दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। मगर ताराबड़ी के मैदान में, जिसे तारायन कहते थे और जो करनाल और थानेश्वर के बीच में घग्गर नदी के किनारे स्थित है, थानेश्वर से 14 मील दूर पृथ्वीराज ने उसे भारी पराजय दी। हार खाकर शहाबुद्दीन सिंधु नदी के पार चला गया। हिंदू इतिहासज्ञों के अनुसार शहाबुद्दीन कई बार परास्त हुआ और एक बार पकड़ा भी गया, मगर भारतीय संस्कृति ऐसी रही है कि शत्रु को पकड़ कर मारते न थे, इसलिए उसे छोड़ दिया गया।

मगर दो वर्ष पश्चात 1193 ई. में जब शहाबुद्दीन को यह पता चला कि राजा भोग-विलास में मग्न है, तो उसने पहले से भी अधिक सेना लेकर एक बार फिर धावा किया और इस बार राजपूतों को धोखा दिया गया। पानीपत के उसी ताराबड़ी के मैदान में एक बार फिर घोर युद्ध हुआ। राजपूत इस बार भली प्रकार तैयार न थे। उनकी पराजय हुई और पृथ्वीराज लड़ाई के मैदान में मारे गए। उनके बहनोई समरसिंह ने भी, जो मेवाड़ से उनकी सहायता के लिए आए थे, वीरगति प्राप्त की। महारानी संयुक्ता ने अपना शरीर अग्नि को समर्पण करके पति का अनुगमन किया।

इस प्रकार आपसी फूट के कारण वीर राजपूत जाति का मुसलमानों के आगे पतन हुआ और दिल्ली के ऊपर मुसलमान शासकों की पताका फहराने लगी। यही मुसलमानों की भारत विजय का सूत्रपात था। महाराज पृथ्वीराज के साथ देश की स्वाधीनता का सूर्य साढ़े सात सौ वर्ष के लिए अस्त हो गया, जो देश के स्वतंत्र होने पर 1947 ई. से फिर से एक बार अपने पूरे वैभव के साथ चमक उठा और दिनोंदिन जिसका प्रकाश देश-देशांतर में फैलता चला जा रहा है।

1193 ई. में पृथ्वीराज की पराजय के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक पहला मुसलमान बादशाह था जिसने दिल्ली को राजधानी बनाया। शुरू-शुरू में तो रायपिथौरा का किला ही मुसलमान बादशाहों की राजगद्दी का केंद्र और राजधानी रहा। आगे चलकर जलालुद्दीन खिलजी ने किलोखड़ी मुकाम को, जो वहां से पांच-छह मील था, राजधानी बना लिया। तभी से रायपिथौरा का शहर पुरानी दिल्ली कहलाने लगा और खिलजी का शहर नई दिल्ली मशहूर हुआ।

इब्नबतूता ने भी पृथ्वीराज की दिल्ली को पुरानी दिल्ली लिखा है। रायपिथौरा की पांच मील घेर की दिल्ली बड़ी-बड़ी मशहूर इमारतों से भरी पड़ी है। लोहे की लाट इसी घेरे में है। इसी में हिंदुओं के बनाए बीसियों मंदिर थे, जिनको मुसलमानों ने तोड़कर जमीन में मिला दिया। यहां ही कुतुबुद्दीन ऐबक ने कम्रे सफेद नामक जगत-विख्यात वह महल बनवाया, जिसमें छह-सात बादशाहों की एक के बाद एक गद्दीनशीनी हुई। इसी घेरे में कुतुब की लाट है। जमीन के इस छोटे से टुकड़े पर कितने ही राज्य स्थापित हुए और लुप्त हो गए। किसी राजा का अभ्युदय हुआ तो किसी का पतन। किसी को खिलअत मिली, किसी की गरदन उड़ाई गई।

किसी के यहां खुशी के शादियाने बजते थे, किसी के यहां मातम छा जाता था। कोई बन गया तो कोई बिगड़ गया। कोई अंबारी में चढ़ा, कोई हाथी के पांवों तले कुचला गया। किसी ने जश्न मनाया तो कोई कैद में सड़-सड़कर मर गया। लाखों के सिर धड़ से जुदा हुए। खून के नदी-नाले वह गए। गर्ज कि कत्लेआम, लूटमार, आग और कहर का नजारा न जाने कितनी बार दिल्ली के इस छोटे-से टुकड़े ने देखा। यह क्षण-भर में स्वर्ग बन जाती थी, दूसरे ही क्षण यहां नरक का दृश्य दिखाई देने लगता था। जिसको आज राजमुकुट पहनाया, उसी को कल खाक में मिलाकर छोड़ा। यह थी इस दिल्ली की धरती की माया, जिसका कुछ थोड़ा-सा विवरण मुस्लिम काल के 750 वर्ष के इतिहास में देखने को मिलेगा।

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