मिर्जा गालिब और गांधी में है ये समानता
1857 की क्रांति: मिर्जा गालिब और महात्मा गांधी…. अगर आपसे कहा जाए कि दोनों में एक समानता है तो पहली नजर में शायद आपको भी कोई समानता ना मिले। लेकिन ध्यान देंगे तो पता चलेगा कि 1869 में जब दिल्ली में मिर्जा गालिब की मृत्यु हुई, उसी साल गुजरात के पोरबंदर में मोहन दास करमचंद गांधी का जन्म हुआ। जफर या लार्ड कैनिंग के नहीं, बल्कि गांधी के नेतृत्व में हुए राजनीतिक आंदोलनों में ही हिंदुस्तान का भविष्य निहित था।
ज़फर की मृत्यु के बाद उनका बचा-खुचा मुगल शाही खानदान जल्द ही बिखर गया। जैसा कि कलकत्ता भेजी अपनी अगली रिपोर्ट में कैप्टन डेविस ने लिखा था कि अब यह मुगल खानदान भी उस तहजीब की तरह है जिसके यह प्रतिनिधि थेः
“एक बंटा हुआ खानदान… बेगम जीनत महल अपने आप में एक पक्ष हैं और हाल तक भी उनकी अपने बेटे और बहू से बहुत लड़ाई रहती थी… जवांबख्त और उसकी बीवी दूसरा पक्ष हैं और शाह अब्बास, उसकी मां और नानी एक तीसरा पक्ष हैं। यह तीनों टोलियां अपनी रिहाइश अलग-अलग रखती हैं और अपना खाना अलग पकाती और खाती हैं और आपस में बिल्कुल बातचीत नहीं करतीं।
जैसे-जैसे साल गुजरते गए, हालात बदतर ही होते गए। 1867 में परिवार को अपना कैदखाना छोड़कर रंगून की छावनी में कहीं भी रहने की इजाजत मिल गई। लेकिन उनको इतना कम भत्ता मिलता था कि जफर की मृत्यु के आठ साल बाद, 1870 में, जिस घर में जवांबख्त अपनी मां और नवाब शाह जमानी के साथ रह रहा था, उसे ‘दयनीय… एक मामूली सा झोंपड़ा और बहुत भीड़ भरा’ कहा गया।
दस साल की उम्र में कमसिन शाह जमानी बेगम को हाथी पर सवार होकर शान से मुगलिया दिल्ली की सड़कों से गुज़ारकर जवांबख़्त से शादी करने के लिए ले जाया गया था। अब अपनी जिंदगी में इस तरह आमूलचूल बदलाव आने से निराश होकर वह ‘बहुत बीमार हो गई… और घोर अवसाद में डूब गईं, और जब वह अपनी आंखों की रोशनी खोने लगीं, तो उनकी देखभाल के लिए नियुक्त ब्रिटिश अफसर चिंतित हो गए।
जवांबख्त और उसकी बीवी को एक अलग घर दे दिया गया, जो रंगून जेल से ज़्यादा दूर नहीं था। उम्मीद थी कि इससे हालात कुछ बेहतर हो जाएंगे। लेकिन गरीबी के बावजूद जवांबख़्त शराब पर अपनी गुंजाइश से ज़्यादा पैसे खर्च करता था, और एक सरकारी अफसर ने कलकत्ता रिपोर्ट भेजी कि उसकी पेंशन “उसके परिवार के जरूरी खर्च पूरे करने के लिए भी बहुत कम है।” “इसलिए जब भी जवांबख्त कुछ ज़्यादा खर्चा कर देता है या थोड़ी सी भी विलासिता भरी फिजूलखर्ची में पड़ जाता है, तो उसके बीवी-बच्चों को तकलीफ उठानी पड़ती है। शाह जमानी बेगम दिल्ली खानदान की इकलौती पूरी तरह बेगुनाह सदस्य हैं, मगर फिर भी सबसे ज़्यादा तकलीफ उन्हें ही उठानी पड़ रही है।
एक से ज़्यादा मौके पर इस अंधी महिला को अपने कपड़े या थोड़े से बचे-खुचे जेवर गिरवी तक रखने पड़े हैं ताकि वह अपना और अपने बच्चों का पेट भर सकें। जवांबख्त को अगर कुछ अफसोस होता भी है तो वह उसे शराब के नशे में गर्क कर देता है… मैं दखल भी नहीं दे सकता, क्योंकि अगर मैंने ऐसा किया तो वह अपनी पत्नी को धमकाएगा और उससे और भी बुरा सुलूक करेगा।”
1872 तक शाह जमानी बेगम “पूरी तरह अंधी और बेबस हो गईं… इस महिला का आचरण बहुत प्रशंसनीय है, और उनकी बदकिस्मती, जिसमें उनका कोई कुसूर न था, हद से ज़्यादा रही। हालांकि हाल में जवांबख़्त का बर्ताव कुछ बेहतर हुआ है, लेकिन शाह जमानी बेगम की उस पर पूरी निर्भरता कभी-कभी बहुत ज़्यादा और अक्सर बहुत मुश्किल होती होगी… वह बहुत ही दयनीय हो गई हैं।