1857 की क्रांति: दिल्ली पर कब्जे के बाद अक्टूबर और नवंबर महीने में अंग्रेज सिपाही हर जगह शाही खानदान के लोगों को ढूंढ़ते रहे। सबसे पहले बहादुर शाह जफर के छोटे बेटों, अठारह साल के मिर्जा बख्तावर शाह, और सत्रह साल के मिर्जा मियांदू को पकड़ा गया। जिन दोनों ने मेरठ के दस्ते और ‘एलेक्जेंडर पलटन’ का नेतृत्व किया था। उन पर फौरन मेजर हैरियट ने मुकद्दमा चलाया और उनको सजाए-मौत दी गई।
बहादुर शाह जफर का जेलर ओमैनी 12 अक्टूबर को अपनी डायरी में लिखता है कि “वाटरफील्ड यहां उन दोनों कैदियों को यह बताने आया कि उन्हें कल सजा-ए-मौत दी जाएगी। ऐसा लगा जैसे उन दोनों को कुछ फर्क ही नहीं पड़ा। उन्होंने बस अपनी औरतों और बच्चों से मिलना चाहा। मैं मिर्जा मियांडू की दो औरतों और एक बच्चे को उनके पति और बाप से कुछ मिनटों को मिलाने ले गया… (अगले दिन) उन्हें एक बैलगाड़ी में बाहर मैदान में एक तोपचियों के रस्ते के पीछे-पीछे ले जाया गया। जब वह किले के सामने रेत के मैदान में सजा-ए-मौत की जगह पहुंचे तो सिपाहियों ने कतार बांध ली। उन दोनों को गाड़ी से निकाला गया और उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी गई, और बारह राइफल वाले सिपाहियों को आदेश मिला कि यह बारह गज के फासले पर खड़े हो जाएं।
लेकिन फायरिंग दल के गोरखा सिपाहियों ने जानबूझकर राइफल नीचे करके गोली चलाई ताकि मौत आहिस्ता-आहिस्ता और तकलीफदेह हो, और आखिर में उनके इंचार्ज अफ्सर को दोनों को अपनी पिस्तौल से गोली मारकर खत्म करना पड़ा।
चार्ल्स ग्रिफिथ्स का कहना था कि ‘उन बदजातों से ज़्यादा गंदा और कमीना और कौन हो सकता था, लेकिन दोनों ने बहुत ख़ामोशी और शांत भाव से अपनी मौत का सामना किया।
1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर के बेटे को भीख मांगकर करना पडा गुजारा
मिर्जा गालिब ने लाल किला को क्यों कहा ‘किला-ए-नामुबारक’
बहादुर शाह जफर के अधिकतर बेटों और पोतों को अंग्रेजों ने फांसी दे दी। मेजर विलियम आयरलैंड का कहना था कि शाहजादों के पास ‘भागने के काफी मौके थे। लेकिन हैरत है कि उनमें से बहुत से आसपास के इलाकों में घूमते हुए पकड़े गए। (कुल मिलाकर) शाही खानदान के उन्तीस बेटे पकड़े और मार डाले गए। शाही खानदान के इतने लोगों का खात्मा हो गया कि गालिब ने महल का रिवायती नाम ‘किला-ए-मुबारक’ से बदलकर ‘किला-ए-नामुबारक’ रख दिया।
जफर के सिर्फ दो बेटे भागने में कामयाब रहे। जिस वक्त मिर्जा बख्तावर शाह और मिर्जा मियांदू पकड़े गए थे, उस समय दो और शाहजादे मिर्जा अब्दुल्लाह और मिर्जा क्वैश को भी गिरफ्तार किया गया था, जो बिल्कुल नाउम्मीद से हुमायूं के मकबरे में पनाह लिए हुए थे। उनको एक सिख पहरेदार की निगरानी में रख गया। उर्दू लेखक अर्श तैमूरी बीसवीं सदी के शुरू में दिल्ली की जबानी बयान की रिवायत के संदर्भ से लिखते हैं कि “उस सिख रिसालदार को उन दो कमउम्र लड़कों पर रहम आ गया। उसने उनसे पूछा ‘तुम यहां क्यों खड़े हो?’ उन्होंने कहा, ‘साहब ने हमसे यहीं खड़े रहने को कहा है’। उसने उनको घूरा और कहा, ‘अपनी जानों पर रहम खाओ, जब वह वापस आएगा तो तुम्हें मार डालेगा। फौरन जिधर भी भाग सको, भाग जाओ। होशियार रहना और सांस लेने को भी मत रुकना’। यह कहकर रिसालदार ने अपनी पीठ उनकी तरफ कर ली, और दोनों शाहजादे अलग-अलग दिशा में भाग गए। कुछ देर बाद होडसन वापस आया और उसने देखा कि कैदी भाग गए हैं। उसने रिसालदार से पूछा, ‘वह दोनों कहां हैं?’ ‘कौन?’
रिसालदार ने पूछा, जैसे उसे कुछ मालूम न हो। होडसन ने कहा, ‘वह दो शाहजादे जो यहां खड़े हुए थे। ‘मैं नहीं जानता। कौन शाहजादे ?’ उसने कहा।
“मिर्जा क्वैश सीधे निजामुद्दीन अपने बहनोई के पास गए और उनको बताया कि वह होडसन की कैद से भागकर आए हैं। उन्होंने कहा, ‘भाई, यहां से फौरन भाग जाओ।’ क्वैश ने अपना सिर मुंडवा दिया, एक लुंगी बांधी और फकीर का भेस बनाकर किसी तरह उदयपुर पहुंच गए। वहां उनको महाराजा का एक ख्वाजासरा मिला जो दिल्ली का ही था। उसने महाराजा से दर्खास्त की कि एक दरवेश यहां आया हुआ है। अगर आप उसकी कुछ तंख्वाह बांध दें तो वह यहीं रहेगा और आपकी सेहत और जानो-माल के लिए दुआ करेगा। महाराजा ने उसकी बात मान ली और उनकी दो रुपए रोजाना की तन्खाह बांध दी। गदर के बाद वह 32 साल ज़िंदा रहे और अपनी पूरी जिंदगी उन्होंने उदयपुर में गुज़ार दी, जहां वह मियां साहब के नाम से जाने जाते थे।
“होडसन ने मिर्ज़ा क्वैश की तलाश जारी रखी और हर कोने-खुदरे में उनको ढूंढ़ा मगर वह नहीं मिले। सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के लिए इश्तिहार तक निकाले और एक भारी इनाम का ऐलान किया। इस लालच में कुछ लोग उदयपुर तक पहुंच गए और वहां के कोतवाल की मदद से उनके घर तक भी पहुंच गए, जहां वह भेस बदल कर रह रहे थे, लेकिन वह उनके हाथ नहीं आए और उदयपुर में एक आज़ाद आदमी की मौत मरे।
“उधर मिर्जा अब्दुल्लाह रियासत टोंक में रहे और बड़ी मुसीबत की जिंदगी बसर की। वह एक भिखारी की तरह सड़कों पर फिरते रहे और आखिरकार इसी हालत में मरे। एक बार जब शाहजादों को पकड़ लिया जाता था, तो कोई स्पष्ट नीति नहीं थी कि उनके साथ क्या सुलूक किया जाएगा। जिनके बारे में जरा भी यह शक होता कि वह बगावत में शरीक थे, उन्हें फौरन फांसी दे दी जाती।