1857 की क्रांति: दिल्ली की गद्दी प्राप्त करने के लिए अंग्रेज डटे हुए थे। सिपाही अंग्रेजों से जमकर मुकाबला कर रहे थे। लेकिन इस दरम्यान शहर में काफी कुछ घटित हो रहा था। खासकर सुरक्षा की दृष्टि से। खासतौर से तवायफों की कोई सुरक्षा नहीं थी और पूरी बगावत यही हाल रहा।
विलियम डेलरिंपल अपनी किताब आखिरी मुगल में लिखते हैं कि एक तवायफ Tawaif जिसे मई में सवार रुस्तम खान उठाकर ले गया था, आखिर जुलाई तक भी उसकी कैद में थी। हालांकि उसे किले से दो
बार आदेश दिया जा चुका था कि उसे छोड़ दे। किले में उसके बारे में बार-बार अर्जियां आई। उसके भाई चंदन की तरफ से जो शायद उसका दलाल था, और एक दूसरे आदमी की तरफ से जो अपने आपको ‘गुड़गांव कैंप का मुसाफिर छेदी’ कहता था।
जिसे ‘बेदीन फिरंगियों की लूटमार ने बेघर कर दिया था’-यानी वह उन शरणार्थियों में से था, जो अंग्रेजों के बदले की कार्रवाईयों की वजह से अपने गांवों से घर छोड़कर भागे थे क्योंकि वह अंग्रेजों के खिलाफ थे या उन्होंने उस समय उनकी मदद नहीं की थी जब वह 11 मई को दिल्ली से फरार हुए थे। छेदी ने अपनी अर्जी में लिखा था कि ‘उसकी रेजिमेंट में एक खौफनाक वाकेया हो चुका था, जब एक दफादार फरजंद अली ने एक तवायफ का गला घोंटकर उसे मार डाला था।
इसलिए खादिम को डर है कि रुस्तम खान भी इस औरत को मार डालेगा क्योंकि वह उसे हर रोज और हर रात मारता और धमकाता है। जब दरबार से रुस्तम खान को मंगलो को छोड़ देने का एक और आदेश मिलने पर उसे रुस्तम के रिसालदार फैज खान ने फाड़कर फेंक दिया, तो चंदन ने फिर कोर्ट में अर्जी भेजी और दोहराया कि रुस्तम खान ने ‘उसे कैद में रख छोड़ा है और उसे मारता है। और जब यह चीखती-चिल्लाती है, तो कोई उसकी मदद को नहीं आता है।
बावजूद बार-बार आदेश मिलने के उस रिसालदार ने अब तक किसी की तामील नहीं की है। अगर नाफरमानी और नाइंसाफी का यही हाल रहा तो आलीजाह की रिआया तबाह हो जाएगी। इसलिए उम्मीद की जाती है कि एक और परवाना उस रिसालदार को भेजा जाए कि इस तवायफ को फौरन छोड़ दे… उसका बयान लिया जाए ताकि इस बेचारे सेवक को इंसाफ मिल सके और वह हमेशा आपकी भलाई और शोहरत की दुआ करता रहे।’