अंग्रेजों के दिल्ली पर कब्जे के बाद दिल्ली में बरपा कहर
1857 की क्रांति: अंग्रेजों ने 17 सितंबर को दिल्ली पर आंशिक रूप से कब्जा कर लिया। अंग्रेज सिपाही जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए, जिस घर से गुजरते उसे लूटते गए। कुछ खुशकिस्मत थे कि उन्हें निकाल दिया गया और जो बदकिस्मत थे उन्हें मार डाला गया। दोनों सूरतों में उनके पीछे कोई भी घर आबाद नहीं बचा। शहर के जिन-जिन इलाकों पर उन्होंने कब्जा किया था वह सब सन्नाटों से गूंज रहे थे। मौलवी मुहम्मद बाकर के बेटे, शायर और आलोचक मुहम्मद हुसैन आजाद उन खुशकिस्मतों में से थे जिन्हें दिल्ली के दूसरे बहुत से नौजवानों की तरह गोली नहीं मारी गई। वह उस दिन अपनी बीवी और पूरे खानदान के साथ घर पर थे। उन्होंने बाद में अपना हाल इस तरह लिखाः
“विजयी फौज के सिपाही एकदम हमारे घर में घुस आए और अपनी बंदूकें तान कर कहने लगे, ‘फौरन बाहर निकलो’। मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। साजो-सामान से भरा एक पूरा घर मेरे सामने था और में खौफजदा खड़ा था; ‘मैं अपने साथ क्या ले जाऊं? सारे जेवरात और जवाहरात एक संदूकचे में बंद करके कुएं में फेंक दिए गए थे।
अचानक मेरी नजर (जौक के) गजलों के पैकेट पर पड़ी (जिनकी मदद से आजाद, जोकि जौक के बड़े समर्पित शागिर्द थे, 1954 में अपने उस्ताद के इंतकाल के बाद से एक आलोचनात्मक संकलन तैयार कर रहे थे)। मैंने सोचा, मुहम्मद हुसैन, अगर खुदा की इनायत हुई और तू बच गया, तो यह सब दुनियावी माल फिर से मुहैया हो सकता है, लेकिन ऐसा दूसरा उस्ताद कहां से पैदा होगा, जो ऐसी गजलें फिर कह सके। अगर यह सलामत हैं, तो जौक मरने के बाद मी जिंदा रहेंगे।
लेकिन अगर यह नष्ट हो गई, तो उनका नाम भी नहीं बचेगा। “इसलिए मैंने वह मसौदा उठा लिया और उसको बगल के नीचे छुपा लिया और चुपचाप अपना सजा-सजाया घर छोड़कर 22 अधमरी आत्माओं के साथ मैंने घर-बल्कि शहर छोड़ दिया। और मेरे होंठों से यह अल्फाज फूट पड़े-हजरत आदम ने जन्नत को छोड़ा था, और दिल्ली भी जन्नत है। लेकिन अगर में आदम की औलाद हूं, तो क्यों न में भी उनकी तरह अपनी जन्नत को छोड़ दूं?
जब आजाद का खानदान दिल्ली से बाहर निकल रहा था, तो एक भटकी हुई गोली या बारूद का निकला फौलाद का टुकड़ा आजाद की साल भर की बच्ची के आ लगा और वह कोमा में चली गई, कुछ दिन बाद उसकी मौत हो गई।
उस रात को आजाद के खानदान ने भी उसी बर्फखाने में पनाह ली, जिसमें जहीर ने पनाह ली थी। हालांकि एक-दूसरे का जिक्र न आजाद के बयान में है और न जहीर की दास्तान में। जहीर के खानदान की तरह आजाद ने भी बड़ी घबराहट में घर छोड़ा था, लेकिन अपने बचे-खुचे सामान में ढूंढ़ने से उन्हें कुछ आटा मिल गया, जो उस वक़्त सोने से महंगा था। उन्होंने एक मिट्टी के टूटे बर्तन के टुकड़े पर उसको गूंधा, कुछ सूखी पत्तियां और डंडियां जमा करके उनकी आग जलाई और फिर दूसरे शरणार्थियों से कुछ लहसुन, नमक और हरी मिर्च मांगकर चटनी पीसी गई।
इन हालात और बिल्कुल सादा खाने के बावजूद आजाद बाद में अपने बच्चों को बताते थे कि वह लहसुन की चटनी और अधपकी रोटियां खाने में उन्हें जितना मजा आया वह कभी जिंदगी में उम्दा से उम्दा बिरयानी, कोरमा और पुलाव खाने में भी नहीं आया।” अगले दिन बैलगाड़ियां ढूंढ़ी गई और उनका यह दल एक मौलवी की निगरानी में सोनीपत रवाना हुआ। लेकिन आजाद उनके साथ नहीं गए। वह अपना घर और अपनी बेटी खो चुके थे, लेकिन उनके पिता अभी मौजूद थे। गैर-मामूली खतरे के बावजूद वह अगले दिन मौलवी मुहम्मद बाकर को ढूंढ़ने और उनकी मदद करने दिल्ली वापस गए। मुहम्मद बाकर अब अंग्रेजों की कैद में थे।
आजाद ने किसी तरह एक सिख जनरल को ढूंढ़ निकाला, जो उनके पिता का दोस्त था और जिसने उनकी मदद करने का वादा किया। उसने आज़ाद को पनाह भी दी और यह जाहिर किया कि वह उनके साईस हैं। उस भेस में वह जनरल आज़ाद को उस मैदान में ले गए, जहां बाकर और दूसरे कैदी मुकद्दमे और फांसी का इंतज़ार कर रहे थे। उन हालात में जब उनके पिता फांसी के तख़्ते पर ले जाए जा रहे थे, तो बाप और बेटे ने एक आखरी नज़र एक दूसरे पर डाली। और फिर मौलवी मुहम्मद बाकर को फांसी हो गई और आज़ाद को, जिन्हें यकीन था कि उनके खिलाफ भी गिरफ्तारी का वारंट निकला होगा, वहां से छिपाकर बाहर निकाला गया और उन्होंने खानाबदोशी की ज़िंदगी अपना ली। चार साल तक वह अकेले बहुत गरीबी के आलम में हिंदुस्तान भर में घूमते रहे, कभी मद्रास, कभी नीलगिरि के पहाड़ों पर, फिर लखनऊ और आखिर में लाहौर। लेकिन वह जहां भी गए, उनके उस्ताद की ग़ज़लें उनके साथ रहीं।
आखिरकार, 1861 में, जब उन्हें लाहौर में पोस्टमास्टर जनरल के दफ्तर में एक निचले दर्जे की नौकरी मिली, तब उन्होंने फिर से खुद को संभाला और यहीं उन्होंने जौक के संग्रह को प्रकाशित कराने का काम शुरू किया, जिसका उन्होंने अपने उस्ताद से वादा किया था और जो एक ऐसे शहर की यादगार, बुद्धिजीवी और कलात्मक रचनात्मकता का क्षण होगा, जो अब पूरी तरह नष्ट हो चुका था।