1857 की क्रांति: लाल किले पर दोबारा कब्जे की चाह में अंग्रेज दिल्ली के आसपास आ धमके। अंग्रेकी वापसी के बाद के दो हफ्तों में बागी फौज में कई हजार सिपाहियों का इजाफा हुआ था। उत्तर में जालंधर और लुधियाना से, पश्चिम में नासिराबाद और हरियाणा से और इन सबसे ज़्यादा तादाद में वह बागी फौज थी, जो पूर्व में बरेली से दो सौ मील की दूरी आहिस्ता आहिस्ता तय करती हुई दिल्ली की तरफ कूच कर रही थी। हिंदुस्तान भर में बंगाल फौज के 1,39,000 सिपाहियों में से 7,796 के अलावा सब अपनी कंपनियों के खिलाफ बगावत कर चुके थे और उनमें से आधे या तो दिल्ली में थे या दिल्ली की तरफ रवाना हो चुके थे।
यह भी खबरें आ रही थीं कि एक बड़ी तादाद में तीन या चार हजार गैर-फौजी हथियारबंद नागरिक, जो जाट किसान थे और जिन्होंने अपने लीडर शाहमल जाट के नेतृत्व में हाल ही में बागपत के पुल की हिफाजत करने पीछे रह गई अंग्रेज़ फौज पर हमला कर दिया था, और इस तरह फील्ड फोर्स का मेरठ से ख़बरों और सामान को भेजने और मंगवाने का सिलसिला काट दिया था।
अंग्रेजों की मुसीबत में इजाफा करने और शहरियों के जोशीलेपन को और बढ़ाने के लिए बहुत से आज़ाद जिहादी भी दिल्ली पहुंच गए थे। उनमें वहाबी मौलवी, जंगजू नक़्शबंदी फकीर, और इन सबसे बड़ी संख्या में कट्टर मुसलमान भी शामिल थे। वे दिल्ली को ब्रितानी हुकूमत से आजाद कराना चाहते थे।
इनमें से चार सौ लोग घेरे के पहले हफ्ते में पास के गुड़गांव, हांसी और हिसार से आए थे और उनसे कहीं ज्यादा 4,000 से ज्यादा राजस्थान की छोटी सी रियासत टोंक से आए। दिल्ली आकर इन क्रांतिकारियों ने जामा मस्जिद और नदी किनारे शहर की सबसे खूबसूरत जीनत उल मस्जिद के सहनों में अपना डेरा जमाया। सिपाहियों और क्रांतिकारियों में इस कदर मतभेद और भरोसे की कमी थी कि हालांकि वह अक्सर साथ-साथ लड़ते थे, लेकिन फिर भी सिपाही दोनों मस्जिदों के अंदर और बाहर जाने वालों की पूरी तलाशी लेते थे और बहुत से लोगों को जिन पर उन्हें शक होता रोक लेते थे। कई बार इससे तनाव की स्थिति भी बन जाती।