1857 की क्रांति: अंग्रेजों ने शहर में दाखिल होने की पूरी तैयारी कर ली थी। 14 सितंबर को क्रांतिकारियों ने भी अंग्रेजों को रोकने की पूरी व्यवस्था कर ली थी। शहर के अंदर अंग्रेजों के हमले को रोकने की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी थीं।
बख्त खां का दस्ता काबुल दरवाजे के इर्द-गिर्द के इलाके की सुरक्षा व्यवस्था कर रहा था, जो उसके जिम्मे था। रेत के बोरों और मोर्चाबंदी की रोक लग चुकी थी। सुबह उसने अपने पुराने विरोधी कमांडर मिर्जा मुगल से, जिनसे शायद उसकी सुलह हो गई थी, दो सौ कुली, कुछ लकड़ी के तख्ते, रेत के बोरे और टोकरियां मंगवाई थीं। जो कुछ उसने मांगा वह फौरन उसको भेज दिया गया था।
मिर्जा मुगल भी अपने आखरी निर्देश शहर के लोगों के लिए दे रहे था कि वह जो भी हथियार उनको मिल सकें, उठाकर इस हमले को रोकने की कोशिश करें। और वह खुद उन दो मुहल्लों के लोगों को जो दीवार के छेदों के बिल्कुल करीब थे, वहां से निकालकर शहर के दूसरे सुरक्षित इलाकों में भेजने की निगरानी कर रहे थे। लाल किले में ज़फर अपनी रोजमर्रा की रस्मी जिंदगी में ऐसे मसरूफ थे जैसे कोई खास बात ही नहीं हो रही है।
उस वक्त वह लखनऊ से आए हुए एक दूत को, जो वहां के दरबार की ताबेदारी का वादा करने आया था, सफीरुद्दौला के खिताब से नवाज रहे थे। लेकिन उनके दिल में बेहद डर था। सईद मुबारक शाह का कहना था किः “बादशाह सलामत को जब मालूम हुआ कि शहर की दीवारों के ऊपर की तोपें खामोश हो गई हैं, तो वह बहुत दुखी हो गए, और उन्होंने कुरआन शरीफ उठाकर उसमें फाल देखी, तो पहले ही पन्ने पर जहां उनकी नजर पड़ी, उसमें लिखा था ‘न तुम, न तुम्हारी फौज, बस वही जो पहले यहां थे।’
बूढ़े बादशाह बिल्कुल चुप हो गए। हकीम अहसनुल्लाह खान ने उनको यकीन दिलाना चाहा कि इसका असल मतलब यह है कि वह खुद लड़ाई में जीतेंगे लेकिन जफर को कुछ और ही शक था।