जफर की मौत के बाद जब जीनत महल ने हिंदुस्तान लौटने की भी मांगी थी इजाजत
1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर का निधन हो चुका था। जफर का एक बेटा मिर्जा जवांबख्त शराब के नशे में चूर रहने लगा तो दूसरे बेटे मिर्जा शाह अब्बास ने रंगून की एक लड़की से शादी कर ली, जो एक स्थानीय मुसलमान व्यापारी की बेटी थी–और कुछ हद तक उन मुसीबतों से बच गया, जो उसके खानदान के और लोगों को पेश आईं (उसके वारिस अभी भी रंगून में रहते हैं।)
जीनत महल इस बीच अकेली रहीं, “बहुत ही तंगहाली और लगभग गरीबी के आलम में… दो-तीन नौकरानियों के साथ एक लकड़ी के घर में, जिसे उन्होंने खुद खरीदा था… इस विधवा बेगम ने अपने घर को बिल्कुल बेतरतीबी के आलम में छोड़ दिया था… वह एक खामोश बैरागी जिंदगी जी रही थीं और अपनी इज्जत बचाकर रहती थीं… हालांकि जिस घर में वह रहती थीं, वह एक जर्जर इमारत थी और उस इलाके में जहां यह थी, उसका वजूद आंखों को खटकता था।” बुढ़ापे में उन्होंने यह कहकर हिंदुस्तान वापस जाने की इजाज़त मांगी कि उनका बेटा जवांबख्त उन पर जुल्म कर रहा है, लेकिन यह दर्खास्त फौरन नामंजूर हो गई।
उनका एकमात्र दिलासा और शौक सिर्फ अफीम थी, जिसकी अपनी जिंदगी के अंतिम दिनों में वह लगातार आदी होती गईं। 1882 में, अपने शौहर के बीस साल बाद उनकी मृत्यु हुई। उनकी मौत के वक्त तक ज़फ़र की कब्र की सही जगह भुलाई जा चुकी थी और उसका पता न लग सका इसलिए उनको अंदाज़े से एक दरख्त के पास उस जगह दफ्न कर दिया गया, जहां लोगों का ख्याल था कि जफर की कब्र हुआ करती थी। दो साल बाद मिर्जा जवांबख्त को पक्षाघात हुआ और वह भी मर गया। उसकी उम्र सिर्फ बयालीस साल थी। जब 1903 में भारत से एक प्रतिनिधिमंडल जफर की कब्र पर श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुंचा, तब तक जीनत महल की कब्र की जगह भी भुलाई जा चुकी थी, हालांकि कुछ स्थानीय गाइडों ने ‘एक मुरझाए हुए कमल के पेड़’ की तरफ इशारा किया। मगर 1905 में रंगून के मुसलमानों ने विरोध करना शुरू किया और मांग की कि जफर की कब्र की निशानदेही की जानी चाहिए क्योंकि, जैसा कि उन्होंने अपनी अर्जी में लिखाः- “मुगलों की आला नस्ल के आखरी बादशाह की आरामगाह को लेकर रंगून की मुसलमान बिरादरी में बहुत उत्तेजना है… एक इंसान या बादशाह की हैसियत से भले ही बहादुरशाह जफर की तारीफ न की जाए, लेकिन उन्हें याद जरूर रखना चाहिए।” उन्होंने “सरकार से इजाजत मांगी कि विवादास्पद कब्र के आसपास की ज़मीन का पर्याप्त टुकड़ा उन्हें खरीदने दिया जाए ताकि उस पर बहादुर शाह जफर के स्तर के मुताबिक स्मारक बनाया जा सके।
पहले-पहल अंग्रेजों का रवैया अनुकूल नहीं था। उनकी दर्खास्त कलकत्ता भेज दी गई जहां से फौरन यह जवाब आ गया कि “वायसरॉय आपकी राय से सहमत हैं कि सरकार के लिए यह कतई मुनासिब नहीं होगा कि वह कुछ भी ऐसा करे जिससे बहादुरशाह की याद कायम रहे या उन्हें श्रद्धांजलियां दी जाएं, या कि उनकी कब्र के ऊपर मजार बनाने की इजाज़त दी जाए जिससे वह बाद में जियारत की जगह बन जाए।”
लेकिन फिर भी प्रदर्शन और अखबारों में लेखों की लंबी श्रृंखला छपने के बाद आखिरकार 1907 में अंग्रेज प्रशासन इसके लिए तैयार हो गया कि उस जगह पर “एक सादा पत्थर लगवा दिया जाए, जिस पर लिखा हो, ‘बहादुर शाह, दिल्ली के पूर्व बादशाह। रंगून में 7 नवंबर 1862 को इंतकाल हुआ और उन्हें इस जगह के पास दफनाया गया’।”
कब्र की कथित जगह के चारों तरफ एक जंगल बनाने की भी इजाजत मिल गई, और 26 अगस्त 1907 के रंगून टाइम्स के मुताबिक समय आने पर “वर्तमान स्मारक के निर्माण से मुस्लिम समुदाय में संतुष्टि के भाव को दर्ज करने के लिए” और “इस मामले में सरकार द्वारा सहानुभूतिपूर्ण और उदार दिलचस्पी दिखाने के लिए” विक्टोरिया हॉल में एक मीटिंग की गई।” बाद में उसी साल जीनत महल के लिए भी एक पत्थर लगवा दिया गया।
1925 तक यह एक कामचलाऊ दरगाह बन गया था और उसके ऊपर एक नालीदार लोहे की छत भी पड़ गई थी। 78 अठारह साल बाद उसी सड़क पर इस साधारण से मजार के पास ही दूसरे विश्व युद्ध के समय जापानियों ने इंडियन नेशनल आर्मी के कुछ दस्ते ठहराए थे। यह स्पष्ट नहीं है कि जानबूझकर या अनजाने में, लेकिन जो दस्ता मजार के बिल्कुल पास (जो अब थिएटर रोड कहलाती है) ठहराया गया था उसका नाम रानी झांसी ब्रिगेड था, जिसका नाम 1857 की बगावत की एक और मशहूर लीडर के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने आंशिक रूप से उनकी बदकिस्मत (और बकौल नेहरू और गांधी के सिरफिरी) फौज को प्रेरित किया था, जिसने हिंदुस्तान को अंग्रेजों से आज़ाद करने की मुहिम में जापानी हमलावरों से हाथ मिला लिया था।
16 फरवरी 1991 को जब मजदूर मजार के पीछे एक नाली खोद रहे थे तो उन्हें एक ईंटों की चुनी हुई कब्र नज़र आई। वह ज़मीन से तीन फुट नीचे, और मजार से 25 फुट दूर थी। उसके अंदर आखरी मुगल का कंकाल बिल्कुल सही-सलामत पाया गया।
आज मजार में नीचे एक तहखाने में और पुरानी दरगाह के एक तरफ स्थित बहादुरशाह ज़फर की यह ईंटों की बनी कब्र रंगून के मुसलमानों के लिए एक लोकप्रिय पवित्र दरगाह बन गई है। वहां के मुसलमान बाशिंदे ज़फर को एक पहुंचा हुआ सूफी पीर मानते हैं और वहां बरकत हासिल करने और मन्नत मांगने आते हैं। यह सब देखकर यकीनन जफर को बहुत खुशी होती क्योंकि अपनी जिंदगी में उन्हें अपने मुरीद बनाना बहुत पसंद था। जफर के मजार पर अक्सर दक्षिण एशिया के राजनीतिज्ञ, और हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश से बहुत से उच्च पदाधिकारी उनकी कब्र पर हाजरी देने और चढ़ावा चढ़ाने में एक-दूसरे से होड़ करते हैं। सबसे ज़्यादा कीमती चढ़ावा एक बड़ा सा, मगर बदसूरत, कालीन है जिसे राजीव गांधी ने भेंट किया था।
इस सबके बावजूद, आधुनिक इतिहास की किताबों में ज़फर के समर्थक बहुत कम हैं। एक तरह से यह सच है क्योंकि उनकी ज़िंदगी को नाकामियों के अध्ययन की तरह देखा जा सकता है: आखिर हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब का अंत उनके दौर में हुआ और 1857 के गदर में उनका योगदान कतई बहादुरी भरा नहीं था। कुछ राष्ट्रवादी इतिहासकार उन पर यह इल्जाम भी लगाते हैं कि बगावत के दौरान उन्होंने अंग्रेजों से खतो-किताबत जारी रखी और कुछ कहते हैं कि उन्होंने क्रांतिकारियों का नेतृत्व करके विजय हासिल नहीं की। लेकिन यह समझ पाना मुश्किल है कि बयासी साल की उम्र में ज़फर और क्या कर सकते थे। शारीरिक रूप से वह कमज़ोर थे, दिमाग थोड़ा असंतुलित हो गया था और उनके पास इतना पैसा नहीं था कि वह उन सिपाहियों को तन्ख्वाह तक दे पाते, जो उनके झंडे के नीचे जमा हुए थे। अस्सी साला बुजुर्ग घुड़सवार फौज का नेतृत्व नहीं कर सकते। उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन वह बागी फौजों को दिल्ली की लूटमार करने से रोक पाने में भी लाचार रहे, जो कि उनकी रिआया के लिए भी उतनी ही नुक्सानदेह साबित हुई जितनी कि उनके दुश्मनों के लिए। फिर भी ग़दर के दस्तावेजों में काफी सुबूत मिलते हैं कि उन्होंने अपने शहर और शहरियों की हिफाजत करने की पूरी कोशिश की थी। हालांकि जफर में यकीनन कोई बहादुर या क्रांतिकारी लीडर बन पाने की सलाहियत नहीं थी, लेकिन अपने पूर्वज शहंशाह अकबर की तरह वह उस इस्लामी तहजीब के एक बहुत दिलकश प्रतिनिधि थे जो बहुत सहिष्णु और बहुलवादी थी। वह खुद एक बहुत नामी शायर और खुशनवीस थे। उनके दरबार में आधुनिक दक्षिण एशियाई इतिहास के कुछ योग्य कलाकार और साहित्यिक लोग मौजूद थे और जिस दिल्ली के वह बादशाह थे वह उस वक़्त शिक्षा, आत्मविश्वास, सांप्रदायिक मेलजोल और समृद्धि के एक बहुत अहम दौर से गुजर रही थी। इस लिहाज से उन्हें एक बहुत उदारवादी और पसंदीदा शख्स की तरह देखा जा सकता है, खासकर अगर उनकी तुलना विक्टोरियन युग के ईसाइयों से की जाए जिनकी असंवेदनशीलता, घमंड और अज्ञानता ने न सिर्फ अपने ऊपर बल्कि दिल्ली के दरवार और शहरियों पर बगावत को थोप दिया और पूरे उत्तरी भारत को भयानक हिंसा की मजहबी जंग में झोंक दिया था।
सबसे बढ़कर यह कि जफर ने हमेशा हिंदुओं के संरक्षक और मुसलमानों की मांगों के मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका पर हमेशा बहुत ज़्यादा बल दिया। वह अपनी हिंदू और मुसलमान प्रजा के बीच गठजोड़ बनाए रखने की अहमियत को कभी नहीं भूले जो कि उनका मानना था कि उनकी राजधानी को एकजुट रखने की सबसे महत्वपूर्ण कुंजी है। बगावत के दौरान पूरे वक़्त क्रांतिकारियों की मांगों को मानकर अपनी हिंदू प्रजा को अलग-थलग करने से इंकार करते रहना शायद उनकी इकलौती अटल नीति थी।
जैसा कि दिल्ली दरबार की तरफ सिपाहियों के सैलाब की तरह उमड़ पड़ने से पता चलता है, मुग़लों के खात्मे और मिट जाने की कोई अपरिहार्य वजह नहीं थी। लेकिन आने वाले सालों में, जैसे-जैसे मुसलमानों का सम्मान और शिक्षा कम होती गई और हिंदुओं का आत्मविश्वास, दौलत, शिक्षा और ताकत बढ़ी, तो धीरे-धीरे हिंदू और मुसलमान अलग होते गए, और अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति को दोनों धर्मो के कट्टर लोगों में तत्पर सहयोगी मिल गए। दिल्ली की मिली-जुली संस्कृति के बारीक बुने ताने-बाने में 1857 में पड़ी दरार धीरे-धीरे बढ़ती रही और 1947 में विभाजन के साथ आखिरकार वह दो हिस्सों में टूट गई। हिंदुस्तानी संभ्रांत मुसलमान काफी तादाद में पाकिस्तान चले गए, और एक वक्त ऐसा आ गया कि यह सोचना भी लगभग नामुमकिन था कि कभी हिंदू सिपाही अपने मुसलमान भाइयों के साथ मुग़ल सल्तनत को बहाल करने की कोशिश में लाल किले में, और एक मुसलमान बादशाह के झंडे तले, जमा हुए थे।
ग़दर के कुचले जाने, दिल्ली दरबार को उखाड़ फेंकने और कत्ले-आम होने के बाद हिंदुस्तानी मुसलमान खुद भी दो भिन्न धड़ों में बट गएः एक अंग्रेजों के वफादार सर सैयद अहमद खां के अनुयायी थे, जो पश्चिम की तरफ देखते थे और मानते थे कि सिर्फ पश्चिमी शिक्षा को हासिल करके ही मुसलमान तरक्की कर सकते हैं। यही सोचकर सर सैयद ने अलीगढ़ मोहम्मडन एंग्लो-ओरियंटल कॉलेज (जो अब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कहलाती है) की नींव डाली और हिंदुस्तान के मैदानों में ऑक्सब्रिज बनाना चाहा।
दूसरा नजरिया मदरसा-ए-रहीमिया के बचे हुए लोगों का था। उन्होंने पश्चिमी तालीम को बिल्कुल खारिज कर दिया और खालिस इस्लामी तहजीब की जड़ों की ओर लौटने की कोशिश करनी चाही। इस मकसद से, मौलाना मुहम्मद कासिम नानोतवी जैसे–जिन्होंने 1857 में कुछ दिन के लिए मेरठ के पास दोआब के इलाके शामली में अपने एक आज़ाद इस्लामी राज्य की बुनियाद डाली थी-शाह वलीउल्लाह के मदरसे के मायूस छात्रों ने मुगलों की पूर्व राजधानी से सिर्फ सौ मील दूर देवबंद में एक प्रभावशाली लेकिन बेहद संकीर्ण वहाबी किस्म का मदरसा भी शुरू किया। रक्षात्मक नीति अपनाते हुए वह उस सबके खिलाफ थे जिसे मदरसे के संस्थापक पुराने मुग़ल कुलीनों का पतित और दूषित आचरण मानते थे। इसलिए देवबंद मदरसे ने सिर्फ कुरआनी तालीम शुरू की और अपने पाठ्यक्रम से हर वह चीज़ निकाल दी, जो हिंदुओं या अंग्रेजों से कोई भी ताल्लुक रखती थी।