1857 की क्रांति: 17 सितंबर की सुबह को यह खबर सारे शहर में जंगल की आग की तरह फैल गई कि बहादुर शाह जफर ने आखिरकार वही किया, जिसकी वो इतने दिन से धमकी दे रहे थे। यानी किला छोड़कर ख्वाजा कुतुब की दरगाह पर चले जाना।
दोपहर तक अजमेरी दरवाजे से लोगों का हुजूम निकलना शुरू हो गया। कुछ लोगों ने यह गलत फैसला कर लिया कि अंग्रेजों से ज्यादा उनको गूजरों से खतरा है और वह कश्मीरी दरवाजे की तरफ जाने लगे, जिस पर अब अंग्रेजों का कब्जा था। यहां बहुत से मर्द और नौजवान लड़कों को गोली मार दी गई और औरतों और बच्चों को जाने की इजाज़त दी गई लेकिन पहले उनकी अच्छी तरह तलाशी ली गई और सिपाहियों ने उनके सारे जेवरात, सामान और पैसे छीन लिए।”
बहुत से फरार होने वालों ने वही रास्ता लिया, जो अंग्रेजों ने भागते वक्त चार महीने पहले लिया था। यानी करनाल और मेरठ का रास्ता। हैरियट टाइटलर जो खुद 11 मई को शहर से भागी थी, उनको जाते देख रही थी। वह शायद अंग्रेजों में अकेली थी, जिसके दिल में उन लोगों के लिए थोड़ा सी दया था। वह लिखती हैः
“कितना दर्दनाक नजारा था जब औरतों और बच्चों का हुजूम कश्मीरी और मोरी दरवाजे से बाहर आ रहा था। वह औरतें जिन्होंने कभी अपने जनानखाने की चारदीवारी से बाहर कदम नहीं रखा था, जो अपने सहन में भी बस कुछ कदम ही चलती थीं, और वह भी अपने नौकरों या घरवालों के साथ, अब उन्हें न सिर्फ यूरोपियन सिपाहियों बल्कि अपने लोगों के भी घूरने का सामना करना पड़ रहा था। मुझे उन पर बहुत रहम आ रहा था, खासकर ऊंचे जात की हिंदू औरतों के लिए बहुत तकलीफदेह था।
जहीर देहलवी के खानदान ने भी बहुत परेशानी के आलम में 17 सितंबर की पूरी सुबह अपने चारों तरफ लोगों को जाते देखा। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। उस शाम को, दिल्ली की शिया आबादी के प्रमुख नवाब हामिद अली खां उनके घर आए और उनके खानदान से दर्खास्त की कि वह उनके साथ चलें और दिल्ली को छोड़ दें इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।
“आप लोग इतने इत्मीनान से किस तरह घर में बैठे हैं जबकि बादशाह ने किला छोड़ दिया है और अब उनकी सब रिआया भी शहर छोड़ रही है?’ उन्होंने मेरे पिता से पूछा, ‘खुदा के वास्ते आप सब लोग भी अपना घर छोड़कर आज शाम को ही फरार हो जाईए। आप देख नहीं रहे कि सारे शहर में कत्लो-गारत और लूटमार मची है। मैं भी अपनी बीवी और बच्चों को लेकर जा रहा हूं। मेहरबानी करके अपने खानदान की औरतों को मेरे खानदान के साथ गाड़ी में सवार करा दीजिए।’ “नवाब हामिद अली खां का घर कश्मीरी दरवाज़े के पास था लेकिन एक महीने पहले (जब अंग्रेजों ने वहां गोलाबारी शुरू की थी) तो उन्होंने हमारे घर के बगल में (चांदनी
चौक के पास) एक घर किराये पर ले लिया था और वहां रह रहे थे। मेरे पिता ने नवाब साहब की सलाह मान ली और हालांकि सूरज डूब रहा था, उन्होंने आदेश दिया कि सब लोग फौरन चलें। मेरी मां इतना घबरा गई कि सिवाय उस जेवर के जो वह उस वक़्त पहने थीं, उन्होंने एक छल्ला तक नहीं लिया। कम से कम मेरी बीवी ने अपने शादे के कपड़े रख लिए थे, जो ढाई हज़ार रुपए के थे। और एक छोटा सा जेवरों का संदूकचा भी। उन्होंने यह सब एक सूती गद्दे में डालकर उसको गाव तकिये की तरह लपेट लिया और बैलगाड़ी में बिछा दिया।”
यह काफिला दिल्ली की उन सड़कों पर रवाना हुआ जहां उन्होंने अपनी तमाम जिंदगी गुज़ारी थी लेकिन जिन्हें अब पहचानना भी मुश्किल हो रहा थाः
“सड़कों पर हमने बेहद दर्दनाक नजारे देखे। वहां से गुजरते हुए हमने लोगों की बेबसी और मुसीबत देखी, और उनकी गरीबी और डर को देखा। हमने उन पर्दानशीन औरतों की बदहाली देखी, जो कभी इस तरह सड़क पर नहीं निकली थीं और जिन्हें पैदल चलने की आदत नहीं थी। हमने बच्चों का रोना और चीखना सुना। यह सब इतनी दर्दनाक था कि इसे सिर्फ वही समझ सकता है, जिसने ऐसा मंजर कभी देखा हो।
“हम सब मर्द, औरतें और बच्चे दिल्ली दरवाजे से बाहर निकले तो देखा कि वहां बिल्कुल दोजख का नजारा है। पर्दे में हजारों औरतें छोटे बच्चों को संभाले, अपने हैरान-परेशान मर्दों के साथ शहर छोड़ रही थीं। किसी को होश नहीं था कि उनका क्या हाल है और उनको कहां जाना है। बस वह चलते जा रहे थे। बहुत तकलीफों और मुसीबतों के बाद हमारा काफिला बर्फखाने (जो अब के कनॉट प्लेस के नीचे था) पहुंचा। वह सारी जगह नवाब हामिद अली खां ने उसके मालिकों से किराये पर ले ली थी। हमने सारी रात वहां गुज़ारी और खुदा का शुक्र अदा किया कि हम सुरक्षित हैं और हमारे सिर पर छत है, हालांकि हममें से किसी के पास भी कुछ खाने को नहीं था।
उसी दिन दोपहर बाद बख्त खां के दस्तों ने भी अपना किशनगढ़ वाला सामने का मोर्चा छोड़ दिया था, जिसकी वजह से जनरल विल्सन अब तक बहुत परेशान था। अब जबकि उसके पीछे रिज और कैंप पर कोई खतरा बाकी नहीं रहा था, तो विल्सन को भी आखिरकार महसूस हुआ कि वह हिम्मत के साथ आगे बढ़ सकता है। हालांकि बर्न बुर्ज अभी तक दुश्मनों के कब्जे में था और शहर के पश्चिमी हिस्से में अभी भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई जारी थी, लेकिन आधे पूर्वी हिस्से में ब्रिटिश दस्ते बराबर आगे बढ़ रहे थे। और 17 की शाम तक जफर के किला छोड़ने के कुछ देर बाद ही उन्होंने चांदनी चौक पर भी कब्ज़ा कर लिया था।