1857 की क्रांति: बर्मा के कैदखाने में बहादुर शाह जफर खामोशी से बैठे बालकनी से जहाजों को गुजरता देखते रहते। उनको कागज या कलम की इजाजत नहीं थी, इसलिए उस देश निकाले और तन्हाई में उनकी दिमागी हालत का बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। निश्चय ही अब ऐसा लगता है जैसे देश निकाले के दौरान उनके द्वारा लिखी कही जाने वाली मशहूर गजलें, जिनमें वह अपनी उदासी और तल्खी बयान करते हैं, उनकी अपनी नहीं हैं।

लेकिन विलियम हॉवर्ड रसेल ने बहुत स्पष्ट तौर से उनका अपने कैदखाने की दीवारों पर जली हुई तीलियों से गजलें लिखना बयान किया है और यह पूरी तरह नामुमकिन नहीं है कि किसी तरह इन्हें लिखा और सहेजा गया हो।

(दो मशहूर गजलें जिन्हें एक जमाने से जफर की माना जाता है-‘लगता नहीं है दिल मेरा’ और ‘न किसी की आंख का नूर हूं’ उपमहाद्वीप में काफी हद तक मुहम्मद रफी की वजह से मशहूर हैं, जिन्होंने बॉम्बे की फिल्म लाल किला के लिए इन्हें गाया था। लेकिन उससे पहले पचास के दशक में एक हबीब वली मोहम्मद ने रेडियो सीलोन के टेलेंट शो, ओवलटीन एमेच्योर ऑवर में इन्हें गाकर पहले ही लोकप्रिय कर दिया था। साठ के दशक में रफी का संस्करण ऑल इंडिया रेडियो का पसंदीदा बन गया।

लाहौर के विद्वान इमरान खां द्वारा हाल में की गई रिसर्च, जिसका उर्दू अदब के दूसरे कई विद्वानों ने समर्थन किया है,जफर द्वारा इन दोनों गजलों के लिखे जाने पर सवालिया निशान लगाती है। बेशक ये गजलें जफर के चारों प्रकाशित दीवानों में से किसी में नहीं छपीं। न ही यह हुजूरे-आला पत्रिका में छपी थीं, जिसमें जफर की भी गजलें छपती थीं। इन विकासों की ओर ध्यान दिलाने के लिए प्रोफेसर फ्रान प्रिचौट और संदीप दुग्गल को धन्यवाद देना चाहूंगा, और साथ ही सी.एम. नईम को भी जो उर्दू अदब के नामी-गिरामी विद्वान होने से पहले ओवलटीन एमेच्योर ऑवर के उत्साही श्रोता हुआ करते थे।)

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