1857 की क्रांति: जैसे-जैसे घेराबंदी के दिन गुजरते गए, यह साफ होता गया कि क्रांतिकारियों  की सैनिक और रणनीतिक कमियों की तरह ही उनके प्रशासनिक और वित्तीय संगठन की कमजोरियां ही उन्हें ले डूबीं। उन्होंने अराजकता तो पैदा कर दी लेकिन व्यवस्था नहीं स्थापित की।

दिल्ली के इर्द-गिर्द के इलाकों के लिए यह और भी नुक्सानदेह था। वह एक ‘आज़ाद क्षेत्र’ या मुगल इलाका कायम नहीं कर पाए, जहां से वह टैक्स के जरिए पैसा, श्रमशक्ति और खुराक इकट्ठा करते, और यह दिल्ली के क्रांतिकारियों  की सबसे तबाह नाकामी साबित हुई। पत्रकार मौलवी मुहम्मद बाकर ने इस बात को महसूस किया और बार-बार इसके बारे में अपने अखबार में लिखाः

“खुदा ही जानता है कि इस नाकामी की क्या वजह है और किसलिए इतनी बेपरवाही से काम लिया जा रहा है… किसी अमीर या सामंत को राजाओं और दूसरे कुलीनों से टैक्स और खिराज वसूल करने की जिम्मेदारी देनी चाहिए ताकि आलीजाह बादशाह सलामत की हुकूमत और नियंत्रण कायम रहे।

तमाम जिलों और सूबों में जहां काफिरों का कलक्टर नियुक्त होता था, वहां बादशाह सलामत का एक प्रतिनिधि या जिलेदार होना चाहिए और उसके साथ कुछ सिपाही और इस्लामी झंडा। सारे गांवों की पहचान तो हो ही चुकी थी, अब वहां से दस्तूर के मुताबिक पैसा वसूल करना चाहिए।

हर जगह एक या ज़्यादा दस्ते तैनात होना चाहिएं। इसमें कोई शक नहीं कि अगर ऐसा नहीं किया जाएगा, तो उन जगहों के सारे उमरा और स्थानीय निवासी रौब और डर से छुटकारा नहीं पा सकेंगे जो उनके दिल में बैठा है, और शायद वह अपनी इस सबसे प्रिय इच्छा को भी खो बैठें कि मुगलों की हुकूमत वापस आ जाए।

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