1857 की क्रांति: दिल्ली की गोलाबारी 10 जून को शुरू हुई। शुरू-शुरू में बहुत मामूली सा नुकसान हुआ था। उस वक़्त अंग्रेजों के पास काफी कम तोपें थीं और घेराव करने वाली बड़ी तोपें तो थीं ही नहीं, इसलिए दिल्ली वालों के लिए उनकी तोपबाजी सिर्फ एक तमाशे की तरह थी। शहर की दीवारों के बुजर्गों पर लगी क्रांतिकारियों की बड़ी तोपों की कतार के मुकाबले में अंग्रेजों की तोपों की तादाद बहुत कम थी। और जैसा विलियम होडसन ने घेराबंदी के पहले दिन ही अंदाज़ा लगाया था कि “उनके तोपची ज़बर्दस्त निशानेबाज हैं, और सटीक निशाने लगाने में हमारे तोपचियों को मात देते हैं।” इसलिए दिल्ली के लोग अपनी छतों पर उमड़ आए, जबकि “बादशाह सलामत और शाही खानदान किले की छत पर बैठ गए और सलातीन किले की दीवारों के बुर्ज से देखते रहे। सरवरुल मुल्क याद करते हैं कि “उस वक्त खूब गर्मी थी और हर रात हम अपने सिरों के ऊपर से निकलते तोप के गोलों की चमक देखा करते। हम उन्हें आतिशबाजी मानते थे।”
लेकिन अगर उनमें से कोई गोला किसी के घर पर गिर जाता, जैसा एक महीने के बाद सरवरुल मुल्क की हवेली में हुआ, तो फिर ये सारा मजा खत्म हो जाता। “एक तोप के गोले ने हमारी हवेली की ऊपर की मंज़िला की छत उड़ा दी और फिर बरामदे में आ गिरा, जहां हम बैठे खाना खा रहे थे। मेरे चचा ने जल्दी से दौड़कर उस पर बालटियों भर पानी डाला।”
महल अंग्रेज तोपचियों के लिए आसान निशाना बन गया था और जल्दी ही एक अंग्रेजी तोप ऐसी जगह रख दी गई, जहां से वह लगातार शाहजहां की लाल पत्थर की दीवारों के अंदर गोले फेंकती रहती थी। जहीर देहलवी ने महसूस किया कि वह लोग खासतौर से खूबसूरत सफेद संगमरमर के शाही निवासों को निशाना बना रहे थे।
वह लिखते हैं:- “रोज अंग्रेजों के कब्जा किए हुए रिज से गोलाबारी होती रहती। और जैसे-जैसे उनका निशाना बेहतर होता गया, वैसे-वैसे गोले फटने पर खूब तबाही मचाते। अगर कोई तोप का गोला किसी बहुमंजिला इमारत पर गिरता, तो वह उसमें घुसकर नीचे तक पहुंच जाता, और अगर ज़मीन पर गिरता, तो वहीं कम से कम दस गज अंदर घुस जाता और आसपास सब कुछ नष्ट कर देता। और बम तो और भी खतरनाक थे; वह अगर किले के पुराने शाहजहानी घरों पर गिरते, तो वह बिल्कुल इह जाते थे। घेराबंदी के बाद के दौर में कभी-कभी रातों में ऐसा लगता था मानो धरती पर नर्क उतर आया हो, एक साथ दस गोले फेंके जाते और वह एक के बाद एक फटते।