1857 की क्रांति: 1862 में जफर 87 साल के हो गए थे। अब वह बहुत क्षीण और कमजोर हो गए थे और हालांकि कोई बीस साल से डॉक्टर उनके सिर पर मौत मंडराती देख रहे थे, लेकिन अभी तक उन भविष्यवाणियों के सच होने का कोई निशान नहीं दिखा था, सिवाय इसके कि ‘उनकी जवान के नीचे फालिज का असर हो गया था।
लेकिन अक्टूबर 1862 के आखिर में मॉनसून खत्म होने पर जफर की हालत एकदम बिगड़ गई। न वह निगल पा रहे थे और न ही खाना हन्म कर पा रहे थे, और डेविस ने अपनी डायरी में लिखा कि अब उनकी जिंदगी का अर्सा ‘बहुत अनिश्चित’ है। उनको चम्मच से सूप पिलाया जाता था, लेकिन 3 नवंबर तक उसका भी गले से उतरना मुश्किल हो गया। 5 को डेविस ने लिखा ‘सिविल सर्जन का ख्याल है कि अब जफर ज़्यादा दिन नहीं बचेंगे’। अगले दिन डेविस ने रिपोर्ट किया कि ‘बुजुर्ग की हालत जीर्णता और गले पर फालिज का असर होने से और गिर गई है’। उनकी मौत की तैयारी में डेविस ने ईंटें और चूना जमा करने का हुक्म दिया और ज़फ़र के घर के अहाते के पीछे एक अलग-थलग सा कोना उनके दफ़्न के लिए तैयार करवा दिया गया।
एक लंबी रात की जद्दोजहद के बाद शुक्रवार 7 नवंबर 1862 को सुबह पांच बजे जफर ने आखरी सांस ली। फौरन हुकूमत का सारा बंदोबस्त शुरू हो गया कि आखरी मुगल की मौत जहां तक मुमकिन हो गुपचुप और खामोशी से गुजर जाए। जफर की मौत भले ही एक 350 साल पुरानी और महान शाही नस्ल का अंत था लेकिन डेविस दृढ़ था कि इस दुखद और ऐतिहासिक लम्हे में कम से कम लोग शरीक हों। उसने लिखाः
“सब कुछ बिल्कुल तैयार था, उनको उसी दिन चार बजे शाम को मेन गार्ड के पीछे ईंटों की कब्र में दफ़्न कर दिया गया और उसको ज़मीन की सतह तक घास से ढक दिया गया।” डेविस ने लिखा था कि सिर्फ उनके दोनों बेटों और नौकरों ने जनाजे में शिरकत की, मगर मुसलमान रिवाज के मुताबिक औरतें शरीक नहीं हुईं।
उसने आखिर में लिखा, “उनकी कब्र के गिर्द कुछ दूरी पर एक बांस का अहाता लगा दिया गया और जब तक वह गले-सड़ेगा, तब तक घास उस जगह को फिर से पूरी तरह ढक देगी और इसका कोई नामो-निशान भी नहीं रहेगा कि महान मुगलों का आखरी वारिस कहां आराम कर रहा है।” अगले दिन डेविस ने अपने कैदी की मौत पर सरकारी रिपोर्ट लिखी, “इस हादसे का उनके रिश्तेदारों या शहर के मुसलमान बाशिंदों पर बहुत कम असर हुआ,” डेविस ने संतोष जताया। “शायद सौ-दो सौ लोग जनाजे के वक्त जमा हुए होंगे लेकिन उनमें से ज़्यादातर करीब के सदर बाजार से शहर जाने वाले लोग थे, जो उस दोपहर कैदियों के मकान के पास होने वाली रेस देखने जा रहे थे। उसने आगे लिखा, “अपदस्थ बादशाह की मौत से रंगून की मुसलमान आबादी वाले हिस्सों पर कोई असर नहीं पड़ा। सिवाय चंद कट्टर लोगों के जो इस्लाम फतह की दुआ करते हैं।