कभी शानो-शौकत का पर्याय था दिल्ली का सिविल लाइंस
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Delhi: अगर पुराने दिनों की बात करें तो दिल्ली के वकील परिवार काफी समय तक शहर से बाहर नहीं निकले। इसका महत्त्वपूर्ण कारण कोर्ट-कचहरी से नज़दीकी था। कचहरी उस समय भी तीस हज़ारी में थी और उसकी एक शाखा कश्मीरी गेट पर, चर्च के सामने उस पत्थर की इमारत में चलती थी जिसमें बाद में दिल्ली का मशहूर हिन्दू कॉलेज अपने आरम्भिक वर्षों में आबाद रहा।
उस इलाके में कचहरी कायम करने की वजह यही रही होगी कि तब न्यायाधीश प्रायः अंग्रेज़ ही होते थे और सिटी मजिस्ट्रेट, डिप्टी कमिश्नर, कमिश्नर जैसे हुक्मरानों के बँगले भी सिविल लाइंस में ही थे। वकीलों के घर और कमरे अलबत्ता लम्बे समय तक नई सड़क और चाँदनी चौक के इर्द-गिर्द बने रहे। पहली खेप ने जब शहर छोड़ा तो रुख उसी सिविल लाइंस की तरफ़ किया जो पढ़े-लिखे ऊँचे तबके के लोगों की रिहाइश के लायक साफ़-सुथरा इलाक़ा समझा जाता था। कोर्ट रोड, कमिश्नर लेन, फ्लैगस्टाफ़ रोड जैसी सड़कों के अब तक चले आ रहे नाम इसी मानसिकता की तरफ़ इशारा करते हैं।
उस इलाके के महत्त्व का अन्दाज़ा इस ऐतिहासिक घटना से लगाया जा सकता है कि जब 12 दिसम्बर, 1911 को प्रस्तावित भव्य ‘दरबार’ के लिए रानी मेरी के साथ जॉर्ज पंचम भारत पधारे, तो और तमाम बातों के अलावा उन्होंने इस अवसर पर देश की राजधानी को कलकत्ता से बदलकर दिल्ली लाने के फैसले की घोषणा की। कलकत्ता के यूरोपियन व्यापारियों के अलावा लॉर्ड कर्जन और महात्मा गांधी ने भी उनके इस इरादे का यह कहकर विरोध किया कि ऐसा करना फ़िजूलखर्ची होगी। इसके बावजूद अपने इरादे की पुख्तगी के बतौर जॉर्ज पंचम और रानी ने दरबार-स्थल के पास दो पत्थर रखकर प्रस्तावित नए शहर का शिलान्यास कर दिया और वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने राजा की इच्छा को आकार देने की ठान ली। दरअसल वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की तीव्र इच्छा थी कि यह योजना उनके कार्यकाल में पूरी हो जाए, इसलिए इसके बारे में जितनी जल्दी सम्भव हो सके, फैसले ले लिए जाएँ।
जगह का चुनाव करने से पहले कुछ ऐसी आशंकाओं को दूर करना ज़रूरी था जो गहरे तक जमी थीं। उदाहरण के लिए यह व्यापक विश्वास था कि यमुना का तटवर्ती इलाक़ा मच्छरों से भरा है और ब्रिटिश-स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक साबित होगा। जब किंग्सवे कैम्पवाले स्थल को नापसन्द और नामंजूर किया गया तो छोटे होने के अलावा एक ज़्यादा बड़ी वजह यह भी थी कि ब्रिटिश लोगों की नज़र में वह गन्दगी-भरे पुराने शहर के बहुत करीब था।
वर्तमान कैंट के इलाक़े पर विचार करने के बाद उसे भी नामंजूर कर दिया गया। इसलिए कि इस इलाके को भी मलेरिया-ग्रस्त समझा जाता था। दूसरी आशंका यह थी कि प्रस्तावित गवर्नमेंट हाउस-सरकारी इमारतों में जिसकी स्थिति केन्द्रीय थी, ‘रिज’ की चोटी पर बनाए जाने पर भी, नई राजधानी के अलग-अलग हिस्सों से अच्छी तरह दिखाई नहीं देगा। लॉर्ड स्टेमफोर्डडम ने वायसराय को स्पष्ट चेतावनी दी थी कि ‘गवर्नमेंट हाउस’ किसी सूरत में जामा मस्जिद और लालकिले की तुलना में नाटा नहीं दिखना चाहिए। आगे चलकर समतल ज़मीन से घिरी रायसीना पहाड़ी इस दृष्टि से आदर्श साबित हुई। पुराने किले के निकट होने के कारण उसने ब्रिटिश और पूर्ववर्ती साम्राज्य के बीच एक प्रतीकात्मक सम्बन्ध भी मुहैया कर दिया जिसकी निर्माताओं को अपेक्षा थी। अमूमन राजनीतिज्ञों की तरह, हार्डिंग ने इस चुनाव का श्रेय ख़ुद ले लिया। योजना को कार्यान्वित करने के लिए अगले वर्ष यह ज़िम्मेदारी लन्दन काउंटी कौंसिल के कैप्टेन स्विटन को सौंप दी गई। उन्होंने रॉयल ब्रिटिश इंस्टीट्यूट ऑफ आर्किटेक्ट्स से मशविरा करके इस काम के लिए एडविन लैंडसिअर ल्यूटन का नाम प्रस्तावित किया। ल्यूटन ने अपने साथ के लिए हर्बर्ट बेकर का नाम सुझाया। उनके साथ वे पहले दक्षिणी अफ्रीका में काम कर चुके थे।
उसी साल, दोनों वास्तुकारों और काउंटी के कुछ विशेषज्ञों को साथ लेकर कैप्टेन स्विटन ने दिल्ली का दौरा शुरू किया। जिस जगह शहर का शिलान्यास किया गया था, वह इस टुकड़ी को पसन्द नहीं आई। उन्होंने एकमत से राजधानी के लिए उसे नामंजूर कर दिया।
नए सिरे से उचित स्थल की खोज में निकले इन विशेषज्ञों ने रायसीना की पहाड़ी के पास बसे मालचा गाँव को चुना। इस घटना का बयान गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने इस तरह किया है: “मालचा गाँववाली जगह को नापसन्द करने के बाद मैंने घोड़े पर सवार होकर, दिल्ली के कमिश्नर हेली को साथ लिया। हम लोग मैदान में सरपट दौड़ते हुए कुछ दूरी पर स्थित रायसीना की पहाड़ी पर जा पहुँचे जो किसी समय महाराजा जोधपुर की मिल्कियत थी। पहाड़ी की चोटी से पुराने किले और हुमायूँ के मकबरे जैसे स्मारकों तक फैला दृश्य अद्भुत था। दूर से चाँदी की तरह झिलमिलाती यमुना की धारा का अन्तिम सिरा नज़र आ रहा था। मैंने कहा, गवर्नमेंट हाउस के लिए सही जगह यही है। हेली मेरे कथन से तत्काल सहमत हो गए। ल्यूटन और बेकर भी हमसे पहले ही गर्मियों में एक दिन हाथी की सवारी करते हुए रायसीना हिल को देखकर पसन्द कर चुके थे।” परियोजना के बारे में आखिरी रिपोर्ट 20 मार्च, 1913 को तैयार करके सौंप दी गई। यह बात अलग है कि उसमें बाद में भी कई परिवर्तन किए गए। एक महत्त्वपूर्ण कारण था खर्च में यथासम्भव कटौती। औपनिवेशिक सत्ता को यह बोध था कि इस परियोजना में भारतीय पैसे का जो खर्चा होना था, उससे भारत के कृषिक या औद्योगिक विकास में कोई प्रगति नहीं होनेवाली थी। तय किया गया कि पहाड़ी की खुदाई से जो पत्थर निकलेगा उसका उपयोग भवन के निर्माण में किया जाएगा और जहाँ खुदाई होगी उस खाली जगह पर एक विशाल रंगशाला बनाई जाएगी।
वायसराय और राजा, दोनों की राय थी कि राजधानी का निर्माण परम्परागत भारतीय शैली में होना चाहिए। अतः बेकर और ल्यूटन ने भारतीय वास्तुशिल्प की जानकारी हासिल करने के लिए दक्षिण की ओर कूच किया। वहाँ की इमारतों, हिन्दू मन्दिरों, उनकी मूर्तिकला, और महलों की देख-परख करने के बाद वे साँची, माँडू, ताजमहल (आगरा) से बीकानेर होते हुए लौटे। यात्रा खत्म होने तक उन्हें यह यक़ीन हो गया था कि वस्तुतः किसी ऐसी वास्तुकला का वजूद ही नहीं है जिसे वास्तुशिल्प की ठेठ भारतीय परम्परा कहा जा सके। उन्होंने अपनी राय का स्पष्ट इज़हार कर दिया। उनकी यह धारणा एक हद तक सही भी थी। हम विश्व में किसी से भी होड़ ले सकनेवाले किले बनाना जानते थे। हमारे पास शाही ठाठ से रहने के लिए राजघरानों के रिहाइशी महल बनाने की कला भी थी। हमें उनके लिए मकबरे बनाने भी आते थे और मस्जिद-मन्दिर जैसे धार्मिक स्थलों के निर्माण में भी हम पारंगत थे। पर हमें ऐसी इमारतों के निर्माण का अनुभव नहीं था जिनमें संसद और विधान सभाओं की बैठक की जा सके। हमने न कभी अदालतें बनाई थीं और न ही सरकारी नौकरों के लिए दफ़्तर और क्वार्टर। यह विचार ही हमारे लिए नया था। हमारे यहाँ दरबार-ए-आम और दरबार-ए-खास का चलन था पर वे महज़ दरबार होते थे, इमारतें नहीं।
ल्यूटन का निश्चित मत था कि यूरोपीय अभिजात्यवादी शैली में जेकोबियन मज़बूती के मेल से इमारतों का निर्माण किया जाए जो मूल रूप में उसके अंग्रेज़ी देहात के घरों की शैली थी। उसने भारतीय वास्तुकला की हर शैली के निवेश का विरोध किया। ल्यूटन की नज़र में भारतीय वास्तुशिल्प, पश्चिमी मानस के लिए बहुत बोझिल था। उसमें समन्वय की कमी, उसे उबाऊ लगती थी। हिन्दू वास्तुशिल्प को वह महज़ जोड़-जाड़कर मुलम्मा चढ़ाने की कला समझता था। उसने यह तो स्वीकार किया कि उसमें आकर्षक पच्चीकारी है पर इस कला का श्रेय भी उसने इतालवी प्रभाव को दे दिया। जब वह शहर का नक्शा बना रहा था, तो उसकी ज्यामितिक रूपरेखा के रास्ते में अनगिनत गढ़, मस्जिदें और कब्रें- उसी के शब्दों में- ‘अनकेअर्ड न्यूसेंसेज’ पड़ीं। दिल्ली की मस्जिदों के गुम्बद उसे शलगमों की याद दिलाते थे।
वायसराय लॉर्ड हार्डिंग को यह एहसास परेशान कर रहा था कि नई दिल्ली के निर्माण पर होनेवाला खर्च भारतीय राजस्व से किया जाएगा। वह इस विषय में भारतीय जनमत को अहमियत देना भी ज़रूरी समझता था। उसने इसलिए कलाओं के मिले-जुले प्रयोग का प्रस्ताव किया। हर्बर्ट बेकर का झुकाव भारतीय शिल्प के प्रति अधिक था। उसे लगता था कि यदि स्तम्भों का बहुतायत से उपयोग किया जाए तो उससे सब सन्तुष्ट भी हो जाएँगे और वह काफ़ी हद तक क्लासिकी कला भी होगी। उन्होंने बाहरी दिखावट को भारतीय रंग देने के लिए तीन आकृतियों का चयन किया-छज्जा, जाली और छतरी। शेष लगभग समूचा ब्रिटिश वास्तुकला के अनुरूप था। अन्ततः पश्चिम की क्लासिकी वास्तुकला के रूप और अनुपात में राजपूत और मुगल शैली के अलंकरण का मेल करके इन इमारतों का निर्माण मिश्र शैली में करने का फैसला किया गया। यह बात अलग है कि इनके अलंकरण पर हाथ खोलकर खर्च हुआ। उदाहरण के लिए राष्ट्रपति भवन की बाहरी दीवारों पर खुदाई से बड़ी संख्या में कमल, सर्प, हाथी, वृषभ, घंटे जैसी आकृतियाँ बनाई गई हैं। सबसे अधिक आहत करनेवाली बात वह लेख है जिसे 1925 में, नार्थ ब्लाक के मेहराबदार दरवाज़े पर खोदा गया था। स्वातन्त्र्योत्तर मानसिकता को, इसमें निहित साम्राज्यवादी नीयत बहुत साफ दिखाई पड़ती है :
“स्वतन्त्रता ख़ुद-ब-खुद जनता पर अवतरित नहीं होती, जनता को अपने आप ऊपर उठकर स्वतन्त्रता तक पहुँचना होता है। वह एक ऐसा वरदान है, जिसका भोग अर्जित करने के बाद ही किया जा सकता है।”
इस पूरे प्रसंग से जुड़ी एक मार्मिक घटना को बेकर ने भी कलमबन्द किया है। बरसात में वह अपने कुछ मित्रों के साथ घुड़सवारी करते हुए रायसीना पहाड़ी की चोटी पर पहुँचा। वर्षा की झड़ी में वे वहाँ खड़े थे। सामने ध्वस्त नगरों, कब्रों और स्मारकों के खंडहर दूर तक फैले थे। वीरानगी के उस नज़ारे ने उसके मन में असमंजस पैदा कर दिया कि एक नया नगर बसाने के लिए उस जगह का चुनाव करके कहीं उन्होंने गलती तो नहीं की। तभी अचानक बारिश रुक गई, बादल छूट गए और आकाश में एक विराट इन्द्रधनुष की छटा, उस छोर तक छा गई जहाँ अब इंडिया गेट खड़ा है। उसने इसे अच्छा सगुन मानकर वहाँ से प्रस्थान किया।
नए शहर का काम आगे बढ़ाया जाता, इसके पहले ही विश्व युद्ध छिड़ गया और योजना चार वर्ष के लिए स्थगित करनी पड़ी। सन् 1919 के बाद काम फिर शुरू किया गया। ल्यूटन उस समय बयालिस वर्ष का था। योजना के अनुसार पहाड़ी को खोदकर रंगशाला का निर्माण करना था और खुदाई से निकलनेवाले पत्थर का उपयोग वायसराय के निवास और सचिवालय की दोनों इमारतों के लिए होना था। ल्यूटन को बहुत जल्दी बोध हो गया कि उस पहाड़ी का पत्थर इस काम के लिए उपयुक्त नहीं है। इसके लिए विंध्याचल के पहाड़ों और मध्य भारत के दूसरे स्थलों से वही पत्थर मँगाना होगा जिसका इस्तेमाल मुग़लों ने किया था। इसके अलावा मकराना और जयपुर से संगमरमर और धौलपुर से भी वहाँ का पत्थर लाया जाना था। स्थिति में इस बदलाव से उनका सारा हिसाब-किताब गड़बड़ा गया।
ल्यूटन की मूल योजना हुमायूँ के मकबरे के पीछे यमुना पर बाँध बाँधकर एक विशाल ताल बनाने की थी ताकि उसके चारों तरफ़ नदी का तटवर्ती पथ बनाया जा सके। ल्यूटन को इस बात से बहुत तकलीफ़ हुई कि जहाँ ताल बनाया जाना था, उसकी जगह स्पोर्ट्स स्टेडियम बनाया गया। उनके बनाए डिज़ाइन में किंग्सवे (वर्तमान राजपथ) को भी सीधे पुराने किले के प्रवेश द्वार तक निर्वाध रूप से जाना था। उसके बीच इंडिया गेट और छोटे से स्मारक के अलावा और किसी इमारत की कल्पना नहीं की गई थी। इसके अलावा वह यह भी चाहता था कि सचिवालय के दोनों तरफ़ से सीधी सड़कें निकाली जाएँ जो जामा मस्जिद के दक्षिणी द्वार पर जाकर खत्म हों।
वह लालकिले के दिल्ली गेट के सामने एक विशाल चौराहा बनाना चाहता था। इनमें से एक सड़क जामा मस्जिद से चलकर यमुना के एक भव्य घाट तक जाकर खत्म होती। इस सड़क के दाहिनी तरफ़ दरियागंज था। उस समय उस पर बड़ी संख्या मिलिटरी से सम्बन्धित इमारतों की थी। उसका विकास नए सिरे से एक आकर्षक शहरी क्षेत्र के रूप में किया जाना था।
नदी-बाँध-योजना खर्च के कारण निरस्त करनी पड़ी और जामा मस्जिद तक जानेवाली सड़क इसलिए कि उसके बीच में गुरुद्वारा रकाबगंज आ गया और सिखों ने इसकी इजाज़त नहीं दी। पूरे बाज़ार को खरीदकर उसके बीच से सड़क निकालने का खर्चा हद से ज़्यादा होने की आशंका अलग थी। अतः लॉर्ड हार्डिंग ल्यूटन की ऐसी तमाम योजनाओं को खर्च के नज़रिए से नामंजूर करते चले गए। उनकी इस हरकत को लक्ष्य करते हुए ल्यूटन ने टिप्पणी की कि वायसराय सिर्फ अगले तीन साल के बारे में सोच रहे हैं और मैं तीन सौ सालों के बारे में।
बहरहाल, ल्यूटन को कई समझौते करने पड़े। इस विषय पर उनके और बेकर के बीच हुआ विवाद भी बहुत चर्चित हुआ। ल्यूटन चाहता था कि वायसराय भवन सचिवालयों से कुछ ऊँचाई पर बने। उसका तर्क था कि राज्याध्यक्ष को सरकारी कर्मचारियों से ऊँचाई पर रहना चाहिए। बेकर ने इनकार करते हुए तर्क दिया कि जनतन्त्र के तत्कालीन माहौल में शासक और उसके सरकारी कर्मचारियों को बराबर ऊँचाई पर होना चाहिए। वायसराय और जॉर्ज पंचम ने बेकर के विचार को रज़ामन्दी दे दी। उसके बाद विजय चौक से राष्ट्रपति भवन और सचिवालयों के बीच के ढाल को लेकर विवाद छिड़ गया। ल्यूटन की इच्छा थी कि वह ऐसे खड़े कोण से बनाया जाए ताकि राष्ट्रपति भवन दूर से ही, नीचे से ऊपर तक एक बार में ही नज़र आ सके। बेकर का कहना था कि ढाल खड़ा नहीं, हलकी गोलाई लिए होना चाहिए। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वायसराय निवास एक ही नज़र में नीचे से ऊपर तक दिखाई देता है या नहीं। इस बार भी विजय बेकर की ही हुई। इस घटना के बाद दोनों वास्तुशिल्पियों के बीच बोलचाल भले ही बन्द हो गई, पर नगर-निर्माण के काम में रुकावट नहीं आई।
उस वक़्त बस्ती के नाम पर, वीरानगी के बीच सिर्फ़ बाइस भट्ठे थे जिनमें इमारतों में काम आनेवाली ईंटें बनती थीं। इम्पीरियल देहली रेलवे नाम की एक छोटी लाइन की गाड़ी बदरपुर से कनॉट प्लेस तक रेत, पत्थर और निर्माण में काम आनेवाला दूसरा सामान ढोकर निर्माण-स्थल तक पहुँचाया करती थी। लगभग तीस हज़ार मज़दूर जिनमें बड़ी संख्या राजस्थानियों की थी, एक साथ इस योजना को कार्यान्वित कर रहे थे। इनके अलावा कुछ लोग पंजाब से आए थे और कुछ संगतराश मिस्त्री थे जिनके बारे में कहा जाता है कि वे उन लोगों के वंशज थे जिन्होंने ताजमहल बनाया था। वे सब केर्न नाम के एक स्कॉट राज मिस्त्री की देख-रेख में काम कर रहे थे।
ऐसे कई परिवार जो इस शहर को बनाने में लगे थे, ओल्ड मिल रोड (अब रफ़ी मार्ग) नाम की सड़क पर बसे थे जो पार्लियामेंट हाउस के बाहरी गिर्दे के साथ-साथ घूमती थी। जहाँ अब एक मस्जिद और भारत के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की क़ब्र है।
दिन भर धड़धड़ाती आरा मशीनों का शोर जब शाम ढलने पर बन्द होता तो पुरुषों का आठ आने, महिलाओं का छह आने और बच्चों का चार आने की दर से भुगतान कर दिया जाता था। रहने की जगह और पीने का पानी मुफ्त था। दिन भर की मेहनत के बाद लौटती मज़दूर-स्त्रियों की टोली के लहराते लहंगों और मस्ती भरे समवेत गायन से पूरा वातावरण सजीव हो उठता था। खाने के लिए अलबत्ता वही रूखी-सूखी रोटियाँ, कभी-कभी साथ के लिए सिर्फ नमक-मिर्च ।
यह बात अलग है कि खुशहाली ने बनानेवालों की जगह बनवानेवालों का रास्ता पकड़ा। बहुत जल्दी सीमेंट, पत्थर और ईंटों के बचे हुए स्टॉक से ठेकेदारों ने अपने लिए उस सड़क पर बड़े-बड़े भवन बनवा लिए जो अब जन्तर-मन्तर रोड कहलाती है। इन्हीं के बीच नामी ठेकेदार सरदार शोभा सिंह का, जिन्हें बाद में ‘सर’ के खिताब से नवाज़ा गया, ‘बैकुंठ’ नाम का बँगला था। इसी इमारत में अब ‘केरल हाउस’ है। मशहूर पत्रकार ओर लेखक खुशवन्त सिंह इन्हीं सर शोभा सिंह के चश्मे-चिराग़ हैं जिनका बचपन और जवानी (बकलम ख़ुद) इसी बँगले में गुजरा।
शहर धीरे-धीरे आकार ले रहा था। 1922 तक निर्माण की सारी सामग्री जुटा ली गई थी। चार-पाँच साल के भीतर ही लोगों ने बियाबान के बीच से एक नए शहर को उभरते देखा। ल्यूटन हर बात की तफ़सील पर बड़ा ध्यान दे रहा था। सड़कों की निशानदेही करते ही उसने विशेषज्ञ को बुलाकर एक नर्सरी स्थापित की जो आज भी हुमायूँ के मकबरे की बग़ल में मौजूद है। पेड़ों की पाँच सौ क़िस्में आस्ट्रेलिया, पूर्वी अफ्रीका, और देसी स्रोतों से इकट्ठी की गई। सड़कों के बनने के साथ-साथ ल्यूटन किनारों पर पेड़ों के रोपने की व्यवस्था करता जाता था।
अगर आज नई दिल्ली की ख्याति संसार की हरी-भरी राजधानियों में की जाती है तो इसका श्रेय उसी को जाता है। यह बात अलग है कि पेड़ों की किस्मों का चुनाव बहुत सही नहीं था पर सड़कें छायादार थीं और अब तक हैं।
योजना के अनुसार दिल्ली (अंग्रेज़ों की दिल्ली) शहर का निर्माण चार-पाँच वर्ष में पूरा होना था, मगर हुआ सोलह वर्ष में। सन् 1929 तक मुख्य इमारतें तैयार हो गईं। उस समय लॉर्ड इरविन वायसराय थे। तय किया गया कि औपचारिक उद्घाटन किया जाए। लन्दन काउंटी कौंसिल के कैप्टेन स्विन्टन यह देखने के लिए एक बार फिर पधारे कि उनकी योजना ने कैसा रूप ग्रहण किया है। देखकर उन्होंने दर्ज किया: “सबकी आँखों के सामने वायसराय-भवन, शाही शानो-शौकत के साथ सिर उठाए खड़ा है। हम उसे देखते हैं, उसके होने का यक़ीन करते हैं और चमत्कृत होते हैं।” स्विन्टन की इस उमंग के सभी सहभागी हों, ऐसा नहीं था। बिवरले निकल्स ने भारत के बारे में अपनी पुस्तक में, छतरियों और ऐसी दूसरी विशेषताओं को लक्ष्य करके इसकी वास्तुकला के बारे में लिखा था कि वह ‘फेंसी ड्रेस में ब्रिटिश मेट्रन’ जैसा दिखाई दे रहा था।
सरकारी अफसरों और कर्मचारियों की रिहाइश का भूगोल पूरी तरह औपनिवेशिक मानसिकता से तय किया गया था। कुछ दक्षिण की ओर वरिष्ठ राजपत्रित अफ़सरों के एक मंज़िले बड़े-बड़े बँगले बनाए गए। उसी दिशा में कुछ और आगे बढ़कर संयुक्त सचिवों के आवास बने। डिप्टी, और अंडर सेक्रेटरियों के अलावा रजिस्ट्रार और सुपरिंटेंडेंट पद के अधिकारियों को रेलवे स्टेशन और सचिवालय के बीच के क्षेत्र में आबाद किया गया। इनके बाद उच्च पदों के यूरोपियन क्लर्कों को। डाक-तार विभाग, आपूर्ति विभाग, और नई दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के भारतीय अफसरों को गोल डाकखाने के आसपास जगह दी गई और भारतीय क्लर्कों को कुछ और दूर हटकर। चपरासी, धोबी और सफ़ाई कर्मचारियों को इस नए शहर के आखिरी सिरे पर बसाया गया। केन्द्र के क़रीब, किंग्सवे (अब राजपथ) पर बड़ी रियासतों को स्थान मिला। धनाढ्य भारतीयों को, जिनमें छोटी रियासतों को भी शामिल कर लिया गया, कनाट प्लेस से निकलनेवाली सड़कों पर प्लाट आबंटित कर दिए गए। ब्रिटिश और भारतीय व्यापारियों को भी नई दिल्ली में आवास की सुविधा दी गई पर ज़रा दूरी पर। यह एकदम साफ़ था कि नई राजधानी का लक्ष्य शासन करना है।
बारीकी से सौपानिक-क्रम के अनुसार क्षेत्रों का आबंटन गोकि सभी औपनिवेशिक शहरों की विशेषता रही है जिसके उदाहरण फ्रांसीसियों द्वारा बनाए गए ‘हनोइ’ में, अमेरिकियों द्वारा निर्मित ‘मनीला’ में और ब्रिटिश-निर्मित ‘लुसाका’ में दिखाई पड़ते हैं। पर नई दिल्ली में जिस हद तक जाति और पद क्रम के अन्तर का ध्यान रखा गया, वह अभूतपूर्व था। लोगों के पते से न केवल उनकी व्यावसायिक हैसियत का, बल्कि उनके घर और बगीचे के माप का, सड़क की चौड़ाई का, और इस बात का बोध भी हो जाता था कि अफ़सर ब्रिटिश है या भारतीय ।
इम्पीरियल बस्तियों के नक्शे ज्यामितिक दृष्टि से ऐसे बनाए जाते थे कि उनके माध्यम से ब्रिटिश बौद्धिकतावाद की श्रेष्ठता साकार रूप में व्यक्त हो सके । अंग्रेज़ों को भारतीय नगरों का, विशेषकर शाहजहाँनाबाद का वातावरण जन-संकुल और अव्यवस्थित लगता था। वे नई राजधानी को सायास उससे भिन्न स्वरूप देना चाहते थे। उसमें बड़े-बड़े चौक और सीधी सड़कें, सभ्यता की उत्कृष्टता के प्रदर्शन की दृष्टि से बनाए गए। इस प्रभाव की बढ़ोतरी के लिए उन्होंने विशेष क्लासिकी भंगिमावाले ढलान और मेहराब बनाए। इंडिया गेट जिसे स्वतन्त्रता-पूर्व दौर में ‘ऑल इंडिया वार मेमोरियल आर्च’ कहा जाता था, ऐसी ही भव्य निर्मिति है, जिस पर प्रथम विश्व युद्ध में खेत हुए भारतीय सैनिकों के नाम अंकित हैं। इसका डिज़ाइन ल्यूटन ने स्वयं बनाया था।
ठीक इसी तरह वास्तुकला की क्लासिकी शैली में; विजय के स्मारक (कुतुब मीनार की तर्ज पर) के रूप में गवर्नमेंट हाउस के सामने विशाल चौक में जयपुर स्तम्भ बनाया गया। इस स्तम्भ के उपलब्ध आरेख इस बात का प्रमाण हैं कि इसे बनाते समय ल्यूटन के मन में रोम के त्राजन-स्तम्भ का आदर्श था। अलबत्ता, इस स्तम्भ पर लगे शिलालेख की इबारत ध्यान देने लायक है। यह ल्यूटन द्वारा प्रस्तावित मूल पाठ का वायसराय इरविन द्वारा किया गया संक्षिप्त रूप है : ‘विचारों में आस्था, वाणी में विवेक, आचरण में साहस, जीवन में त्याग-भारत की महानता की यही पहचान रहे।’
जब नई दिल्ली बियाबान बंजर थी तब सरदार सोभा सिंह ने, जहाँ अब करोलबाग है वहाँ की ज़मीन दो आना प्रति वर्ग गज़ के हिसाब से और कनॉट प्लेस का इलाक़ा दो रुपए प्रति वर्ग की दर से खरीदा था, वह भी फ्री-होल्ड (बकलम खुशवन्त सिंह)। उन्हीं ने कनॉट प्लेस में वह पहली इमारत बनाई जिसमें पेस्ट्री की मशहूर दुकान ‘वेंगर्ज़’ है। आज भी उस पर ‘सुजान सिंह ब्लाक’ के नाम की लाल पत्थर की पटिया लगी है। शुरू में ‘फ्राम्ज़ीज’ नाम से एक पारसी परिवार
वहाँ सिगार, चॉकलेट और शराब बेचता था, बाद में उसे ‘वेंगर्ज़’ ने ले लिया। सोभा सिंह ने ही दिल्ली में ‘रीगल’ नाम का पहला सिनेमा हॉल बनाया और ‘रिवोली’ नाम से दूसरा। शुरू में परिवार ने खुद ही इन्हें चलाने की कोशिश की। गोकि आलम यह था कि कभी-कभी पूरे रीगल हॉल में सिर्फ दस लोग होते थे और ऐसी सूरत में मालिकों को मिन्नत करके दर्शकों के पैसे लौटाने पड़ते थे ताकि फ़िल्म दिखाने पर होनेवाले खर्च के घाटे से बचा जा सके।
साउथ-ब्लॉक भी सोभा सिंह ने ही बनाया था। उस समय पी.डब्ल्यू.डी. के पहले चीफ़ इंजीनियर तेजा सिंह मलिक थे। साउथ-ब्लाक के एक आले में एक तरफ़ निर्माताओं में सोभा सिंह, धर्म सिंह, बैसाखा सिंह के साथ चार-पाँच और नाम हैं और दूसरी तरफ़ वास्तुशिल्पियों में ल्यूटन और बेकर के साथ इंजीनियर तेजासिंह मलिक का नाम लिखा है। इन्हीं तेजा सिंह मलिक की बेटी के साथ सर सोभा सिंह ने अपने बेटे खुशवन्त सिंह की शादी की थी।
मूल योजना के कार्यान्वित होते-होते दो दशक बीत गए। अन्ततः राजधानी के रूप में नई दिल्ली का औपचारिक उद्घाटन 1931 में हुआ। इस बीच अंग्रेज़ हुक्मरानों के लिए 112 रिहाइशी बँगले बन चुके थे जिन्हें अब ‘ल्यूटन्स ज़ोन’ कहा जाता है। इन्हीं बँगलों के अलावा साठ एकड़ ज़मीन घेरकर चीफ कमांडर के लिए 105 कमरों का ‘फ्लैगस्टाफ हाउस’ बनाया गया, जिसके चारों तरफ़ नीम के पेड़ों से घिरे विराट मैदान थे। इनमें आज भी गुलाब की क्यारियों में लाल- सफ़ेद गुलाब खिलते हैं। इसी बँगले में स्वाधीन भारत के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू का निवास था। अलबत्ता नाम बदलकर ‘तीन मूर्ति भवन’ हो गया था। अब उसमें नेहरू स्मारक लाइब्रेरी है। इनके अलावा राउज एवेन्यू में बनाए गए बँगले भारतीय अफसरों के लिए थे। जिन इलाक़ों की निशानदेही केवल भारतीयों के लिए की गई, उनका डिज़ाइन कुछ अलग था, जो बनानेवालों की समझ से अधिक ‘भारतीय’ था। नई दिल्ली के निवासियों की सुविधा के लिए कनॉट प्लेस नाम का बाज़ार भी बन चुका था। इस आर्केड का नक़्शा ल्यूटन के सहयोगी आर.टी. रसेल ने बनाया था और निर्माण जयपुर की एक जागीर पर हुआ था जिसका नाम माधोपुर था। कनॉट प्लेस के सिनेमाघरों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हो गई थी। ‘ओडियन’ और ‘प्लाज़ा’ के अलावा रीगल के ऊपर ‘डेविकोज’ नाम की एक और पेस्ट्री की दुकान खुल गई थी जिसने धीरे-धीरे रेस्तराँ का रूप ले लिया। इन तमाम स्थानों के नाम विलायती तर्ज पर रखे गए थे, जो आज तक बरकरार हैं।
सवाल नामों का नहीं, अंग्रेज़ी भाषा और अंग्रेज़ियत के दबदबे का था। पूरे माहौल में जो सुरुचि और व्यवस्था व्याप्त रहती थी, आज उसका अन्दाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता। मिंटो रोड का पुल पार करते ही जैसे एक अलग दुनिया का द्वार खुल जाता था। तमाम दुकानें और डिपार्टमेंटल स्टोर। उन्हीं के बीच यूरोप के ऊँची श्रेणी के टेलर फैल्यूस और रैनकिंस । आर्मी-नेवी स्टोर्स, जो महिलाओं के ऊँची क़िस्म के कपड़ों और बढ़िया शराब के साथ ‘मैकेनो’ और हॉर्नबी की मॉडल रेलगाड़ियों जैसे खिलौने भी बेचते थे।
इसके अलावा क्वींजवे (अब जनपथ) का मशहूर इंडिया कॉफी हाउस था, जो दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति (1945) तक हर समय अमेरिकन फौजियों से भरा रहता था। बाद में लम्बे समय तक यह लेखकों और पत्रकारों का बड़ा प्रिय मिलन स्थल/अड्डा बना रहा। कनॉट प्लेस इलाके के शोरगुल और मौज-मस्ती से भरे जीवन की उन्मुक्त उपस्थिति का यह एकमात्र स्थल था। यहाँ तक कि युद्ध के दौरान शरीफ़ लोग, विशेषकर महिलाएँ उस तरफ़ जाने से कतराती थीं।
बाक़ी पूरा इलाक़ा लगभग ट्रैफिक मुक्त क्षेत्र था जिसमें ऑस्टिन और मॉरिस जैसी गिनती की गाड़ियों के बीच अपवाद रूप में कोई रोल्स-रायस गुज़र जाती थी। शहर, यानी पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के बीच यातायात के गिने-चुने साधनों में समृद्ध लोगों के निजी वाहन मुख्य रूप से बग्धियाँ या ताँगे थे। या फिर किराए के ताँगे थे जिनके चालक, चाँदनी चौक में फ़व्वारे या हौज काज़ी से चार आने की सवारी या एक रुपए में पूरे ताँगे की दर से रीगल तक सवारियाँ ले जाते थे। टीन के कनस्तरनुमा बसों की एक तथाकथित बस सर्विस भी थी जिसके रुकने के स्टाप प्रायः कनॉट प्लेस के सिनेमाघर होते थे- रीगल, ओडियन और प्लाज़ा। कहना न होगा, ये बसें समय के लम्बे वक्फ़ों से लगभग अधभरी और अधमरी रफ़्तार से चलती थीं। वर्तमान राजपथ पर सन्नाटा ऐसा कि उस पर यदा-कदा घोड़े की टाप और बाइसिकल की चूँ-चपर की आवाज़ तक साफ़ सुनाई पड़ती थी। सत्ता-संचालन के लिए वायसराय निवास, नॉर्थ और साउथ ब्लाक और पार्लियामेंट हाउस की स्थिति केन्द्रीय थी। बाक़ी भूगोल का निर्धारण इसी सत्ता- पीठ के इर्द-गिर्द इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने की गरज़ से किया गया। खरीदारी, मनोरंजन, चिकित्सा, नौकरशाही, धर्म-स्थल, संचार जैसी ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए बाज़ार, सिनेमाघर, अस्पताल, सरकारी क्वार्टर, गिरजे, यहाँ तक कि बिरला मन्दिर जैसी तमाम इमारतें देखते-देखते वजूद में आ गईं।
सत्ता के गलियारों से नज़दीकी कायम रखने की दृष्टि से रजवाड़ों ने इंडिया गेट के गिर्दे में आबंटित भूमि पर हैदराबाद हाउस, बड़ौदा हाउस, बीकानेर हाउस जैसे तमाम विशाल भवनों का निर्माण करा लिया था। इन इमारतों पर गुम्बज, छज्जे, छतरियों और स्तम्भवाली वास्तुकला का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। नई दिल्ली के निर्माण में ल्यूटन दो विशेषताओं के लिए हमेशा याद किए जाएँगे। छायादार सड़कों के संजाल की कल्पना और कार्यान्वयन के लिए और ऐसी इमारतों के लिए जिनमें दिल्ली की तपती गर्मियों में भी कूलर या एअर कंडिशनरों की ज़रूरत महसूस नहीं होती। ऊँची छतों और मोटी दीवारों वाली इन बची-खुची इमारतों में अब भी इस वास्तुकला के अवशेष देखे जा सकते हैं। बेतरह ठंडे मुल्क से आनेवाले इन वास्तुशिल्पियों ने भारत की असह्य गर्मी का तोड़ निकालने के लिए सम्भवतः भारत की हवेलियों की वास्तुकला पर ध्यान दिया होगा। पुराने ढंग की इमारतों में नीचे के तलों की स्थिति आज भी यही है। ऊपरी तलों में रोशनी और आर-पार वायु-संचार की व्यवस्था आँगन पर लोहे के जाल बिछाकर और बाहर की तरफ़ खुलते बड़े-बड़े खिड़की-दरवाज़ों से की जाती थी। परिवारों की ज़िन्दगी गर्मी में प्रायः तलघर में और सर्दी में छतों पर गुज़रती थी। ध्यान मौसम की रवायतों के नियन्त्रण पर नहीं, उसके अनुरूप ज़िन्दगी के अनुकूलन पर रहता था।