प्रधानमंत्री के नाम पर बैंक से 40 लाख रुपये निकालने की पेशकश

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।  

दिल्ली शहर की जिन्दगी में आपात्काल से पहले कोई अफरातफरी, भागदौड़ या विशेष बेकली नहीं पैदा हुई थी। तब भी नहीं जब सीमाओं पर पाकिस्तान के साथ छेड़-छाड़ की घटनाएं बराबर होती रहती थीं और तब भी नहीं जब भारतीय फ़ौजों ने बांग्ला देश के स्वाधीनता संग्राम में हस्तक्षेप करके निर्णायक भूमिका निभाई थी।

उल्लास, गौरव और आशंका की मिली-जुली मनःस्थिति से छोटे-बड़े समूहों में इस पर कुछ हफ्तों तक चर्चा होती थी और फिर सब कुछ जैसे का तैसा अपनी गति से चलने लगता था। इतना ज़रूर हुआ कि इस एक निर्णय से प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी का क़द बहुत ऊँचा हो गया। तत्कालीन प्रधानमन्त्री के प्रति अटूट विश्वास का अन्दाज़ा उस एक घटना से लगाया जा सकता है जिसका जन-स्मृति से अब पूरी तरह लोप हो चुका है।

एक दिन अचानक पूरे देश में, विशेषकर दिल्ली में ख़बर फैली कि ‘नागरवाला’ नाम के किसी व्यक्ति ने एक स्थानीय बैंक के किसी एकाउंट से प्रधानमन्त्री का हवाला देकर 40 लाख रुपए निकालने की पेशकश की।

उस समय यह रकम इतनी बड़ी मानी जाती थी कि बैंक के अधिकारियों को पूछताछ करना ज़रूरी लगा। प्रधानमन्त्री के स्रोतों से इस मांग की पुष्टि नहीं हुई, लिहाजा नागरवाला को हिरासत में ले लिया गया और पैसा सरकारी मालखाने में जमा कर दिया गया। पूरा शहर अटकलों से बजबजा रहा था।

अधिकांश लोगों का कहना था कि इस मामले में इन्दिरा गांधी शक के दायरे से बाहर नहीं हैं। पर पूछताछ के किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले ही किसी ने नागरवाला को गोली मार दी और पूरे कांड पर रहस्य का पर्दा पड़ गया।

इस ‘कांड’ को लेकर दो महत्त्वपूर्ण अफवाहें फैलीं। एक तो यह कि यह पैसा प्रधानमन्त्री ने बांग्ला देश की लड़ाई में सेनाओं पर होनेवाले खर्च के लिए निकलवाया था। ज़ाहिर है, तत्कालीन राजनीति के तकाज़े से इस उद्देश्य को उजागर नहीं किया जा सकता था।

दूसरी अफ़वाह यह थी कि इस मामले पर स्थायी रूप से पर्दा डालना। कहना न होगा आज तक जैसे कोई यह नहीं जानता कि वास्तविकता क्या थी, वैसे ही कोई यह नहीं मानता कि प्रधानमन्त्री के नाम पर यह रकम कैसे और क्यों निकाली गई?

बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम के प्रसंग में इन्दिरा गांधी की राजनीतिक समझ और साहस ने उनके प्रति प्रश्नातीत निष्ठा का माहौल पैदा कर दिया था। देश राजनीतिक दृष्टि से ऐसा आश्वस्त हुआ कि 17 दिसम्बर, 1971 को युद्ध विराम के बाद सात महीने के भीतर ही दोनों देशों के प्रधानमन्त्रियों-इन्दिरा गांधी और जुल्फिकार अली भट्टो के बीच जब 2 जुलाई, 1972 को शिमला समझौता हुआ, तो उस पर भी एक महीने के भीतर ही संसद ने रज़ामन्दी की मोहर लगा दी। इससे पहले 19 मार्च को बांग्ला देश के साथ मित्रता, सहयोग और शान्ति बनाए रखने के लिए एक समझौता हो चुका था। इसलिए पाकिस्तान के साथ शिमला समझौते को भारत के राजनीतिक इतिहास में मील का पत्थर मान लिया गया।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here