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पुरानी दिल्ली के गली-मोहल्लों में धड़कती जिंदगी

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली

Delhi: कभी पुरानी दिल्ली जाइए। तंग गलियां आपको आकर्षित कर लेंगी। पहले भी गली बंद और तंग थी। बीचोबीच एक खुली नाली बहती थी, जिसके दोनों तरफ़ चलने भर की जगह थी, इतनी कि एक बार में अगल-बगल दो नहीं सिर्फ एक ही आदमी चल सकता था। नाली पर अक्सर गली के दड़बेनुमा घरों का कोई बच्चा हाजत रफा करने के लिए इत्मीनान से बैठा नजर आता था। कहने को गली, पर असलियत में लगभग मोहल्ला, जिसमें बड़े रिहाइशी घर तो दो ही थे-आखिरी सिरे पर, आमने-सामने।

एक कुछ ज़्यादा बड़ा-लाला जौहरी मल का (फिलहाल सुविधा के लिए यही उनका असली नाम मान लेते हैं), दूसरा नत्थू कोढ़िए क़ा, जिसका पूरा नाम नत्थूमल था शायद। थे वे भी छोटे-मोटे सेठ ही। कपड़े की कोठी थी उनकी। तब थोक के व्यापारियों के ठिकाने या गदिदयां कोठी कहलाती थीं।

वैसे बँगलानुमा कोठियों से इनका कुछ लेना-देना नहीं था और यह कोठे या कोठा का स्त्रीलिंग भी नहीं था क्योंकि कोठा ‘बाई’ का होता था और कोठी थोक के व्यापारी सेठ की। बहरहाल, सेठ नत्थूमल ‘कोढ़िए’ इसलिए कहलाने लगे क्योंकि उनकी आधी त्वचा पर सफ़ेद दाग थे, जो उस समय कोढ़ कहलाते थे और छुतहा बीमारी का प्रकट रूप समझे जाते थे। वर्षों बाद इस छुतहेपन की भ्रान्ति से निजात मिली।

इस बात का जिक्र इसलिए करना ज़रूरी है कि दोनों परिवारों के आपसी सम्बन्धों में इसी एक वजह से घनिष्ठता नहीं बढ़ पाई। यूँ नत्थूमल की जवान बेटी के साथ सेठ जौहरी मल के तीसरे बेटे ने ऊपरी मंज़िल की खिड़की से आँख-लड़ौवल सम्बन्ध साध लिया था। गोकि ‘तेरे सामनेवाली खिड़की में इक चाँद का टुकड़ा रहता है’ वाला फ़िल्मी गीत तब तक रचा नहीं गया था। अलबत्ता इसका विभावन व्यापार गली-गली सम्पन्न होता नज़र आता था।

खिड़कियों-दरवाज़ों से, या गली से आते-जाते, ताक-झाँक करते हुए कमसिन उम्र के ऐसे प्रेम की पेंगें बढ़ाने का यह उस समय का अपना अन्दाज़ था, जो अक्सर परवान चढ़ने से पहले ही विफल होने के लिए अभिशप्त रहता था। पर नाबालिग पीढ़ी के बालिग होने की रफ्तार ऐसे सम्बन्धों की काल्पनिक मिलन और वास्तविक विरहानुभूतियों से कुछ तेज़ ज़रूर हो जाती थी। लाला जी, अपने नाम के अनुरूप शहर के बड़े नामी जौहरी थे।

दरीबा कलाँ की सबसे बड़ी, तीन दर की ज़ेवरात की दुकान के मालिक। दुकान चाँदनी चौकवाले सिरे से घुसते ही पाँच-सात दुकानें छोड़कर दाएँ हाथ पर थी। एक छोटी दुकान और भी थी-दो दर की, किनारी बाज़ार के ज़रा पहले, बाएँ हाथ पर। लाला जी ने दो दुकानें शायद कुनबे के विस्तार की दृष्टि से खोली थीं। कुछ बरस और जीते, और ज़्यादातर बेटे नालायक नहीं निकलते तो दुकानों का विस्तार ‘चेन स्टोर्स’ की शक्ल में होता। व्यापार-बुद्धि निश्चित रूप से अच्छी खासी रही होगी।

अपने सम्पन्न पिता के ग्यारह बच्चों में से यह अकेला जीवित बेटा किस कारण पिता से बगावत करके घर से भाग निकला, इसका कोई प्रामाणिक पाठ घरवालों के पास नहीं था। मालूम बस इतना था कि उसने घर से भागकर दरीबा कलाँ में ही किसी चाँदीवाले की दुकान पर चाँदी के बर्तन-जेवर धोने-चमकाने की नौकरी कर ली थी। उस नौकरी से जवाहरात के प्रतिष्ठित व्यापारी की हैसियत के बीच के सोपानों का जिक्र परिवार में लगभग वर्जित मान लिया गया था।

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