दिल्ली के कुछ गांव (village in delhi ncr) आज भी अपनी प्राचीन परंपराओं का निर्वाह कर रहें हैं भले ही इनका पूरी तरह से शहरीकरण हो गया हो। शहरीकरण की चकाचौंध में यह गांव वर्तमान समय में भी बुजुर्गों द्वारा स्थापित रीति-रिवाजों और परंपराओं को संजोए हुए हैं। पूर्वी दिल्ली स्थित ऐसा ही एक गांव हैं चिल्ला गांव।

प्राचीन रहा है गांव का इतिहास

दिल्ली-नोएडा बॉर्डर पर न्यू अशोक नगर के पास बसे चिल्ला गांव का इतिहास अपने आप में अनूठा रहा है। गांव के बुजुर्ग चौधरी ब्रहम सिंह बताते हैं कि चिल्ला गांव को बसे पांच सौ वर्षों से भी अधिक समय हो गया। इस गांव के लोगों ने देश की आजादी के लिए भी संघर्ष किया था। शहरीकरण के इस दौर में भी यहां के लोग आज भी पशुपालन व कृषि के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। गांव में ज्यादातर गुर्जर (डेढ़ा) समुदाय के लोग निवास करते हैं और दिल्ली में डेढ़ा समाज के लोगों के चौबीस गांव है। साथ ही इस गांव की लगभग दस हजार की आबादी में अन्य समाज के लोग भी मिल-जुलकर रहते हैं। सभी लोग सुख -दुख में एक दूसरे के यहां एकत्रित होते हैं और पूरा गांव एक परिवार की तरह एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हैं। गांव के एक छोर पर बसा परिवार यह बता सकता है कि गांव के दूसरे छोर पर बसे फलां परिवार के घर क्या सब्जी बनी है। संपूर्ण गांव एकता व भाईचारे के सूत्र में बंधा हुआ है।

प्राचीन शिव तथा राधा-कृष्ण मंदिर है ऐतिहासिक धरोहर

चिल्ला गांव के केंद्र में प्राचीन शिव मंदिर स्थित है। इस मंदिर का इतिहास भी वर्षों पुराना रहा है तथा इस मंदिर से पूरे गांव की आस्था जुड़ी हुई है। मंदिर परिसर में ही कई तरह के पेड़ लगे हुए हैं। चिल्ला गांव के शिव मंदिर के इतिहास के बारे में श्यामचंद बताते हैं कि वर्षों पहले बाबा मैंहकुलाल ने संक्रांति के दिन यहां पर भंडारे की परंपरा की शुरुआत की थी, जो आज तक कायम है। प्रत्येक वर्ष संक्रांति के दिन मंदिर में एक विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है। मंदिर में दो दिन तक चलने वाले इस आयोजन में गांव के लोग दूध, देसी घी, चावल आदि खाने-पीने की चीजों का दान करते हैं। साथ ही इसमें पूरे गांव के लोगों द्वारा आर्थिक सहयोग भी किया जाता है। भंडारे में हर वर्ष साधु-संत आते हैं जिनकी दान-दच्छिना व भोजन के उपरांत ही भंडारे का प्रसाद गांव वालों को वितरित किया जाता है। मंदिर परिसर में ही आज भी पानी का कुंआ स्थित है जिसे अब ढक दिया गया है। हितेंद्र डेढ़ा ने बताया कि गांव के मुख्य प्रवेश द्वार पर ही राधा-कृष्ण मंदिर स्थित है जिसमें संसार की अनेक नस्लों की दुर्लभ गायें देखी जा सकती हैं। राधा-कृष्ण मंदिर भी चिल्ला गांव की प्राचीन धरोहर का आधार रहा है। मंदिर परिसर में स्थित गौशाला में गायों की सेवा की जाती है।

अब भी पशुपालन व कृषि से जुड़े हुए हैं गांव के लोग

यमुना नदी के पास चिल्ला खादर में गांव के लोग वर्षों से खेती करते आ रहें हैं। शहरीकरण के वर्तमान समय में भी गांव के लोग आज भी अपने वर्षो पुराने व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। चिल्ला गांव में पशुओं के लिए जगह का अभाव व बहुमंजिला इमारतों की वजह से कुछ लोग अब अपने मवेशियों को यमुना नदी के तट पर खेतों में ही ले गए हैं और यही से दूध बेचकर व कृषि करके अपने परिवार का पालन पोषण कर रहें हैं। चिल्ला गांव के पास ही सरकारी रेडियो अनुसंधान केंद्र स्थित है इसमें काफी संख्या में मोर देखे जा सकते हैं। यहां पर भी कभी गांव के लोग खेती किया करते थे। इस केंद्र में आज भी गांव का प्राचीन कुआं देखा जा सकता है।

आज भी कायम है ग्रामीण परंपरा व रीति-रिवाज

भले ही आज दिल्ली के प्राचीन गांव शहरीकरण में आ गए हो परंतु आज भी इन गांवों में वर्षों पुरानी परंपराएं व रीति-रिवाज कायम है। चिल्ला गांव भी इनसे अछूता नहीं है। आज भी शादी-विवाह जैसे आयोजनों में गांव में प्रत्येक परिवार के यहां पर बुलावा देने की प्रथा जारी है। आज भी पूरे गांव की महिला मिल-जुलकर एक दूसरे के आयोजन में शरीक होती हैं। पारंपरिक लोक गीत गाती हैं और सामूहिक रूप में तीज महोत्सव जैसे आयोजनों का हिस्सा बनती है। गांव के बुजुर्गों के नेतृत्व में लोग आज भी पूरे गांव की गोवर्धन पूजा का हिस्सा बनते हैं। नवरात्रों व देवउठनी के दौरान संपूर्ण गांव की लड़कियां व महिला मोहल्लों की टोली बनाकर सामूहिक रूप में गीत व भजन गाती हैं। गांव की चौपाल पर छोटे-मोटे आयोजन किये जाते हैं यहां पर सामूहिक होली मिलन समारोह आयोजित किए जाते हैं।

पारंपरिक लिबास व देसी खानपान

इस गांव के बुजुर्ग सफेद रंग के कुर्ता-धोती पहनते हैं और महिलाएं आज भी सलवार, कमीज व ओन्ने ओढ़ती हैं। पुरानी चौपाल देने हालांकि नई पीढ़ी समय के साथ अब धीरे-धीरे कुछ बदलाव आ रहा है और गांव की बहुएं अब ओन्ने जैसे पारंपरिक परिधान के स्थान पर चुन्नी को भी तवज्जों देने लगी हैं। गांव में आज भी दूध, दही, देसी घी, छाछ, सरसों का साग, मक्खन व बाजरे के मलीदा जैसे देसी व्यंजन को खाने पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। गांव के अधिकतर घरों में मिट्टी के चूल्हे पर ही खाना बनाया जाता है क्योंकि घर के बुजुर्गों को केवल चूल्हे का खाना ही पसंद है।

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