सुल्तानों और मुग़लों के काल में आम लोगों का दिल्ली से बाहर का सफ़र नाममात्र का होता था। इसका सबसे बड़ा कारण सुविधाओं का अभाव था। केवल कुछ राजमार्ग थे और छोटी-छोटी नदियों पर पुल नहीं होते थे। फिर रास्ते में ठहरने का संतोषजनक प्रबंध भी नहीं होता था। इन कठिनाइयों को देखते हुए यात्रा सिर्फ़ गिरोह या क़ाफ़िले के रूप में बड़े साज-सामान और सुरक्षा व्यवस्था के साथ ही होती थी और यह सब कुछ सामान्य नागरिक के बस में नहीं था। 1666 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी के हिन्दुस्तान में तैनात एजेंटों ने कंपनी को यह रिपोर्ट भेजी थी, “सड़कों की स्थिति बहुत बिगड़ी हुई है और आम रास्तों की मरम्मत नहीं होती। लेकिन बैलगाड़ियों के पहिए और इसी प्रकार की दूसरी सवारियाँ सड़कों को बुरी तरह तोड़ देती हैं जो यात्रा को अत्यंत कष्टकर और कठिन बना देता है।”
शेरशाह सूरी के जमाने में न केवल कुछ नई सड़कें बनीं बल्कि सड़कों की मरम्मत का काम भी किया गया था। इसके अलावा मुसाफ़िरों के ठहरने के लिए बीच-पच्चीस कोस के बाद सराय भी बनवाई गई और जहाँ तक संभव हुआ सड़कों के दोनों तरफ़ छायादार पेड़ भी लगवाए गए। मगर आम लोगों की यात्रा बहुत अर्से तक दुश्वार ही रही। आम आदमी, सौदागर और पर्यटक यह इंतजार करते रहते थे कि कोई क़ाफ़िला रवाना हो तो उसके साथ-साथ हो लें। हजारों लोग अगर बादशाह कहीं जाता तो उसकी सवारी के साथ यात्रा करते। एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है-
” अकबर का पड़ाव जब किसी शहर में होता तो एक कैंप का रूप धारण कर लेता। हजारों लोग जिन्हें उस दिशा में यात्रा करनी होती जिधर बादशाह की सवारी आगे जाएगी, इर्द-गिर्द इकट्ठे हो जाते थे और शाही कैंप मुसाफ़िरों का एक बड़ा क़ाफ़िला बन जाता।”
बादशाह हमेशा हवादार में यात्रा करते थे। उन दिनों यातायात के साधन बहुत सीमित थे। सड़कों, बैलों और ऊंटों से खींची जानेवाली पहिएदार गाड़ियाँ, रथ, बहलियों, हवादार, तामझाम, नदियों में चलने वाली नावें और तट स्थित क्षेत्रों में समुद्र पर चलने- वाले बादवानी जहाज उन दिनों की सवारियों थीं। शहरों के अंदर रथ,बोचे चलते थे। नालकी, पालकी और डोली उठाने वाले पालकीवरदार थे। दिल्ली में हाथियों, घोड़ों और गाड़ियों के अलावा डोली, डोला, नीमे, ग्याने, पालकी, नालकी, चौबहली, चंडोल, सुखपाल और फ़ीनस भी मिलती थीं और एक जगह से दूसरी जगह तक जाने के लिए इन डोलियों का किराया पैसा-दो पैसा होता था।
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