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सन 1857 हंगामे का दौर है। मेरठ में फ़ौज ने बग़ावत कर दी है। दिल्ली की गलियों में भी जोशीले नौजवान इस तरह के गीत गाते थे-

सुनो सुनो मेरी सौगंध, सुनो जो मैंने खाई है

कारतूस को मैं कभी अपने दांतों से नहीं काटूंगा

उनका पानी कभी नहीं पीऊँगा

मैं ब्राह्मण हूं या राजपूत

शेख़ हूं या सैयद हूं

मैं मुगल हूं या पठान

उनके कारतूस को हरगिज नहीं काटूंगा

सुनो सुनो, मेरी सौगंध सुनो

दिल्ली में गोरों और तिलंगों से सब भयभीत थे-

बहू जल्दी-जल्दी धान कूट ले

कहीं तिलंगे न घुस पड़ें

मैं बनिए की दुकान देखती हूं

दाल, लहसन और जीरा ले आऊं

किवाड़ बंद कर लेना कहीं ऐसा न हो

कि तिलंगे और गोरे घुस पड़े

पक्की पक्की फसल कंपनी के दलाल काट लेंगे

और खेतों में आग लगा देंगे

फिर हम भूखों मर जाएँगे

इस आजादी की लड़ाई में बहुत से वीरों ने प्राणों की आहुतियों दे दी थी। एक बहन अपने भाई की मृत्यु के बारे में सुनकर कहती है-

बीरन तेरी लाश पर बहना हो जाती कुरबान

टीका, झुमका, कंगन, पहुंची सब पर है धिक्कार

खोद जो होता मेरे सिर पर हाथ में जो होती तलवार

बीरन तेरी लाश पर बहना हो जाती कुरबान

घोड़े को ऐड़ लगाती और पहुंचती रणभूमि में

दांव दिखाती ऐसे बीरन सब रह जाते हैरान

स्वतंत्रता आंदोलन में भी लोकगीतों की रहीं धूम

बाद के स्वतंत्रता आंदोलन ने भी बहुत से देशभक्ति के लोकगीतों को जन्म दिया। जनता तो गांधीजी को एक संत, एक अवतार मानती थी।

गांधीजी का अवतार हुआ है भारत भार मिटाने को

संग में वीर जवाहर हैं स्वयं राज चलाने को

राम के संग में लक्ष्मण थे कृष्णसंग बलदाऊ

गांधी के संग जवाहर हैं अन्याय दुष्ट पछाड़ने को

राम की सेना बंदर थे, कृष्ण की सेना ग्वालों की

गांधी की सेना जनता है भारत आजाद कराने को

फिर आज़ादी आई और दिल्ली के लोगों की जबान पर यह गीत लहराने लगा-

आया पिरजा राज रे साथी, आया पिरजा राज

जिन खेतों में भूख उगी थी उनमें अन्न अपार

जिन गांवों में काल पड़े थे अब वो हैं गुलजार

हर दिल में है प्यार

बन गए बिगड़े काज रे साथी आया पिरजा राज

दिल अपना है, दिल्ली अपनी, अपना सब संसार

यह गीत दिल्ली के मजदूरों और किसानों की उमंगों और इच्छाओं का प्रतीक था-

चलो चलो बढ़ो बढ़ो

नाव में बैठी राजा की नार, पातर नाचे बारम्बार

पायल दे रही झनकार, ढोलक बोले गड़गड़तार

ताली बाजें बोलें तार, गूंज रहे दरिया संसार

रानी की नाव के खेवनहार, धूप में म्हारी नाव मंझदार

पंडित नेहरू जनता के प्रिय नेता थे। पुरुष, स्त्रियां और बच्चे सभी उनसे प्यार करते थे। इस गीत में उनके लिए दिल्ली वालों की भावनाएँ झलक रही हैं-

पंडित नेहरू ने चलाई जनता रेल माइली सब सैल करें

चंपा और चमेली जा रही हैं हर प्यारी के संग

बंबई शहर और कलकत्ता को दिखयावे सब ढंग

ऐ जी खरिया करे तो मँगा ले गुड़ और तेल

पंडित नेहरू ने चलाई….

अच्छे अच्छे डिब्बे जुड़ रहे हैं बिजली लग रहे वामें

बहुत दूर की सफ़र करे है पहुंचा दे लम्हे में

अजी कभी इंजन तो होवे ना फेल

पंडित नेहरू ने चलाई….

दिल्ली के लोकगीत देश के अन्य प्रदेशों की तरह अनेक हैं। हर विषय पर गीतों की इतनी संख्या मिलती है कि चुनाव करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि कोई भी गीत ऐसा नहीं है जिसमें जनता की भावनाओं की अभिव्यक्ति न मिलती हो। बहरहाल कुछ प्रतिनिधि गीतों का चयन केवल इस दृष्टि से कर लिया गया है कि. भावनाओं और अनुभूतियों की एक झलक प्रस्तुत की जा सके और हम दिल्ली को उन सरल प्रकृति और परिश्रमशील जनता के रोजमर्रा के जीवन, उनके उत्साह, संकल्प और उनकी खुशियों को महसूस कर सकें, जिनकी शक्लें और रहन-सहन के ढंग अब बहुत बदल गए

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