दिल्ली में एक-से-एक वाकमाल हस्ती हुई है। ऐसी हस्तियों ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर ऐसे स्थायी चिन्ह छोड़े हैं कि ये विभूतियां हमारी सांस्कृतिक राजमार्ग के संगमील बन गई हैं। इन्सानियत, भाईचारे और रवादारी में उनका अटूट विश्वास था और उन लोगों ने अपनी जिन्दगी को मशाल बनाकर हमारी समाजी जिन्दगी को आलोकित किया। ऐसी ही एक विभूति शम्सुलउलमा मुंशी जकाउल्लाह थे। उनमें नेकी, विनम्रता और विशालहृदयता कूट-कूटकर भरी हुई थी। धार्मिक द्वेष उन्हें छू भी नहीं गया था और वे हिन्दुओं और ईसाइयों दोनों से प्रेम करते थे।
वे सच्चे दिल से महसूस करते थे कि सब मजहब एक ही मंजिल के अलग-अलग रास्ते हैं। उनके दोस्तों में सी. एफ. एंड्रयूज शामिल थे जिन्होंने उन पर एक किताब भी लिखी। मुंशी जकाउल्लाह प्रो. रामचंद्र के शिष्य थे और प्रोफेसर साहब की संगति में बहुत रहते थे। जब प्रो. रामचंद्र ईसाई बन गए तो दिल्ली के बहुत से लोगों को शक हुआ कि शायद मुंशी जकाउल्लाह भी ईसाई मत अपना लेंगे। लेकिन यह संदेह गलत साबित हुआ और सी. एफ. एंड्रयूज ने खुद लिखा है कि वह एक सच्चे मुसलमान थे जो एक खुदा में यकीन रखते थे और सारी मानवता को उसी एक खुदा की संतान समझते थे।
सी.एफ. एंड्रयूज लिखते है- “उनके करीबी दोस्तों में हिन्दुओं की काफी संख्या थी। दिल्ली में भी, इलाहाबाद में भी, जहां वह म्योर सेंट्रल कॉलेज में प्रोफ़ेसर के तौर पर काफी अर्सा रहे। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों में हर तरह के विरोध को समाप्त करने की पूरी कोशिश की। मैं ऐसे बहुत से हिन्दुओं से मिला हूं जिन्होंने मुंशी जकाउल्लाह की दिल से तारीफ की है। जब लोगों को यह पता लगा कि मैं मुंशी जकाउल्लाह पर एक पुस्तक लिख रहा हूं तो सबसे अधिक प्रभावोत्पादक चिट्ठियां मुझे चंद हिन्दुओं से ही मिलीं।
उनके बेटे इनायतुल्लाह के अनुसार पं. तुलसी राम के पुत्र ने उन्हें बताया था कि जब अपने बाप-दादों के घर में वे दिये जलाकर पूजा करते हैं तो प्रार्थना के समय वे अपने रिश्तेदारों और संबंधियों के साथ मुंशी उकाउल्लाह का नाम भी लेते हैं। पं. काशीनाथ ने इनायतुल्लाह को यह भी बताया कि आपके पिता मुंशी ज़काउल्लाह जितना हिन्दुस्तान में कोई दूसरा मुसलमान हिन्दुओं का दोस्त नहीं था और हर हिन्दू उनसे मुहब्बत करता था। इनायतुल्लाह यह भी कहते थे कि मेरे वालिद हिन्दुओं को बहुत अच्छा समझते थे और उनकी बड़ी प्रशंसा करते थे। हिन्दुओं के धर्म और विश्वास तथा रीति-रिवाजों के बारे में जितनी जानकारी वालिद साहब को थी, शायद ही किसी दूसरे को हो। एक बार उन्होंने मुझे नसीहत देते हुए संस्कृत की एक कहावत सुनाई और उसका अर्थ समझाया। मुंशी ज़काउल्लाह के बारे में ऐसे विचार उनके सुपुत्र इनायतुल्लाह के ही नहीं बल्कि सैकड़ों दूसरे लोगों के भी थे।