हिन्दुस्तान में स्टेज और थियेटर की शुरुआत पुर्तगालियों के आगमन से हुई। पुर्तगाली 1498 में व्यापार के उद्देश्य से हिन्दुस्तान आए थे। उन लोगों ने उर्दू भाषा का यह रूप सीखा था, जो उन दिनों प्रचलित था और जिसे पुर्तगाली ‘इंदुस्तानी’ कहा करते थे। उनके आने के दस-बीस वर्ष बाद ही पुर्तगाली पादरियों ने दक्कन और उत्तर भारत में उर्दू ड्रामे स्टेज किए। इन ड्रामों के माध्यम से वे हजरत ईसा के जीवन के विभिन्न पहलू प्रस्तुत करते थे।

1550 के बाद उर्दू नाटक काफी संख्या में मंचित किए जाने लगे। फिर जब हिन्दुस्तान में अंग्रेज व्यापारी आए और ईस्ट इंडिया कंपनी बनी तो उनका असर खूब बढ़ने लगा। बड़े शहरों में और ख़ास तौर पर बंबई और कलकत्ता में तो उनकी खासी आबादी हो गई। जब उनके पांव कुछ जम गए तो उन्होंने थियेटर की ओर ध्यान दिया। उन्होंने 1770 में ‘बंबई विवेटर कायम किया जो कुछ वर्ष बाद बंद हो गया। मगर वह दुबारा 1884 में बंबई में ही ग्रांट रोड पर ही शुरू हो गया। उसके लिए मुफ़्त जमीन वहां के जगन्नाथ शंकर सेठ ने दी थी।

यह थियेटर ज्यादातर अंग्रेज दर्शकों के लिए था और कई वर्ष तक इसमें अंग्रेजी ड्रामे स्टेज किए गए। मगर आगे चलकर शंकर सेठ के कहने पर, जो थियेटर की प्रबंध समिति के एक प्रमुख सदस्य थे उसमें उर्दू, गुजराती और मराठी नाटक भी पेश किए जाने लगे। यह थियेटर आखिरकार अंग्रेजों की बददिमागी और कुप्रबंधन के कारण बंद हो गया। मगर बंबई में उर्दू नाटकों को लोकप्रिय बना गया।

उसके बाद पारसियों ने उर्दू नाटक और मंच की बागडोर संभाल ली और यह कहना अत्युक्ति न होगी कि उर्दू में थियेटर का इतिहास कमोवेश पारसियों द्वारा स्थापित विवेंट्रिकल कंपनियों का इतिहास है। नाटक की जितनी कंपनियाँ बंबई में क़ायम हुई उसकी आधी भी शेष शहरों में नहीं हुई। इसके अलावा कलकत्ता, दिल्ली आदि में भी जो कंपनियाँ स्थापित हुई, उनमें से अधिकतर के मुख्यालय या तो मुंबई में थे या उनके प्रबंध में पारसियों का हाथ था। यह बात विशेष रूप से उस समय के विशिष्ट उर्दू नाटक के विकास के दौर पर लागू होती है। उस समय की मशहूर पारसी थियेटर कंपनियां ये थीं-

पारसी इमेटिक कोट, एंब्रोशिया पारसी विवेट्रिकल कंपनी ओरिजिनल थियेट्रिकल कंपनी, पारसी नाटक मंडली नं. 1 और नं. 2, विक्टोरिया नाटक मंडली, अल्फ्रेड नाटक मंडली, अलफ्रेड थियेट्रिकल कंपनी, एंपायर थियेट्रिकल कंपनी, इंपीरियल थियेट्रिकल कंपनी, राइजिंग स्टार थियेट्रिकल कंपनी, इंडियन थियेट्रिकल कंपनी और एम्प्रेस विक्टोरिया थियेट्रिकल कंपनी।

सेठ पिस्टनजी फरामजी पारसी स्टेज के जनक और संस्थापक थे। उनकी मृत्यु के बाद उनकी ओरिजिनल थियेट्रिकल कंपनी, जिसने जनता में उर्दू नाटकों को लोकप्रिय बनाने में एक महान भूमिका का निर्वाह किया था, समाप्त हो गई। उनके दो प्रसिद्ध अभिनेताओं बालीवाला और कावसजी ने अपनी-अपनी अलग कंपनियां बना लीं। बालीवाला ने 1877 में लॉर्ड लिटन के दरबार के अवसर पर दिल्ली में विक्टोरिया नाटक कंपनी क़ायम की। वह अपने समय का एक गुणवान हास्य अभिनेता था। उसके बारे में यह कहा जा सकता है कि वह जन्म से ही एक मेधावी अभिनेता था, ज्योंहि वह मंच पर आता था दर्शक कहकहे लगाना शुरू कर देते थे। उसके अभिनेताओं में मिस गौहर भी थीं जो अपने समय की बड़ी मशहूर और हसीन अभिनेत्री थी।

एक अंग्रेज अभिनेत्री मेरी फीस्टन भी थी जिसने मंच पर हिन्दुस्तानी गाने गाकर काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी। कावसजी ने उनके मुकाबिले में अलफ्रेड थियेट्रिकल कंपनी बना ली थी। त्रासद अभिनय और त्रासदी को मंच पर प्रस्तुत करने में कावसजी का जवाब नहीं था। उसने दिल्ली में ‘कत्ल-ए-नजीर’ नामक नाटक प्रस्तुत किया जो इस कारण से अधिक लोकप्रिय हो गया कि उन्हीं दिनों दिल्ली की एक प्रसिद्ध वेश्या बेनजीर की हत्या हो गई थी और उसकी चर्चा हर छोटा-बड़ा कर रहा था।

कलकत्ता में भी अंग्रेजी स्टेज का जन्म अठारहवीं सदी में हुआ। दरअसल यह उस नगर में अंग्रेजों की समाजी ज़िन्दगी, क्लबों और नाच घरों की ही पैदावार था। लाल बाज़ार स्ट्रीट में एक नाटकघर ईस्ट इंडिया कंपनी के बंगाल पर विजय प्राप्त करने के पहले ही क़ायम था। 1853 तक उसमें अंग्रेज़ी नाटक पेश किए गए। कलकत्ता में उस समय की कुछ प्रमुख कंपनियों के नाम हैं-

इंडियन आर्ट्स एसोसिएशन, कलकत्ता– जिसे कज्जन बाई ने 1955 में स्थापित किया।

हिन्दुस्तानी थियेटर्स, कलकत्ता– 1946 में फ़िदा हुसैन, मुरादाबादी ने कायम किया।

मेडन थियेटर्स लि. कलकत्ता– इसके मालिक पारसी जमशेदजी फ़रामजी मेडन थे, जिन्होंने धरमतल्ला स्ट्रीट पर कोरियन वियेटर के नाम से एक पक्का और आलीशान नाटकघर बनवाया।

लक्ष्मी थियेट्रिकल कंपनी ऑफ कलकत्ता– मास्टर छैला ने 1948 में कायम की थी।

कर्जन ऑफ इंडिया थियेट्रिकल कंपनी—1995 में धूमी खां झरिवावाले ने कायम की।

कोरिंथन थियेट्रिकल कंपनी— 1932 में मुहम्मद इसहाक़ और रुस्तमजी दरियावाले ने बनाई थी।

शाहजहां थियेट्रिकल कंपनी ऑफ कलकत्ता– मानकलाल जी ने 1930 में कायम की थी।

परिस्तान थियेट्रिकल कंपनी ऑफ कलकत्ता–1930 में कायम हुई थी,मालिक दीवानचंद शर्मा थे।

हालांकि उर्दू नाटक की लोकप्रियता के उस दौर में सैकड़ों विवेंट्रिकल कंपनियों देश के बड़े-बड़े नगरों में सक्रिय थीं और जो बढ़िया और लोकप्रिय नाटक भी पेश करती थीं और दूसरे शहरों का व्यावसायिक दौरा भी करती थीं। दुर्भाग्य से अधिकतर कंपनियों दो-तीन वर्ष काम करने के बाद ही बंद हो जाती थी। उसका मुख्य कारण प्रबंध क्षमता की कमी और ठीक ढंग से हिसाब आदि न रखना था।

हरेक कंपनी आमतौर पर अपना नाटककार रखती थी। उर्दू नाटककारों की माँग दूसरी भाषाओं की तुलना में कहीं अधिक थी उनका पारिश्रमिक भी अधिक होता था, क्योंकि उर्दू एक अखिल भारतीय भाषा थी और उर्दू के नाटक हर बड़े शहर में खेले जा सकते थे। उस दौर में सबसे मशहूर उर्दू नाटक लिखने वाले आगा हश्र कश्मीरी थे जिन्होंने अनेक उर्दू नाटक लगभग हर मशहूर कंपनी के लिए काफ़ी अधिक पारिश्रमिक पर लिखे और उन्होंने अपनी भी एक विपेट्रिकल कंपनी स्थापित की थी।

नाटक में भूमिका करने के लिए अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का चुनाव न सिर्फ उनकी योग्यता, अनुभव और लोकप्रियता के आधार पर किया जाता था बल्कि वह इस बात पर भी निर्भर होता था कि खुद अच्छा गायक या गायिका भी है या नहीं। उन दिनों एक प्रसिद्ध संगीतकार उस्तार झंडे खां थे और गायकों में भगवानदास, मास्टर मोहन और मास्टर निसार थे। गौहरजान भी उस समय लोकप्रिय थीं। जो दो गाने उन दिनों दिल्ली में हर छोटे-बड़े की जबान पर थे वे ये थे- ‘कहना मोरे मन की बात मोहन से जाकर जिसका बाद में हिज़ मास्टर्स वॉइस का रिकार्ड बना और ‘करम गति टारे नाहि टरे।

एक शो में इन गानों के लिए सोलह बार वन्स मोर की आवाजें लगाई गई थीं। दरअसल तालियों, सीटियों, कहक्रहों और वन्स मोर की संख्या से ही किसी नाटक की लोकप्रियता और पसंदगी को नापा जाता था और उन्हीं को सुनकर कंपनी के मालिक और डायरेक्टर, जो स्टेज पर पर्दे के पीछे मौजूद होते थे, खुश होते थे और प्रोत्साहित होते थे। इन्हीं बातों पर यह भी निर्भर होता था कि नाटक उस शहर में कितने दिन तक चलेगा। थियेटर कंपनियाँ जब किसी शहर में जातीं थीं, तो बल्लियों के सहारे टीन का कच्चा या अस्थायी मंडया बनवाती थीं।

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