नाजिर का बाग (1748 ई.)

यह बाग कुतुब साहब के झरने के पास है। इसमें मकान बने हुए हैं। फूल वालों की सैर में हजारों आदमियों का जमघट यहां रहता है। उस बाग को नाजिर रोज अफजूं ने मोहम्मद शाह बादशाह के काल में बनवाया था। इस बाग के गिर्दागिर्द फसीलनुमा कंगूरेदार निहायत मजबूत चारदीवारी है और अंदर चारों तरफ मकान लाल पत्थर के बने हुए हैं। एक मकान बाग के बीचोंबीच बना हुआ है। सदर दरवाजा पश्चिम में है, जिसकी ऊंचाई 22 फुट है। दो तरफ छब्बीस-छब्बीस सीढ़ियों का जीना है। दरवाजे के अंदर दोतरफा दोमंजिला सैदरी है। अब यह उजड़ चुका है। नाम ही बाकी रह गया है।

चरनदास की बगीची

मुगल बादशाह मोहम्मद शाह के जमाने में दिल्ली में चरनदास जी बहुत पहुंचे हुए संत हुए हैं, जिनका जन्म विक्रम संवत 1760 में हुआ और मृत्यु 1829 में। ये शुकदेव जी के अनुयायी थे। कहते हैं, उनके दर्शन भी हुए थे। नादिर शाह के आने की खबर छह मास पहले से ही इन्होंने बादशाह को दे दी थी। इनकी ख्याति सुनकर नादिर शाह इनसे मिला भी था और कहते हैं, इनसे प्रभावित होकर वह ईरान लौट गया।

हौज काजी के पास एक गली में अंदर जाकर मोहल्ला दस्सां में इनकी समाधि है। द्वार में प्रवेश करके एक बड़ा अहाता आता है। ड्योढ़ी पार करके चार सीढ़ी उतरकर आंगन में बारे हाथ एक पहलू तरी बनी हुई है, जिसके दो द्वार हैं। छतरी के बीच तीन फुट तरी पर शुकदेव जी और चरनदास जी के रन बने हुए हैं। यहीं उनकी समान है। छतरी की छत में मीनाकारी हुई द्वार पर उतरी बनाने का 1840 लिखा हुआ है। इस पर 1100 रुपये लागत आई।

सदन के द हाथ फूलों को क्यारी है और बाएँ हाथ एक चबूतरा है। सामने की ओर सीढ़ी चढ़कर एक पचास-साठ फूट बदला है, जिसके अगले भाग में आठ फुट चौड़ा सायबान पड़ा है। फर्श का है। फिर दोहरा चलान है। अंदर के भाग के तीन हिस्से हैं। बीच में राम जी की है. जिस पर छोटा-सा मंदिर बना हुआ है। दाएं-बाएं तीन-तीन दर की बैठक बनी हैं। मंदिर में शुकदेव जी तथा चरनदास जी से चित्र है दो-ढाई फुट ऊंची चबूतरी पर मंदिर है, जिसमें गी किली है और ए रखे हैं। इस पर चरनदास जी को बोगोसी टोपी रखी है. करते थे। इसके अतिरिक्त उनकी माला तथा कुमड़ी, जिसके सहारे बैठते थे और मृगछाला भी है।

सायबान में एक सूखे का है। कहते हैं, उन्होंने दो दातुन जमीन में लगा दिए थे, जो हरेक बन गए थे। चरनदास जी का चोगा भी है। वह उनके शिष्य गुलदा जी के पास है। सहन में पीपल, शहतूत और बट के लगे हैं। मंदि में एक कुआं भी है, जिस पर प्याऊ लगी हुई है। दास जी का चलता है। उनके अनुयायी चरनदासिए कहलाते हैं।

भूतेश्वर महादेव का मंदिर

समाधि के साथ हो एक बैठक में बाहर की तरफ गली में भूर्तश्वा महादेव का मंदिर है। यह संगमरमर का बना है। मूर्ति भी संगमरमर को है। यह मंदिर अभी हाल में बना बताते हैं।

चौमुखा महादेव

इसी गली के पास ही एक और पुराना मंदिर चौमुख महादेव जी का है यह एक छोटा-सा मंदिर है। सीढ़ी चढ़कर मंदिर में प्रवेश करते हैं। दाएं हाथ एक बैठक में नीचे चौमुखी शिव जी की पिंड है।

मोहम्मद शाह का मकबरा (1748 ई.)

निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में जहांआरा के मकबरे के पूर्व में मोहम्मद शाह बादशाह का मकबरा है, जिसकी मृत्यु 1748 में हुई। इसकी कब्र का अहाता चौबीस फुट लंबा और सोलह फुट चौड़ा है। चारदीवारी आठ फुट से कुछ ऊंची है, जिसके चारों कोनों पर संगमरमर की छोटी-छोटी मीनारें हैं। दरवाजा और उसके सामने के जिले भी संगमरमर के हैं। दीवारों में संगमरमर की जालियां हैं। इन्हीं के बीच दरवाजा है, जिसके किवाड़ भी संगमरमर के हैं। इस अहाते में छह कब्रें हैं। सबसे बड़ी मोहम्मद शाह बादशाह की है। दाहिनी ओर इनकी बेगम की; उनके पास नादिर शाह की बहू की, दाहिनी तरफ उसकी मासूम लड़की की। एक कब्र मिर्जा जहांगीर मोहम्मद शाह के पोते की और एक मिर्जा आशोरी की है। यह मकबरा मोहम्मद शाह ने खुद अपने जीवन काल में तैयार करवाया था।

मोहम्मद शाह रंगीले के बाद अहमद शाह (1748 से 1754 ई.), आलमगीर द्वितीय (1754 से 1759 ई.), जलालुद्दीन (1759 से 1806 ई.) बादशाह हुए। पर वे सब बहुत सीमित क्षेत्र के बादशाह थे और दिल्ली का प्रभाव उन दिनों बहुत कम हो गया था।

सुनहरी मस्जिद (1751 ई.)

अहमद शाह के काल में, जब मुगलिया सल्तनत का चिराग टिमटिमा रहा था, जावेद खां नामक एक मशहूर और प्रभावशाली अमीर हुआ हैं। यह कुदसिया बेगम का, जो अहमद शाह की मां और मोहम्मद शाह की बीवी थी, सलाहकार था। उसने अहमद शाह के जमाने में बड़ा महत्व पाया। यह मस्जिद उसने 1751 ई. में लाल किले के दिल्ली दरवाजे के बाहर कोई सौ गज के फासले पर बनवाई थी। इसके गुंबद और मीनारों पर पीतल की चादरें चढ़ी हुई हैं। इसी से इसका नाम सुनहरी मस्जिद पड़ा। यह इस नाम की तीसरी मस्जिद है; दो का जिक्र ऊपर आ चुका है। मस्जिद सिर से पैर तक संगवासी की बनी हुई हैं। दोनों मीनार भी उसी पत्थर की हैं। तीन गुंबद हैं। ये लकड़ी के बनाकर, उनके ऊपर मोटी-मोटी चादरें चढ़ाई गई थीं और चादरों पर सोने के पत्ते मढ़ दिए गए थे। बुर्जियां और कलसियां भी इसी तरह सुनहरी हैं।

इसी तरह अंदर की दीवार पर भी पत्ते चढ़े हुए थे। वर्षा के कारण गुंबदों का काट गलकर बुर्ज टेढ़े पड़ गए थे। 1852 ई. में बहादुर शाह सानी के हुक्म से ये बुर्ज उतारकर पुख्ता चूने गच्ची के बनवा दिए गए। बुर्जियां वैसी ही बनी हुई हैं। यद्यपि यह एक छोटी-सी मस्जिद है- पूर्व से पश्चिम तक 50 फुट और उत्तर से दक्षिण तक 15 फुट, मगर सुंदरता में यह लाजवाब है। यह मुगल काल की इमारतों का एक आखिरी नमूना है। तीन गुंबदों के इधर-उधर तीन खंड की दो मीनारें साठ-साठ फुट ऊंची बनी हुई हैं, जिन पर अष्टकोण सोने के कलस की बुर्जियां हैं। किसी जमाने में यह आबादी में होगी। अब तो यह अकेली सड़क के किनारे तिराहे पर खड़ी है। इसका दरवाजा पूर्व की ओर है। दरवाजे की महराब पर संगतराशी का उम्दा काम बना हुआ है। दरवाजे के बीच में नौ सीढ़ियां हैं, जिन पर चढ़कर मस्जिद के सहन में पहुंचते हैं। दालान के तीन हिस्से हैं। हर हिस्से पर गुंबद बना है, जिस पर सुनहरी कलस चढ़ा । सहन में पत्थर के चौके बिछे हैं।

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