सन 1237 के आसपास शेरशाह सुरी (Shershah Suri) ने मौजूदा ग्रांड ट्रंक रोड (Grand trunk Road) को विकसित करने के साथ साथ राजमार्ग पर सराय बनवाना शुरू किया और जिस मंजिल पर भी शेख रहते थे वहीं सब साधनों से सम्पन्न खानकाह बनवाए। मूंतकब-अल-तारीख में लिखा है कि शेरशाह ने 1700 सराय बनवाई। इनमें से अब कुछ के ही अवशेष बचे हुए हैं। इन सराय का उपयोग डाक बाद में डाक के लिए किया जाने लगा। शेरशाह सुरी के सन 1540 में सत्ता में आने से पूर्व घुड़सवारों और धावकों से डाक भेजी जाती थी। पर शेरशाह ने इसमें क्रांतिकारी सुधार किया। उसने प्रत्येक सराय पर दो घुड़सवार रखे और डाक चौकी स्थापित किया। पंजाब में अपने किले से बंगाल में सोना गांव तक, आगरा से अपनी सल्तनत की सीमा पर से बुरहानपुर तक दक्षिण में, आगरा से जोधपुर और चित्तौड़, लाहौर से मुल्तान तक उसने डाक चौकियाें का जाल फैला दिया। अहमदाबाद से दिल्ली तक डाक महज 12 दिन में पहुंचती थी। सन 1727 में अंग्रेज पर्यटक मि.ए हेमिल्टन ने लिखा कि- मुगल राज में डाक बहुत तेजी से भेजी जाती हैं क्यों कि हर सराय में तेज धावक तैनात है। बकौल हेमिल्टन इन चौकियों को कुत्ताचौकी भी कहा जाता है।

सराय इन मुगल इंडिया किताब में नजीर अजीज अंजुम लिखते हैं कि सराय मार्गों के किनारे बनाए जाते थे। ये सिर्फ कारोबारियों, यात्रियों, तीर्थयात्रियों को आश्रय ही नहीं देते थे अपितु संबंधित स्थान के अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी बहुत उपयोगी थे। ऐसा कहा जाता है कि शेरशाह सुरी नेसबसे पहले सराय का चलन शुरू किया। मुगल काल में सराय का चलन और अधिक बढ़ गया। इस समय तक सराय सिर्फ शासक ही नहीं अपितु कारोबारी, प्रशासनिक अधिकारी भी बतौर दान बनाने लगे थे। प्रत्येक 10 कोस पर एक सराय का निर्माण जरुरी था। हालांकि ये सराय किससे बनेंगे इसे लेकर कोई खास नीति नहीं थी। मसलन, सराय ईंट, पत्थर, घास-फूस और कीचड़ के भी बनाए जाते थे। हालांकि बर्नियर का अनुभव सराय को लेकर कुछ खास अच्छा नहीं था। वह इन्हें अच्छा नहीं मानता था लेकिन दिल्ली में जहांआरा द्वारा बनवाए एक सराय ने उसकी धारणा को बदल दिया था। एक बार सराय देखने के बाद वह इसका ना केवल मुरीद हो गया बल्कि उसका यह मानना था कि पेरिस में भी यात्रियों के ठहरने के लिए इस तरह के सराय बनाए जाए।

सुरक्षा से लेकर सफाई के इंतजाम

इतिहासकारों की मानें तो सराय में मुख्य रूप से एक हॉल, निवास स्थान, अटेंडेंट के लिए एक चैंबर, तीन आंगन (पशुओं को बांधने के लिए), बरामदा होते थे। इसके अलावा इसमें दो कुएं, हमाम, एक मस्जिद और कुछ दुकानें होती थी। इन सराय में सिपाहियों के लिए कोई जगह नहीं थी। इसकी तकस्ीद इश्क बेग के एक दस्तावेज से मिलता है। इश्क बेग दरअसल एक बिल्डर था जिसने 1054 में सूरत में कई सराय बनाई थी। इश्क ने इस शर्त पर सराय बनाई कि पैदल या घुड़सवार सिपाहियों को इसमें किसी भी कीमत पर रुकने, ठहरने नहीं दिया जाए। क्यों कि उसका मानना था कि सराय केवल यात्रियों के लिए होता है। निकोलाओ मानुची भी इससे सहमत थे। लिखते हैं कि सराय सिर्फ यात्रियों के लिए थे, सिपाहियों के लिए नहीं थे। सराय की देखभाल, सुरक्षा के लिए बहुत से कर्मचारी तैनात थे। प्रवेश द्वार पर दरबार (गेटकीपर), आबकश(पानी पिलाने वाला), खकरोब (स्वीपर), मेहतर और मेहतरीन थे। ये दोनों भी सफाई के लिए ही रखे जाते थे। मानुची लिखते हैं कि सराय के गेट पर हर समय क्रम से सुरक्षाकर्मी पहरा देते थे। शाम छह बजे जो सुरक्षाकर्मी आता वो सुबह छह बजे तीन बार चिल्ला-चिल्लाकर यात्रियों को जगाता था। इसके पीछे उसका मकसद था कि यात्री उसकी शिफ्ट बदलने से पहले एक बार अपने सामानों को चेक कर लें।


इतिहासकार सोहेल हाशमी कहते हैं कि दिल्ली में अरब की सराय, लाडो सराय, कटवरिया सराय, कालू सराय, नेब सराय, बेर सराय, युसूफ सराय, सराय जुलैना समेत कई सराय हैं। युसूफ सराय से लेकर फरीदाबाद के बीच 22 से ज्यादा सराय हैं। ये सब के सब वाकई सराय थे या फिर इनके नाम पड़ गए इसको लेकर मतभेद हैं। सराय का कांसेप्ट तो था कि जो भी ट्रेड रुट होता था उस पर हर दो से तीन कोस पर एक सराय होती थी। इसका कारण यह था कि उस समय लोग बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी से ही ट्रेवल करते थे। मेरी मां ने बताया था कि उनकी दादी तिमारपुर में रहती थी, उनकी एक कजिन ओखला में रहती थी। उनसे मिलने जाने के लिए वो तड़के सुबह बैलगाड़ी से निकलती थी एवं देर शाम निजामुद्दीन तक पहुंचती थी यहां रात भर ठहरने के बाद अगली सुबह फिर ओखला के लिए निकलती थी। यानी, उस समय ट्रेवल में काफी टाइम लगता था, लिहाजा सराय जरूरी तो था। मुगल काल की बात करें तो शाहजहां सलीमगढ़ किले से निकलते एवं मुनिरका पहुंचने में दो दिन लगते। इसलिए रात में वो सराय में ही रुकते थे। जहां तक दक्षिणी दिल्ली में विभिन्न इलाकों के सराय आधारित नाम की बात करें तो युसूफ सराय से आगे जाते हैं तो आईआइटी की क्रासिं पर राइट मुड़ते ही जिया सराय है। यहां से आगे लेफ्ट मुड़ते ही बेर सराय, यहां से आगे कटवरिया सराय और आगे लेफ्ट जाकर मुड़ने पर अधचीनी हैं एवं आगे लाडो सराय है। इतने पास पास सराय होना भी संभव नहीं है। बशीरुद्दीन अहमद अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि युसूफ सराय में सराय के अवशेष नहीं मिलते हैं। सिर्फ कटवरिया सराय में सल्तनत पीरियड के कुछ स्ट्रक्चर मिलते हैं। ऐसी संभावना यहां कभी कैंप लगा होगा, जिसके आधार पर ही लोगों ने इसे सराय कहना शुरू कर दिया होगा।

अरब की सराय

अरब की सराय की बात करें तो यह हुमायूं के मकबरे के पास है। जब हुमायूं का मकबरा बनाया जा रहा था तो उस समय का कंस्ट्रक्शन लेबर जहां रुका है वो अरब की सराय ही था। ऐसा मुमकिन है कि इसका केयर टेकर कोई अरब का था, इस वजह से नाम अरब की सराय पड़ गया। हुमायूं का मकबरा नौ साल में बनकर तैयार हुआ। इतने लंबेसमय तक कारीगर, कांट्रेक्टर से लेकर पत्थर के सप्लायर, पशु यहीं रहते थे। हालांकि एक मत यह भी है कि 13 फीट लंबे अरब की सराय को 1560 में हामिदा बानू बेगम ने अरब के 300 कारोबारियों को ठहरने के लिए बनाया था।

सराय जुलैना

सराय जुलैना की ‘जुलैना’ दरअसल जुलियाना’ से लिया गया नाम है। जुलियाना एक पुर्तगाली महिला थी, जिसका नाम जुलियाना डायस दा कोस्टा था। जो औरंगजेब के मुगल दरबार में काफी प्रतिष्ठित पद पर थी। इन्हें औरंगजेब ने सराय बनाने के लिए जमीन आवंटित की गई थी अब न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के पास स्थित है। इनका जन्म 1658 में और मृत्यु 1732 में हुई थी। ये दिल्ली कैसे पहुंची इसके बारे में कोई स्पष्ट कहानी तो नहीं लेकिन कहा जाता है कि इनके पिता पूरे परिवार के साथ दिल्ली आए थे। जुलियाना बहुत बुद्धिमान थी एवं राजदरबार में इनकी बुद्धिमत्ता के सभी कायल थे। वर्तमान में यहां सराय के कोई पुख्ता प्रमाण तो नहीं मिलते हैं। हां, यहां एक खंडहर नुमा इमारत है एवं पास ही एक कुआं है। स्थानीय लोगों की मानें तो यहां नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी कई बार छिपने के लिए इसका प्रयोग करते थे। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने भी एक सराय मोर है। हालांकि पहले इसका नाम सराय म्यूर था। सोहेल कहते हैं कि म्यूर दरअसल एक अंग्रेजी अधिकारी थे। बाद में नाम बदलकर मोड़ ही पड़ गया। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के ठीक सामने स्थित मोड़ पर एक प्याऊ होता था।

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