ईस्ट इंडिया कंपनी ने क्यों लिया था पुरानी राइफल बदलने का निर्णय
1857 की क्रांति: ब्रितानिया हुकूमत ने 1857-57 में नई एफील्ड राइफलों को सेना के बेडे में शामिल किया था। पहले वाली सीधी नाली वाली बंदूक के विपरीत इनकी नली में ऐसे खांचे बने थे कि उनका निशाना ज़्यादा दूर तक और सही जाता था। लेकिन इसमें बारूद भरना मुश्किल था। नली के अंदर कारतूस पहुंचाने के लिए उसमें चिकनाई लगाने की ज़रूरत होती थी, जिसको एक डंडे से अंदर घुसाना होता था। एडवर्ड को अपने सिपाहियों को यह तरीका सिखाना था कि किस तरह कारतूस का सिरा मुंह से काटें और फिर बारूद राइफल की नली में डालें और फिर डंडे से उस चिकने कारतूस और बारूद को नली के अंदर ठूसें।”
यह सब नए तरीके थे और कंपनी ने अपनी नादानी में यह फैसला किया कि यह कारतूस कलकत्ता के दमदम कारखाने में बनाए जाएं, जिसे कारतूस बनाने का कोई तजुर्बा न था। इसलिए शुरू-शुरू में काफी मुश्किलें हुईं ख़ासकर पहली कुछ खेपों जिन पर बहुत ज़्यादा चिकनाई लगा दी गई थी। इसके दो नतीजे हुए। अव्वल तो यह कि बंदूक की नली बहुत जल्दी गंदी हो जाती और उसको बार-बार साफ़ करना पड़ता।” दूसरे यह कि कारतूस का चिकना सिरा मुंह में डालना सबके लिए बहुत नापसंदीदा बात थी और उसको मुंह से तोड़ना किसी भी सिपाही के लिए बहुत घिनौना था ।
ऐसे हालात में एक अफवाह उड़ी कि जो चिकनाई इस्तेमाल की जा रही है वह न सिर्फ नापसंदीदा थी बल्कि नापाक भी थी क्योंकि वह गाय की चर्बी (जो बहुत से ऊंची जात के और शाकाहारी सिपाहियों के लिए बहुत तकलीफ़देह थी जो किसी ऐसी चीज़ को छूना भी नहीं चाहते थे जिससे पवित्र गाय को तकलीफ पहुंची है) और सूअर की चर्बी (जो हिंदू मुसलमान दोनों के लिए गंदा और हराम था) से मिलकर बनी थी। इसलिए वह सारे सिपाहियों के लिए नागवार थी।
यह अफ़वाहें शायद सच पर आधारित थीं। शुरू-शुरू में वाकई यह चिकनाई नापाक चर्बी से बनी थी। लॉर्ड केनिंग ने बाद में इसे स्वीकार भी किया।” इसलिए चिकनाई में से यह दोनों चीजें जल्द ही बदल दी गई और सिपाहियों को मोम और घी मिलाकर अपनी चिकनाई खुद बनाने की इजाज़त दे दी गई। लेकिन नुकसान तो हो ही चुका था। न सिर्फ ज़्यादातर सिपाहियों ने राइफल छूने से ही बिल्कुल इंकार कर दिया बल्कि उससे भी ज़्यादा परेशानी की वह ख़बरें थीं जिन पर ज्यादातर लोगों को यकीन आ गया। और वह यह कि यह ग़लती अनजाने में नहीं बल्कि जानबूझकर की गई थी और यह कंपनी की साजिश थी कि सब सिपाहियों का धर्म और जाति ख़राब उनको ईसाई धर्म कुबूल करने के लिए उकसाया जा सके।
इस अफवाह को और ज़्यादा विश्वसनीय बनाने में मिशनरी पादरियों और उनके समर्थक हुकूमत और फ़ौज के चंद अफसरों का भी हाथ था जिन्होंने अपनी बेतुकी और बेवकूफ़ी की हरकतों से इसको और भी सच साबित कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत की हमेशा से यह नीति थी कि ऊंची जात के हिंदुओं को फौज में लिया जाए, खासतौर पर बिहार, अवध और बनारस के आसपास के इलाकों से। यह सब सिपाही अंग्रेज़ों के बल-बूते पर अपने को बहुत ऊंचा समझने लगे थे और ख़ासतौर पर उत्तरी भारत के छोटे-मोटे ज़मींदार जो सिपाही बनकर अपने खाने पकाने और जात के मामले में बहुत सावधान हो गए । इस तरह हिंदुस्तान में जात-पात का फर्क जो पहले इतना ज़्यादा प्रचलित नहीं था, अब अंग्रेज़ों की मेहरबानी से बहुत स्पष्ट हो गया और लोग ज़्यादा कट्टर हो गए, क्योंकि उनके लिए उनकी जात उनकी इज्ज़त और बड़ाई की निशानी बन गई। हालात को और बदतर और ज़्यादा भड़काऊ बनाने की एक वजह और भी थी।
फौज किसी और बात पर बगावत पर तुली थी जिसका ताल्लुक धर्म से नहीं बल्कि तख्वाह और कानूनों से था। सबसे पहले जिसने यह बात महसूस की वह एडवर्ड का पहला आला अफसर सर चार्ल्स नेपियर था जिसने 1850 में कमांडर इन चीफ के ओहदे से इस्तीफा दे दिया था, अपनी इस बढ़ती हुई चिंता की वजह से कि ब्रिटिश हिंदुस्तान को खुद अपने ही सिपाहियों से बहुत ख़तरा था और उनमें बेचैनी बढ़ रही थी और यह बात लॉर्ड डल्हौजी ने बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर दी और उसके ख़त के जवाब में यह लिखकर भेज दियाः “ऐसा कहने की कोई उचित वजह नहीं है कि हिंदुस्तान ख़तरे में है। इस वक्त हम बाहर के विरोध से पूरी तरह आज़ाद हैं और अंदरूनी तौर पर अपनी रिआया के आज्ञापालन की वजह से विद्रोहों से सुरक्षित हैं। हिंदुस्तान को एक लम्हे के लिए भी फौज के चंद सिपाहियों की अवज्ञा से कोई खतरा नहीं है।