1857 की क्रांति: ब्रितानिया हुकूमत के दौरान सेना में शामिल भारतीय सिपाहियों की नाख़ुशी के बहुत से कारण थे। हिंदुस्तान के कई बफादार फौजियों के लड़कों को नौकरी देने से इंकार कर दिया गया था क्योंकि कंपनी फौज को सिखों और गोरखों से भरने में मसरूफ थी। इसके अफसर उन्नीसवीं सदी की गोरखा और सिखों की लड़ाई से बहुत प्रभावित हुए थे। और जिन सिपाहियों को नौकरी मिल भी गई थी उनकी भी तरक्की की बहुत कम संभावना थी। बरसों की वफादारी और बहादुरी के बावजूद कोई हिंदुस्तानी सूबेदार के ओहद से (जो एक रेजिमेंट में सिर्फ दस होते थे) या ज़्यादा से ज़्यादा सूबेदार मेजर के दर्जे से (एक रेज़िमेंट में सिर्फ एक) आगे नहीं बढ़ सकता था। असली ओहदे और हुकूमत सिर्फ अंग्रेज़ों के हाथ में थी।

और मुश्किल यह भी थी कि अंग्रेज़ अफसर जो पहले बहुत खुशदिली से अपने मातहतों से मिलते थे और कभी-कभी उनके ख़ानदान की लड़कियों से रिश्ते भी क़ायम कर लेते थे, उन्होंने भी अब दूरी इख़्तियार कर ली थी। और उनसे बहुत बेरुखी और बदतमीजी का बर्ताव करने लगे । उन सफेद मुग़लों का दौर ख़त्म हो गया था जो अपने सिपाहियों के साथ कुश्ती लड़ते थे और नाचते थे और जो मार्च करने से पहले अगले गांव में पैगाम भेज देते थे कि बेहतरीन शतरंज खेलने वाले उनसे मुकाबला करने के लिए तैयार रहें। एक सिपाही सीताराम पांडे ने 1857 के बाद अपनी यादगार में लिखा—

“उन दिनों साहब लोग हमारी जुबान अब से कहीं बेहतर बोल सकते थे। और हम सब बहुत मेलजोल रखते थे। हालांकि आजकल अफसरों को हमारी जबान का इम्तहान पास करना होता है और किताबें पढ़नी होती हैं मगर फिर भी वह हमारी बात नहीं समझ पाते। पहले साहब अपनी रेजिमेंट के लिए नाच पार्टी देते थे और हमारे सब खेलों में हिस्सा लेते थे। जब वह शिकार पर जाते तो हमको भी साथ ले जाते थे। अब तो नाच में भी हिस्सा नहीं लेते क्योंकि उनके पादरियों का कहना है कि यह ग़लत है। पादरी लोगों ने बहुत कोशिश की है और अब भी कर रहे हैं कि वह अंग्रेज़ अफसरों को उनके सिपाहियों से दूर रखें। जब मैं फौज में था तो मेरे कैप्टन के घर में सारा दिन कोई न कोई आता रहता था और वह उनसे बातें करते थे। मैंने अपनी ज़िंदगी में उन लोगों के बर्ताव में बहुत तब्दीली देखी है। मैं जानता हूं कि आजकल साहब लोग अपने आदमियों से सिर्फ उस वक्त बात करते हैं जब बहुत ज़रूरी हो और वह भी इस तरह कि यह साफ़ जाहिर हो जाए कि यह उनके लिए बहुत तकलीफदेह है और जितनी जल्दी वह इसको ख़त्म कर सकें बेहतर है।

एक साहब ने हमसे कहा कि उनकी समझ में नहीं आता कि हमसे क्या बात करें। पहले जब मैं जवान सिपाही था, उस वक्त तो उनको खूब पता था कि क्या कहना है और कैसे कहना है। सिपाहियों की नाखुशी की एक वजह यह भी थी कि उनकी तख्वाह बहुत कम हो गई थी। उनकी डाक का खर्चा या लड़ाई का भत्ता भी धीरे-धीरे ख़त्म हो गया। और नौकरी की शर्तें पहले से कहीं ज़्यादा कड़ी हो गई। जिस ज़माने में अंग्रेजों ने अवध पर कब्ज़ा किया था जो उनमें से बहुत से सिपाहियों का वतन था — उसी ज़माने में एक बहुत नापसंदीदा जनरल सर्विस एनलिस्ट में एक्ट पास किया जिसके तहत सब सिपाहियों को मुल्क के बाहर जाने और लड़ने पर तैयार रहने का हुक्म दिया गया लेकिन कट्टर ऊंची जात के हिंदुओं के लिए “काला पानी” पार करने की मनाही थी इसलिए उनको और भी यक़ीन हो गया कि कंपनी उनकी जात और धर्म तबाह करने पर तुली है।

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