फांसी से बचने के लिए दर-दर भटकते रहे जहीर देहलवी

1857 की क्रांति: दिल्ली पर कब्जे के बाद अंग्रेज दरबार से ताल्लुक रखने वालों को ढूंढकर सजा दे रहे थे। जिन लोगों का दरबार से दूर का भी ताल्लुक था उनके साथ और भी बुरी गुजरी, क्योंकि अगर कोई भी दरबारी पकड़ा जाता तो आमतौर से उसको सजा-ए-मौत ही मिलती थी।

जहीर देहलवी को यह मालूम था इसलिए वह गिरफ्तारी से बचने के लिए जितनी तेजी से भाग सकते थे, भागते रहे। एक रात महरौली की दरगाह में गुजारने के बाद वह बहुत से दूसरे शरणार्थियों के साथ भावहर की तरफ रवाना हुए।

उसी सड़क पर जो थियो ने मई में पार की थी। वहां उनको एक रिश्ते के भाई सदाह दी, जो नवाब के वजीरे-आजम थे। जहा उन्होंने बहुत दिनों बालाई ने पनाह ठीक से खाना खाया और एक हफ्ते तक वहां रहकर अपनी मुसीबतों से उबरते रहे। लेकिन आठवीं रात को उनके मेजबान ने उन्हें उठाया और कहा कि वहां भी अंग्रेज अफसर आ पहुंचे हैं और दिल्ली के सारे शरणार्थियों को गिरफ्तार कर रहे हैं। अगर वह अपनी जान बचाना चाहते हैं, तो फौरन वहां से चले जाएं।

जहीर देहलवी वहां से पैदल चलकर पानीपत पहुंचे जहां वह अपनी खाला के घर अपने बाकी खानदान के लोगों से मिले। लेकिन कुछ ही दिन बाद अंग्रेजों ने इस शहर को भी चारों तरफ से घेर लिया और घर-घर जाकर मुगल रईसों और क्रांतिकारियों की तलाश करने लगे। जहीर बाल-बाल बचे क्योंकि जब अंग्रेज घर में घुसे, तो वह बाहर गए हुए थे। लेकिन उनके खालू, भाई और बहनोई को पकड़कर फांसी दे दी गई।

जहीर रात को वहां से किले के एक और दरबारी जंगबाज खां के साथ भाग खड़े हुए। अंग्रेजों के जाल से बचते-बचाते किसी तरह वह गंगा पार करके बरेली पहुंच गए और फरार होती हुई बागी फौज से जा मिले, जिन्होंने उन्हें अंग्रेजों का जासूस समझकर फौरन गिरफ्तार कर लिया। वह लोग उनको ले जाकर गोली मारने ही वाले थे कि तभी दिल्ली के एक रईस मीर फतह अली, जिन्होंने क्रांतिकारियों  का साथ दिया था और जो वहां से गुजर रहे थे, उन्हें पहचान लियाः

“जब उन्होंने मुझे देखा तो वह घोड़ से नीचे कूद पड़े और अपनी तलवार से वह रस्सियां काट दीं, जिनसे उन्होंने मुझे और जंगबाज को बांध रखा था और हमारा हाथ पकड़कर हमें जनरल साहब (बख़्त खा) के पास ले गए और उनको खूब डांटा और बुरा-भला कहा।

उन्होंने कहा, ‘दगाबाजो, तुमने मेरे बादशाह का घर तबाह कर दिया, और दिल्ली को बर्बाद कर दिया। तुमने उनकी रिआया को खत्म कर दिया और उन्हें बेघर कर दिया। और अभी तक तुम अपनी शरारतों से बाज नहीं आते। यह लोग बादशाह सलामत के नौकर हैं और अंग्रेजों से अपनी जान बचाकर भाग रहे हैं। और तुम इन्हें जासूस मान रहे हो। अगर मैं यहां से नहीं गुजर रहा होता तो तुम इन बेकुसूरों को मार ही डालते’।

फिर रामपुर में जहीर देहलवी तीसरी बार अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार होने से बड़ी मुश्किल से बचे। आखिरकार उन्होंने शायर और दरबारी की हैसियत से महाराजा जयपुर के दरबार में नौकरी और पनाह हासिल की। कुछ दिन वहां ठहरकर वह हैदराबाद चले गए, जहां सरवरुल मुल्क की तरह, उन्होंने निजाम के दरबार में एक नई जिंदगी शुरू की।

और वहीं बीसवीं सदी के शुरू में उन्होंने अपनी जिंदगी की याददाश्तों में बारे में उन काग़ज़ों की मदद से, जो उन्होंने संभालकर रखे हुए थे, ‘जौक, गालिब और मोमिन की जबान में’ मुगल दिल्ली में अपनी जिंदगी और वहां से फरार की दास्तान लिखी। अपने मसौदे के आखिर में वह लिखते हैं: “मेरी उम्र सत्तर से निकल चुकी है। मेरा जिस्म और जहन कमजोर हो चुका है, और मेरी याददाश्त भी कम होती जा रही है। मैं ऊंचा सुनने लगा हूं और ठीक से देख भी नहीं सकता। मैंने जो मुसीबतें देखी हैं, उन्होंने मेरा दिल तोड़ दिया था।

जहीर देहलवी को फिर कभी दिल्ली देखने का मौका नहीं मिल सका। 1911 में उनकी मृत्यु हो गई और वह अपने वतन से दूर, हैदराबाद में ही दफन कर दिए गए।

जहीर की फरार जिंदगी की दास्तान कोई नई नहीं थी। ऐसे ही वाकेआत ज़फर के कई दरबारियों और सलातीन के साथ भी पेश आए थे। बहुत कम लोग ऐसे थे, जो लंबे समय तक अंग्रेजों की तलाशी टोली से बच पाए, खासतौर से इसलिए कि लाल किले से ताल्लुक रखने वालों के सिर पर बड़े इनामों का वादा किया गया था।

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