ईरान संग समझौते पर जफर ने अदालत में कही यह बात
1857 की क्रांति: अंग्रेजों ने जफर को गिरफ्तार कर लिया। 1857 की क्रांति में संलिप्तता और क्रांति के लिए जफर पर मुकदमा शुरू हुआ। मुकदमे के दौरान जफर खोए खोए से रहते थे।
“एक बार उन्होंने अदालत के सामने एक सवाल के बारे में बिल्कुल ही अज्ञानता प्रकट की। सवाल था कि उन्होंने ईरान के साथ साजबाज की थी या नहीं। उन्होंने पूछा ‘क्या ईरानी और रूसी एक ही कौम है?’ बहुत बार उन्होंने अपने आपको उन इल्जामों के लिए निर्दोष बताया जो उन पर लगाए गए, और कभी वह वहां अपनी मजबूरन मौजूदगी से थकावट में एक स्कार्फ को कभी बांधते और कभी खोलने लगते, जैसे कोई बच्चा खेल रहा हो।
सारे इल्जामों के जवाब में ज़फर ने लिखित उर्दू में सिर्फ एक संक्षिप्त लेकिन बहुत नपी-तुली सफाई पेश की, जिसमें उन्होंने बगावत से अपना किसी भी तरह का ताल्लुक होने से साफ इंकार किया और यह कि उस सारे अर्से में उनकी हैसियत बागी सिपाहियों के हाथों एक मजबूर कैदी की थी।
“बगावत शुरू होने से एक दिन पहले तक मुझे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। मैंने उनसे मिन्नत की कि वह चले जाएं… मैं अल्लाह की कसम खाता हूं और वही मेरा गवाह है, कि मैंने मि. फ्रेजर या किसी और यूरोपियन की हत्या का आदेश नहीं दिया… और जो आदेश मेरी मुहर और मेरे दस्तखत से जारी हुए हैं उनकी असलियत यह है कि जिस दिन से बागी सिपाही यहां आए थे और यूरोपियन अफसरों को कत्ल किया गया था, उस दिन से उन्होंने मुझे अपना कैदी बना लिया था और मैं उनके रहमो-करम पर था। वह जो भी फरमान जारी करना चाहते, वह खुद ही तैयार करके मेरे सामने लाते और मुझे उन पर अपनी मुहर लगाने के लिए मजबूर करते… कभी-कभी वह मेरी मुहर खाली लिफाफों पर लगवा लेते। मुझे बिल्कुल मालूम नहीं था कि वह उनमें क्या कागज भेजते हैं और किसे भेजते हैं।
“वह मेरे नौकरों पर इल्जाम लगाते थे कि वह अंग्रेजों को खत भेजते हैं और उनसे मिले हुए हैं… उन्होंने यहां तक कहा कि वह मुझे तख्त से उतारकर मिर्ज़ा मुगल को बादशाह बना देंगे। यह बहुत सब्र और इंसाफ से गौर करने की बात है कि मेरे पास क्या ताकत रह गई थी। उस बागी फौज के अफसरों ने यह तक कहा कि मैं जीनत महल को उनके हवाले कर दूं ताकि वह उन्हें कैद में रख सकें क्योंकि वह अंग्रेजों से दोस्ताना संबंध रखती हैं…
“यह जो कुछ भी हुआ है वह बागी फौज ने किया है। मैं उनके कब्ज़े में था, मैं क्या कर सकता था? मैं बेबस था और अपने डर के हाथों मजबूर था। इसलिए वह जो कुछ भी चाहते थे मुझे करना पड़ता था। वर्ना वह फौरन मुझे मार डालते। यह बात सब जानते हैं। मैं ऐसी मुसीबत में फंस गया था कि मैं अपनी ज़िंदगी तक से ऊब गया था। उन हालात में मैंने दरवेशी और गरीबी का सहारा लिया और सूफियों का जोगिया लिवास अपना लिया।
मेरा इरादा था कि पहले मैं कुतुब शाह के मजार पर जाऊं फिर अजमेर शरीफ और फिर वहां से मक्का। “अगर मैं उनसे मिला हुआ होता तो यह सब किस तरह हो सकता था? और जहां तक बागी फौज के बर्ताव का सवाल है तो मैं आपको बता रहा हूं कि न तो कभी उन्होंने मुझे सलाम किया और न ही सम्मान और इज़्ज़त से मुझे मुखातिब किया। वह दीवाने-खास और तस्बीहखाने में जूते पहने हुए घुस आते थे…
मैं उन सिपाहियों पर कैसे भरोसा कर सकता था, जिन्होंने अपने मालिकों को ही मार डाला था? और जिस तरह उन्होंने उनको मारा, उसी तरह मुझे भी कैद कर लिया और मुझे डराया-धमकाया और मुझे सिर्फ इसलिए जिंदा रखा कि वह मेरा नाम इस्तेमाल कर सकें और उनके कारनामों को मंजूरी मिल सके। जब उन सिपाहियों ने अपने उन आकाओं को ही मार डाला जो बहुत ताकत और सत्ता वाले थे, तो मैं कैसे उनका मुकाबला कर सकता था जबकि मेरे पास न फौज थी और न खजाना…? अल्लाह जानता है और वही मेरा गवाह है कि मैंने वही लिखा है जो सच है।