दिल्ली के साहित्यिक गलियारे से जुड़ी दिलचस्प कहानियां
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
दिल्ली शहर दर शहर में निर्मला जैन लिखती है कि सातवें दशक के मध्य तो वे दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों में लगभग निर्णायक भूमिका निबाह रहे थे। शहर में इस दृष्टि से तीन मुख्य केन्द्र थे। साहित्य अकादमी जिसके सचिव कृष्णा कृपलानी के बाद प्रभाकर माचवे हो गए थे। भारतीय ज्ञानपीठ, जिसका संचालन सूत्र साहु जैन परिवार के दम्पति शान्तिप्रसाद और रमा जैन के हाथ में था और लक्ष्मीचन्द्र जैन उसके निदेशक थे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन जिसके सर्वेसर्वा गोपालप्रसाद व्यास थे। पहली दो संस्थाओं की गतिविधियाँ सभी भारतीय भाषाओं तक व्याप्त थीं।
इसके अलावा टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप हिन्दी के अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में भी पर्याप्त रुचि ले रहा था। ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ तो मुम्बई से निकलते थे पर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ के अलावा उन्होंने ‘दिनमान’ की शुरुआत की। इसी साप्ताहिक के माध्यम से अज्ञेय जी ने हिन्दी पत्रकारिता में विषय और भाषा दोनों दृष्टियों से नए मानक क़ायम किए। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय इसी अखबार से जुड़े थे और बड़े भाई अज्ञेय की तर्ज पर छोटे भाई और मोटे भाई कहलाते थे। श्रीकान्त वर्मा भी इसी से सम्बद्ध थे। इस दुनिया में ज़ाहिर है, नगेन्द्र जी की दखलंदाजी की कोई गुंजाइश नहीं थी।
साहित्य अकादमी की स्थिति दूसरी थी। वहाँ हिन्दी सम्बन्धी मामलों में उनकी पूछ थी और राय का वजन भी था। पर माचवे जी से उनकी विशेष पटरी नहीं बैठती थी। उधर माचवे जी अपने अधीनस्थ सहायक सचिव भारतभूषण अग्रवाल की हर समय ऐसी-तैसी किए रहते थे। भारत जी वहाँ से निकलने के लिए छटपटा रहे थे।
उसी दौरान उनकी पत्नी डॉ. बिन्दु अग्रवाल की नियुक्ति लेडी श्रीराम कॉलेज के हिन्दी विभाग में हो गई। मैं अध्यक्ष होने की हैसियत से कॉलेज की चयन समिति की सदस्य थी। अतः इस बात की गवाह भी कि बिन्दु की नियुक्ति का मुख्य कारण उनकी शराफ़त और व्यक्तित्व की सरलता थी जिससे यह विश्वास पैदा होता था कि वे परम निष्ठा से कर्त्तव्य निर्वाह करेंगी। कॉलेज कुछ तेज़-तर्रार महिलाओं से परेशान था अतः औसत प्रतिभा के बावजूद बिन्दु की नियुक्ति हो गई।
महज परिस्थिति के अनुरोध से। पर अग्रवाल दम्पति ने इसे परम कृतज्ञ भाव से ग्रहण किया। इस प्रसंग से उन्हें वह आर्थिक और नैतिक बल मिला जिसकी उस समय उन्हें बेहद ज़रूरत थी। यह अलग बात है कि इस घटना से माचवे जी से ही नहीं, उनके एक निकट सम्बन्धी परिवार से भी ईर्ष्यावश उनके सम्बन्धों में फाँक आ गई।
इधर हमारे परिवारों के बीच मैत्री सम्बन्ध बड़ी तेज़ी से प्रगाढ़ होते चले गए। भारत जी से मेरा कोई पूर्व परिचय नहीं था। निर्मला जैन ने लिखा है कि बिन्दु की नियुक्ति के बाद उन्होंने जाना कि वे ‘तारसप्तक’ वाले भारतभूषण अग्रवाल की पत्नी हैं। इस बात का भारत जी के मन पर इतना गहरा असर हुआ कि वे बड़ी जल्दी हम लोगों के परम आत्मीय हो गए। मुझे शैक्षिक जगत की अनुशासनबद्ध जड़ता से अनायास मुक्त कराकर रचनाकारों की जीवन्त दुनिया में प्रवेश कराने का श्रेय इसी मित्रता को है।
भारत जी ने ही निर्मला जी का अजित कुमार और स्नेहमयी चौधरी से परिचित कराया और इन्हीं सबके बीच राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी से परिचय हुआ। कहना न होगा, मित्रों की यही टोली नामवर जी से परिचय का निमित्त बनी जो उन दिनों यदा-कदा बनारस से दिल्ली आया करते थे। यूँ सबके परिचय की अपनी अलग- अलग कहानियाँ हैं। अजित जी को स्नेह जी के लिए नौकरी की तलाश थी और भारत जी का आग्रह था कि मैं उनके लिए कुछ करूँ। राजेन्द्र यादव को मेरे घर पहली बार हिन्दी विभाग के रीडर डॉ. ओमप्रकाश लेकर आए थे। वे एकेडमिक काउंसिल का चुनाव लड़ रहे थे और उनका ख्याल था कि उस समय नई कहानी के नामी कथाकार को साथ लाने से वे मेरा वोट सुनिश्चित कर लेंगे। उस दिनों राजेन्द्र जी और उनके बीच ‘सामनेवाली खिड़की’ का सम्बन्ध था।
सबसे दिलचस्प प्रसंग नामवर जी से परिचय का था। मैंने कलकत्ता के भारतीय हिन्दी परिषद् के अधिवेशन में (शायद 1962 में) उनका आलेख-पाठ सुना था, जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया था। उसके बाद पहली मुलाक़ात दिल्ली में नगेन्द्र जी के ही घर पर हुई। वे सम्भवतः डॉ. बच्चन सिंह के साथ डॉ. नगेन्द्र से मिलने आए थे। संयोग से मैं किसी काम के सिलसिले में वहाँ पहुँची। कमरे में घुसी, संक्षेप में अपनी बात कही, और मुड़ने ही वाली थी कि डॉ. नगेन्द्र सहसा बोले, “अरे, तुमने पहचाना नहीं, ये डॉ. नामवर सिंह हैं।” मेरे लिए उनका यह व्यवहार अप्रत्याशित था क्योंकि अपने मेहमानों से किसी का इस तरह औपचारिक परिचय कराना उनकी आदत नहीं थी। मैंने अचकचाकर नमस्कार का आदान-प्रदान किया और उलटे पाँव वापिस हो ली।
कुछ दिन बाद नामवर जी फिर दिल्ली पधारे। इस बार कांस्टीट्यूशन क्लब में कविवर सुमित्रानन्दन पंत के ‘लोकायतन’ पर एक अर्ध-औपचारिक सी संगोष्ठी का आयोजन था। एक के बाद एक धुरन्धर लोग कुछ ऐसी शैली में भाषण दे रहे थे जिसमें निन्दा भी प्रशंसा-सी लगे। वाक्पटुता की परीक्षा का संकट बहुतों की जान साँसत में डाले था। नामवर जी कुछ विलम्ब से टहलते हुए पहुँचे।
उनसे अन्त में बोलने के लिए कहा गया। उन्होंने अत्यन्त संक्षिप्त टिप्पणी की। बेहद सारगर्भित, शालीन, पर मारक। उसके बाद सन्नाटा हो गया। महफ़िल बर्खास्त । मैं भारत जी के साथ थी। लौटते समय मैंने उनसे कहा कि वे नामवर जी से मेरी मुलाक़ात की व्यवस्था करा दें। उन दिनों मैं अपने डी-लिट. के शोध-प्रबन्ध पर काम कर रही थी। नामवर जी अगले ही दिन बनारस लौटनेवाले थे। भारत जी ने इस सुझाव के साथ सूचना दी कि यह दायित्व अजित कुमार को सौंपा जाए क्योंकि वे दिल्ली आने पर अजित जी के पड़ोस में प्रायः देवीशंकर अवस्थी के यहाँ ठहरते हैं। अजित जी ने सहर्ष ज़िम्मेदारी ओढ़ ली।
साहित्यिक अड्डा था मॉडल टाउन
दिल्ली का मॉडल टाउन धीरे-धीरे शहर का साहित्यिक ‘हब’ (अड्डा) बनता जा रहा था। हर रंग के रचनाकार और शिक्षक वहीं बसे थे। किराए और भूगोल दोनों दृष्टियों से इलाक़ा अनुकूल पड़ता था। तब यातायात की इतनी किल्लत भी नहीं थी। सहज रूप से लोग बसों से दूरियाँ तय कर लेते थे। दूसरा सिरा नई दिल्ली का विनय मार्ग, सरोजिनी नगर और आसपास के इलाके थे।
सुरेश अवस्थी और नेमिचन्द्र जैन उधर ही कहीं रहते थे। रघुवीर सहाय और श्रीकान्त वर्मा का डेरा भी वहीं कहीं था। पर असल गहमागहमी तो मॉडल टाउन में ही रहती थी। स्वभाव के मधुर और मिष्टभाषी होने के कारण अजित कुमार का घर लगभग सबका मिलन-स्थल हो गया था। राजेन्द्र-मन्नू शक्तिनगर में रहते थे। वह फ़ासला भी बहुत दूर नहीं था। अजित जी और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के घर अगल-बगल थे।
लगभग रोज़ शाम होते ही हम दम्पति गाड़ी उठाकर अजित जी के घर पहुँच जाते। गाड़ी दरवाज़े पर लगते ही सर्वेश्वर जी बगल से जीना चढ़कर आ पहुँचते । नज़र चूक जाए तो खिड़की से जैसे ही मेरी हँसी की आवाज़ सुनते, अविलम्ब प्रकट हो जाते। इस प्रसंग पर उन्होंने एक कविता भी लिखी थी। फिर धीरे-धीरे उदयभान मिश्र, रमेश गौड़, कभी-कभी देवीशंकर अवस्थी, यहाँ तक कि मीलों की दूरी तय कर कमलेश जी (प्रतिपक्ष वाले) के साथ अशोक वाजपेयी भी कभी- कभार प्रकट होते। जब नामवर जी शहर में होते, वे भी शामिल हो जाते।
इससे पहले नामवर जी की नौकरी को लेकर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपनी चिन्ता डॉ. नगेन्द्र से व्यक्त कर चुके थे। डॉ. नगेन्द्र को उनकी योग्यता और पात्रता में कोई सन्देह नहीं था। बनारस और सागर को उन्होंने जिन कारणों से छोड़ा था, उसका भी उन पर कोई असर नहीं था। चिन्ता थी तो बस यही कि वे उनकी अनुशासनबद्ध कार्य-शैली में पूरी तरह अट सकेंगे या नहीं। एक दिन चहलकदमी करते हुए बुदबुदाए “पंडित जी नामवर के बारे में परेशान हैं।
जिन ससुरों को (उनका इशारा अपने मन्द प्रतिभा गुरुभक्त शिष्यों की तरफ़ था) आए दिन जगह-जगह लगा रहा हूँ, उनका नामवर से क्या मुक़ाबला, पर डर यही है कि आकर पाजीपन न करें।” उन्होंने अपनी इस आशंका को पंडित जी से दूसरे शब्दों में व्यक्त कर दिया, “बाक़ी सब तो ठीक है पंडित जी, पर ‘दिल्ली इज़ ए लॉयल सिटी‘।” पंडित जी ने अपने हँसोड़ स्वभाव के अनुरूप बात नामवर जी से कह दी। नामवर जी सुनकर गम्भीर हो गए, बोले, “पंडित जी, आप डॉ. नगेन्द्र से कह दीजिए कि नामवर सिंह बिकाऊ नहीं हैं।” इतना ही नहीं, कुछ ही दिन पहले वे ख़ुद डॉ. नगेन्द्र से किरोड़ी मल कॉलेज में काशीनाथ सिंह की नियुक्ति के लिए कहने गए थे। इस प्रसंग के बाद उन्होंने काशी को साक्षात्कार के लिए आने से
रोक दिया।
इस घटना से मेरी नज़र में नामवर सिंह का दर्जा ऊँचा उठ गया। उन दिनों उन्हें नौकरी की सख़्त ज़रूरत थी। पाँच वर्ष की बेकारी के बाद भी कुछ हाथ नहीं लग रहा था। ये सब बातें मैंने दूसरों से जानी थीं। दिल्ली आते, तो जहाँ सामान रखते, वहाँ से यायावरी ढंग से निकलते तो तभी वापसी होती जब कपड़े धुलवाने की नौबत आती। बकौल देवीशंकर अवस्थी।
उसी दौर में अजित कुमार के कहने पर उन्होंने मेरे यहाँ चाय पीने का निमन्त्रण स्वीकार किया। पता अजित कुमार ने समझाया था पर वे माल रोड के बजाय बनारसीदास एस्टेट में लगभग डेढ़ घंटे तक मकान ढूँढ़ते-भटकते रहे। अजित दम्पति समेत हम सब प्रतीक्षा में परेशान। टेलीफोन नम्बर शायद उनके पास रहा भी होगा, तो उस समय के गवई नामवर जी से यह उम्मीद करना व्यर्थ था कि वे कहीं से फ़ोन का जुगाड़ करेंगे। समय के साथ मेरा धीरज छूट रहा था, पर इस आशंका से कि वे अन्ततः आए तो चाय की जगह भोजन ही करेंगे, मैं तैयारी करती जा रही थी।
आखिर नामवर जी प्रकट हुए, पसीने से लथपथ, पद- यात्रा से थके बेहाल, तमतमाए हुए। घुन्नी मुद्रा के बावजूद अजित पर झुंझलाते हुए। कुछ देर में सहज हो गए और बातचीत का सिलसिला चल निकला। जैसी आशा थी, भोजन का समय हो गया था। खाने की मेज़ पर उन्होंने मूर्धन्य और तालव्य वर्णों के उच्चारण को लक्ष्य करके मुझसे पूछा कि क्या मैं महाराष्ट्री हूँ। मैंने उनका भ्रम दूर करते हुए यह भी बताया कि मैं ‘छायावाद और रस सिद्धान्त’ पर डी.लिट्. के लिए काम कर रही हूँ।
उन्होंने राय दी कि ‘रस-सिद्धान्त’ को प्रतिमान के रूप में लागू करने में व्यावहारिक कठिनाई हो सकती है, इसलिए मैं विषय पर एक बार पुनर्विचार कर लूँ। साथ ही यह भी कि बनारस जाकर ‘छायावाद’ पर मुकुटधर पांडेय के आरम्भिक चार लेखों की प्रति मुझे डाक से भेज देंगे। बड़े स्नेह-सौहार्दपूर्ण वातावरण में गुज़री वह शाम आज भी मेरी स्मृति में अंकित है। विदा लेने लगे तो मैंने अजित जी से एक तरफ ले जाकर पूछा कि क्या नामवर जी वायदे के मुताबिक़ लेख सचमुच भेज देंगे? अजित जी ने शरारत
से मुस्कुराते हुए उत्तर दिया कि अगर वे मेरा घर चाहने के लिए भीषण गयी के से मुस्कुराते कर सकते हैं तो लेख भी आ ही जाने चाहिए। बात आई-गई हो गई, डेढ़ घंटा शुयकामनाओं के पत्र के साथ सप्ताह बीतते-बीतते मिल गए। मैंने कृता महसूस किया।
इस घटना के कुछ ही समय के बाद अचानक मित्रों से खबर मिली कि नामवर जी जनयुग’ के सम्पादक होकर दिल्ली आ रहे हैं। ज़ाहिर है, इस समाचार से मित्र-मंडली बहुत प्रसन्न और उत्साहित हुई। अजित जी, राजेन्द्र, मन्नू और भारत भूषण अग्रवाल के परिवारों के साथ इस बीच हम लोगों के बड़े आत्मीय सम्बन्ध हो गए थे। अलग-अलग भी और एक टोली के रूप में भी।
भारत जी तब जंगपुरा में रहते थे। फिर भी दूरियाँ फलाँगते हुए परिवारों के बीच नियमित मिलना-जुलना होता था। जैन साहब बड़े अच्छे मेज़बान थे। साहित्य से उनका कोई लेना-देना नहीं था, पर बड़े धैर्य और प्रसन्न भाव से वे हम सबके मूक श्रोता बने रहते। ऊबने पर, किसी के दीवान या सोफे पर झपकी ले लेना उनकी आदत में शुमार हो गया था। उन्हें हमारी बौद्धिक तकरारें बड़ी मनोरंजक लगतीं। गाहे-बगाहे बड़ी प्रसन्न मुद्रा में कोई मारक टिप्पणी करने से भी नहीं चूकते। सभी मित्रों के बीच वे बड़े सम्माननीय और प्रिय थे। उन्होंने मेरी मित्र मंडली को लगभग परिवार की तरह अपना लिया था। परम हितु-भाव से सबके
सुख-दुःख के साक्षी होकर। नामवर जी आए तो मित्र-मंडली ने उन्हें भी मॉडल टाउन में ही मकान किराए पर दिलवा दिया और सान्ध्यकालीन बैठकों में उनकी भी शिरकत होने लगी। नगेन्द्र जी भी अपनी साहित्यिक-योजनाओं के सन्दर्भ में उनसे गाहे-बगाहे सम्पर्क करने लगे पर दोनों के दृष्टिकोणों में बुनियादी अन्तर के कारण बात बनी नहीं। यूँ भी डॉ. नगेन्द्र जैसे औसत प्रतिभा वाले खुशामदी तत्त्वों से घिरे रहते थे, वह सोहबत नामवर जी को कभी रास नहीं आई।
इसी बीच भारत भूषण अग्रवाल ने दिल्ली विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. करने का मन बनाया। नियम इसकी इजाज़त नहीं देते थे। एक तो वे अंग्रेज़ी में एम.ए. और वह भी तृतीय श्रेणी में। उधर यह खबर मिलते ही माचवे जी ने डॉ. उदयभानु सिंह को साधकर विश्वविद्यालय के भीतरी तन्त्र में विरोध की मुहिम चला दी। नगेन्द्र जी ने डटकर मोर्चा लिया और सारे नियमों को बलाए ताक रखकर साहित्यकार होने के नाते ‘स्पेशल केस’ के रूप में पंजीकरण करा दिया। भारत जी पर एक और एहसान ।
डॉ. नगेन्द्र उन्हीं दिनों अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘रस-सिद्धान्त’ लिखकर पूरी कर चुके थे और उसे ‘भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका भाग-2’ के रूप में प्रकाशित कराने की योजना बना रहे थे। उन्होंने किसी दिन भारत जी से चर्चा की तो असावधानी से अनायास भारत जी के मुँह से निकल गया कि वे ऐसा न करें क्योंकि साहित्य अकादमी का पुरस्कार स्वतन्त्र रचना पर मिलता है, खंड पर नहीं। बात कहते ही हाथ से निकल गई। डॉ. साहब ने भारत जी के गले में ऐसी रस्सी कसी कि जान छुड़ाए नहीं बन रही थी। वस्तुतः भारत जी मन से उन रचनाकारों के साथ थे जो मुक्तिबोध को मरणोपरान्त यह पुरस्कार दिलाने के लिए प्रयत्नशील थे।
नामवर जी की इस अभियान में विशेष भूमिका थी। भारत जी की गति ‘साँप छछँदर केरी’। वे मेरे मित्र थे अतः लपेट में मैं भी आ गई। डॉ. नगेन्द्र ने ऐसा चक्रव्यूह रचा कि भारत जी की निकासी न हो सकी और पुरस्कार नगेन्द्र जी को मिल गया। इस जानकारी के साथ कि तमाम विरोधियों के सरगना नामवर जी थे। एक दिन मेरे ही घर पर भोज के लिए आमन्त्रित कुछ लोगों के बीच यह चर्चा हो रही थी, जिसमें नामवर जी ने टिप्पणी की थी कि वे ‘रस-सिद्धान्त‘ को आलोचना नहीं, ‘स्कॉलरशिप‘ का ग्रन्थ मानते हैं। एक चुगलखोर ने तत्काल नगेन्द्र जी तक बात पहुँचा दी और उन्होंने मेरी जवाबदेही की। ऐसी छोटी-छोटी बातों पर लोगों की जवाबतलबी करना और उन बातों को गाँठ बाँध लेना उनका सहज स्वभाव था, जिससे वातावरण दमघोंटू बना रहता था। बहरहाल, इस घटना से दोनों के बीच बोलचाल तक बन्द हो गई। डॉ. नगेन्द्र अपने निकटवर्तियों से उम्मीद करने लगे कि वे नामवर सिंह का ‘सोशल बायकाट’ करें। ज़ाहिर है, सूची में मेरा नाम सबसे ऊपर था। कभी हमारे घर में दोनों का आमना-सामना हो जाता तो बाद में हम पर कहर बरपा होता था।
घटनाएँ तेज़ी से घट रही थीं। इस बीच नामवर जी ‘जनयुग’ के साथ-साथ दो वर्ष के अनुबन्ध पर ‘राजकमल प्रकाशन’ के साहित्यिक सलाहकार नियुक्त हो चुके थे। कुछ ही महीने गुज़रे थे कि शीला सन्धू ने उनके सामने दोनों में से एक का चुनाव करने की पेशकश कर दी। नामवर जी ने मुझसे सलाह की तो मैंने राय ‘जनयुग’ के पक्ष में दी। इसके बावजूद कुछ वित्तीय लाभ और कुछ प्रकाशकीय चकाचौंध के कारण उन्होंने राजकमल का वरण किया और दो वर्ष पूरे होते ही वहाँ से उनकी मुक्ति हो गई।
हाथ में ‘आलोचना’ के सम्पादन के अलावा कुछ न था। उन्होंने बनारस लौटने का निर्णय लिया-कुछ-कुछ क्रोध और आवेग में। पर भारत जी और मेरे समझाने पर वे रुक गए। हमें लगता था कि वापसी पर वे फिर उसी किनारे लग जाएँगे और भविष्य अनिश्चित हो जाएगा। पर सवाल आजीविका चलाने का था, तो उनके परिचितों ने तिमारपुर के फ़्लैटों के बीच डोरीलाल शर्मा नाम के किन्हीं सज्जन के यहाँ उनका प्रबन्ध ‘पेइंग गेस्ट’ के रूप में वाजिब वित्तीय शर्तों पर करा दिया। डोरीलाल जी सम्भवतः किसी स्कूल में अध्यापक थे और नामवर जी के लेखन और ख्याति से परिचित। उन्होंने इस व्यवस्था को अपना अहोभाग्य माना।
अब नामवर जी के पास सड़क पार हमारा पड़ोस और समय ही समय था। सम्पादन, मित्र-मंडली अध्ययन और सन्ध्या-गोष्ठियाँ। वे मुझे और भारत जी को अधिक सुलभ होने लगे और उसी अनुपात में मॉडल-टाउन निवासियों को दुर्लभ । उनके मेज़बानों में कुछ का कारोबार उन्हीं के सहारे चलता था। शाम को नामवर जी से की गई साहित्य-चर्चा अगले ही दिन लेखन में परिणत हो जाती और वे वाहवाही के हक़दार होते।
ज़ाहिर है कि ऐसे लोगों को नई व्यवस्था खटकने लगी। इसे भंग करने का सबसे सरल रास्ता था चुगलखोरी। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से डॉ. नगेन्द्र के कान भरने का अभियान चालू हो गया और सम्बन्धों पर डॉ. नगेन्द्र की चौकसी और कड़ी हो गई। उन्हें बराबर यकीन दिलाया जाने लगा कि वातावरण में उनके विरुद्ध षड्यन्त्र पनप रहे हैं, जिनके सरगना विश्वविद्यालय के भीतर डॉ. उदयभानु सिंह और बाहर नामवर सिंह हैं। कुछ को इस रास्ते व्यक्तिगत लाभ की उम्मीद थी-कुछ निन्दा रस में चटखारा ले रहे थे, कुछ ईर्ष्या के मारे अकारण दाएँ-बाएँ किया करते थे। यहाँ तक कि डॉ. बच्चन सिंह ने बनारस से डॉ. नगेन्द्र को रहस्योद्घाटन-सा करते हुए पत्र लिखा कि नामवर जी आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शिष्यों, सम्बन्धियों को संगठित कर उनके बरक्स द्विवेदी जी के पक्ष में गुटबन्दी कर रहे हैं। मैंने यह पत्र देखा था।
डॉ. साहब ने आव देखा न ताव, सबको जवाबतलबी की गरज से बुलावा भेजा और लगभग ताकीद की कि वे लोग नामवर जी से सम्बन्ध न रखें। ताकीद में प्रच्छन्न धमकी भी रही ही होगी कि उपस्थित लोगों में से विश्वनाथ त्रिपाठी तैश खा गए। मॉडल टाउनी स्कैंडलबाज़ी से वे भी अछूते नहीं थे।
निर्मला जैन ने लिखा है कि उस समय मुझसे विशेष परिचय भी नहीं था। जो बोले, उसका सार यह था कि आप पहले अपने क़रीब के लोगों को तो रोक लें। ऐसी चुनौती? डॉ. साहब उन लोगों को बर्खास्त करके सीधे मेरे घर की तरफ़ लपके। उन्होंने इस प्रसंग को आत्मसम्मान का प्रश्न बना लिया। परिणामतः सहज-स्वाभाविक सम्बन्धों के बीच अजीब आँख-मिचौनी और पैंतरेबाज़ी का सिलसिला शुरू हुआ।
मेरा परिवार और पूरी मित्र-मंडली मेरे ऊपर छाजन ताने हुए, जिनमें तब तक शीला सन्धू भी शामिल हो गई थीं और मैं अपनी स्वतन्त्रता पर अंकुश स्वीकार करने के लिए किसी भाव तैयार नहीं। इसी प्रसंग का विस्तार डॉ. नगेन्द्र द्वारा भारत जी पर जल्दी शोध-प्रबन्ध पूरा करने के दबाव के रूप में हुआ। दबाव डॉ. साहब मेरे माध्यम से बनाते थे, जो ज़ाहिर है, भारत जी को अखरता था। मैं स्वयं अपने शोध-कार्य में जी-जान से जुटी थी। हम दोनों को ही नामवर जी के परामर्श का पूरा लाभ मिल रहा था। जहाँ तक मेरा प्रश्न था, उन्होंने घोर शास्त्रीय विषय पर मुझे शास्त्रबद्ध जड़ता से मुक्त किया। कभी-कभी तकरार का खतरा मोल लेकर भी।
आखिर भारत जी ने संकल्प करके दफ़्तर से छुट्टी ली और धूनी रमा ली। उन्होंने मुझसे कहा कि उनके पास पहले ड्राफ्ट को दोहराने का समय भी नहीं होगा इसलिए मैं उसकी प्रथम पाठक होने की ज़िम्मेदारी ले लूँ। मैंने इस प्रस्ताव से सम्मानित अनुभव किया। डॉ. नगेन्द्र इस प्रक्रिया के साक्षी थे। शोध-प्रबन्ध पूरा हुआ, डॉ. नगेन्द्र ने बिना पढ़े गद्गद होकर हस्ताक्षर किए, ‘दस्तखत करता हूँ, ताकि सनद रहे।’ कहना न होगा, वह हिन्दी के गिने-चुने सर्वोत्तम शोध-प्रबन्धों में से है।
उधर मेरा शोध-प्रबन्ध भी पूरा हो गया था। मेरे मन में दिल्ली विश्वविद्यालय की पहली डी.लिट्. की उपाधि पाने की उमंग थी। उपाधि उस समय प्रकाशित रचना पर दी जाती थी। अतः प्रकाशन-व्यवस्था की समस्या थी। मैंने नेशनल पब्लिशिंग हाउस के श्री कन्हैयालाल मलिक से बात की-दो अनुरोधों के साथ- पुस्तक दो महीने में छप जाए और वह भी आगरा के दुर्गा प्रेस से। उस समय उस प्रेस की बेहद ख्याति थी। मलिक साहब ने बड़ी दरियादिली से प्रस्ताव स्वीकार कर लिए बशर्ते दुर्गा प्रेस के साथ प्रूफ़ मँगाकर पढ़ने और लौटाने की व्यवस्था मैं कर लूँ।
राजेन्द्र यादव ने दुर्गा प्रेसवालों से बातचीत करके व्यवस्था कराने का आश्वासन दिया और मेरी एम्बेसेडर गाड़ी में भरकर हम सब आगरा के लिए निकल गए। लगभग पिकनिक के मूड में। वहाँ पहुँचकर तय पाया गया कि जो टैक्सी रोज़ रात को दिल्ली से बारह बजे के बाद अखबार लेकर आगरा जाती है और अगले दिन शाम को वापिस लौटती है, प्रूफों की आवाज़ाही उसी के माध्यम से हो। अगर मित्र साथ न देते तो कुछ घंटों में प्रूफ़ पढ़कर वापिस करना सम्भव हो ही नहीं सकता था। इस काम में अजित जी परम पारंगत थे।
हम लोग रात में आठ बजे मलकागंज के पेट्रोल पम्प से प्रूफ़ इकट्ठा करते और अक्सर गाड़ी सीधे ओबराय इंटर कॉन्टिनेंटल का रुख करती। वहाँ कॉफी हाउस में बैठकर प्रूफ़ पढ़े जाते ताकि नींद बाधा न दे और बारह बजे के बाद उसी पेट्रोल पम्प पर प्रूफ़ लौटाकर घर वापसी होती। कभी-कभी यह काम घर पर सम्पन्न होता और कभी अजित जी की जगह भारत जी ले लेते। इस पूरे अभियान के सारथी थे जैन साहब। रेस्तराँ और कॉफी के शौकीन, पर उससे ज़्यादा मेरी उपलब्धियों में अपना सन्तोष पानेवाले परम उदार और धीर व्यक्ति ।
शोध-प्रबन्ध ‘रस-सिद्धान्त और सौन्दर्यशास्त्र’ छपकर तैयार हो गया और डॉ. नगेन्द्र को कानोंकान खबर नहीं लगी। वैसे वे रात-दिन मुझे काम करता देखते ज़रूर थे, पर उनकी इच्छा थी कि मेरा शोध-प्रबन्ध दिल्ली विश्वविद्यालय की डी.लिट्. की उपाधि के लिए जमा किए जानेवाला पहला शोध-प्रबन्ध न हो क्योंकि विश्वविद्यालय की नियमावली तक साफ़ नहीं थी। वे दो दिन के लिए शहर के बाहर गए और मैंने आवेदन के साथ उनकी गैर-मौजूदगी में प्रबन्ध जमा करा दिया।
लौटने पर सूचना देते हुए प्रति उनकी नज़र की, इस आशंका के साथ कि अब कहर बरपा होगा। पर ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने आश्चर्य मिश्रित प्रशंसा-भाव से अपने को स्थिति के लिए तैयार कर लिया। जैसी आशा थी, कला-संकाय की बैठक में नियमों के हवाले से खूब बमचक मची। दूसरे विभागाध्यक्षों को यह हज़म नहीं हो रहा था कि हिन्दी का कोई शोधार्थी यह पहल करे, और वह भी ऐसे कठिन विषय पर। डॉ. नगेन्द्र ने डटकर मोर्चा लिया और नैया पार हो गई।
मित्रों और परिवार में बहुत उछाह। दीक्षान्त समारोह पर अखबारों ने इस खबर का नोटिस लिया। पर डॉ. साहब के विभागीय सहयोगियों को यह घटना हज़म नहीं हुई। कुछ दिन पहले मुझसे उम्र में काफ़ी बड़ी एक विभागीय सदस्या के किसी दूसरे विश्वविद्यालय से यही उपाधि पाने पर शहर के साहित्यकारों को कला-संकाय में आमन्त्रित कर लगभग जश्न मनाया गया था।
मेरी बारी आई, तो सामान्य रूप से आठ-दस पी-एच.डी. पानेवाले शोधार्थियों के बीच मेरा नाम डालकर अनुसन्धान- परिषद् की बैठक में, जैसा आमतौर पर होता था, चाय का निमन्त्रण चालू कर दिया गया। ज़ाहिर है, मेरे आत्मसम्मान को इससे बेहद ठेस पहुँची। मैंने नगेन्द्र जी की इच्छा और प्रत्यक्ष-परोक्ष आदेशों की अवहेलना करते हुए, शामिल होने से इनकार कर दिया। मेरे इस व्यवहार को उन्होंने अपना अपमान और सत्ता को चुनौती माना। न जाने कहाँ से मैंने वह साहस जुटाया था कि जब उन्होंने यह प्रसंग उठाया तो मैं उनके लचर कुतर्कों का तुर्की-ब-तुर्की जवाब देती रही और वे क्रोध से पैर पटकते हुए विदा हुए।
इतना ही नहीं, इस पूरी स्थिति से अवगत मित्रों में से मन्नू भंडारी ने इस अवसर पर साहित्यिक इष्ट-मित्रों को प्रीतिभोज के लिए आमन्त्रित किया जिनमें डॉ. नगेन्द्र शामिल नहीं किए गए। खबर छिपनेवाली नहीं थी। छिपाने का कोई इरादा भी नहीं था, पर इस घटना ने डॉ. नगेन्द्र की नज़र में हम सबको लगभग विद्रोही गुट का दर्जा दे दिया। वे नहीं जानते थे कि असल विद्रोही हम नहीं थे। विद्रोह तो उनके आसपास के विश्वविद्यालीय परिवेश में पनप रहा है, जिसका एक कारण उनका सामन्तवादी तानाशाही रवैया और दूसरा उनको मित्र वेश में घेरे हुए वे तथाकथित हितू पर वास्तव में ईर्ष्याग्रस्त चाटुकार हैं, जो संकट आने पर मूक- बधिर हो जाएँगे।
इसी बीच, नामवर सिंह की पुस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान’ प्रकाशित हुई जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। वह अलग अजीबोगरीब क़िस्सा था। एक दिन हमारी मित्र-मंडली गाड़ी में भरकर कहीं जा रही थी। औरों के बीच भारत भूषण अग्रवाल और नामवर सिंह भी थे। नगेन्द्र जी को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलने के बाद अक्सर भारत जी लोगों के व्यंग्य-बाणों की नोक पर रहते थे। ऐसे ही किसी सन्दर्भ में उन्होंने ठहाका लगाकर कहा, “गुरुजी (वे परिहास में नामवर जी को ऐसे ही सम्बोधित करते थे), आप भी लिख दीजिए किताब, तो आपको भी दिलवा दूँ पुरस्कार।” मेरी तत्काल प्रतिक्रिया हुई, “भारत जी, वादा पक्का रहा?” और भारत जी ने फक्कड़ाना हँसी हँसते हुए दोहराया, “एकदम पक्का, ये लिखें तो सही।” हम सबको कहीं-न-कहीं विश्वास था कि नामवर जी कुछ करने-धरनेवाले नहीं हैं, पर रह-रहकर मैंने उन्हें ठेलना शुरू किया। विषय कहीं-न-कहीं उनके मन में पक रहा होगा और नगेन्द्र जी को लेकर आक्रोश भी, वरना किसी के वादे और ठेलने से क्या होता। बहरहाल, दबाव हम लोगों ने बनाए रखा। इस अभियान में जैन साहब भी बराबर शरीक हो जाते थे।
अन्ततः पुस्तक पूरी हुई, जिस कठिन प्रक्रिया से गुज़रकर, उसकी साक्षी होने के कारण मैं आज भी उनके कम लिखने या न लिखने के कारणों को समझ सकती हूँ। भारत जी ने वादा पूरा किया और पुरस्कार वितरण समारोह में आचार्य द्विवेदी बड़े गर्व से नामवर जी को बग़लगीर किए कहते सुने गए, “है कोई दूसरा, जिसके शिष्य को भी साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला हो!” दरअसल उन दिनों इस पुरस्कार का बड़ा गौरव और मान्यता थी। उस दौर में हिन्दी की श्रेष्ठ रचनाएँ अधिक संख्या में राजकमल से ही प्रकाशित होती थीं। नामवर जी के दो वर्ष के कार्यकाल में एक बड़ा काम यह हुआ था कि हिन्दी के नामी-गिरामी रचनाकार राजकमल से जुड़ गए थे। साल-दर-साल राजकमल से प्रकाशित किसी रचना को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलता और शीला सन्धू 18 रिंग रोड पर अपने निवास में इस उपलक्ष्य में भव्य प्रीति-भोजों का आयोजन करतीं। आरम्भ की संकोची शीला जी धीरे-धीरे बड़ी आत्मविश्वासी हो गई थीं। हरदेव सन्धू बड़े निर्यात गृह के स्वामी, बेहद सम्पन्न-शालीन व्यक्ति थे। शीला जी की साहित्यिक गतिविधियों में कभी वित्तीय अवरोध उन्हीं के कारण पैदा नहीं हुआ। जब तक प्रकाशन उनके हाथ में रहा, बड़े ईमानदार बेबाक ढंग से कारोबार चलता रहा।
तमाम नामी-गिरामी रचनाकारों को उनकी मेहमाननवाज़ी का लाभ मिला। किसी को हिसाब के बारे में कभी कोई शिकायत नहीं हुई।
उनसे भी मेरी पहली भेंट अजित कुमार ने ही उनके दरियागंज के दफ्तर में कराई थी, संक्षिप्त और औपचारिक। पहली भेंट का प्रभाव दोनों पक्षों में अनुकूल नहीं हुआ था, पर समय के साथ हमारे बीच इतनी पारिवारिक आत्मीयता हो गई कि आज भी हम दोनों ही एक-दूसरे को गिने-चुने परम विश्वासी मित्रों में मानते हैं।
1956-70 के बीच का समय राजनीतिक और साहित्यिक दोनों दृष्टियों से दिल्ली में बड़ा घटना-संकुल दौर रहा है। चीनी आक्रमण के बाद केन्द्र में सत्ता की चूलें हिल रही थीं। आन्तरिक स्तर पर इस्पात कारखानों और भाखड़ा-नॉगल बाँध जैसी कुछ योजनाओं के अलावा, पंचवर्षीय योजनाओं की विफलता से असन्तोष फैल रहा था। अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अपेक्षित सफलता न मिलने के कारण पहले नेहरू का मनोबल टूटा, और अन्त में उनकी मृत्यु हो गई। लालबहादुर शास्त्री की सादगी और निश्छल छवि के कारण जनता में उनके प्रति आदर तो बहुत था पर उनका कद और रौब-रुतबा नेहरू जी की तुलना में कहीं नहीं ठहरता था। राज्यसभा से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की बिदाई हुई। राजेन्द्र यादव ने जवाहर चौधरी के साथ मिलकर अक्षर प्रकाशन खोला। अक्षर प्रकाशन ने आरम्भ में लेखकों और रचनाओं के चुनाव में जिस विवेक का परिचय दिया, उसके कारण देखते-ही-देखते उनकी छवि कुछ ऐसी बनी कि तमाम नामी-गिरामी रचनाकार अपनी रचनाएँ वहाँ से छपवाने के लिए उत्सुक रहने लगे। अनुमान है कि कृतियों का चुनाव राजेन्द्र यादव करते होंगे और उनके प्रोडक्शन का दायित्व जवाहर चौधरी ने सँभाला होगा। बहरहाल, जिन उम्मीदों से यह अभियान शुरू हुआ था, उन पर पानी फिरते लम्बा समय नहीं लगा। अफ़वाह यह थी कि इसकी तालाबन्दी में ‘नई कहानी’ आन्दोलन के दो शेष महारथियों की भी कारगर भूमिका रही थी। नई कहानी आन्दोलन के उतार को लक्ष्य कर तीन तिलंगों ने अपनी पक्षधरता के लिए पीठ ठोंककर देवीशंकर अवस्थी को अपने आलोचक के रूप में तैयार किया। किन्तु दुर्भाग्यवश वे एक सड़क दुर्घटना के शिकार होकर दिवंगत हो गए। ‘नई कहानी’ पत्रिका का सम्पादन भीष्म साहनी के हाथ में आ गया।
विश्वविद्यालय में डॉ. नगेन्द्र के विरुद्ध जो आन्दोलन बल पकड़ रहा था, उसकी नज़ाकत को समझते हुए उन्होंने डॉ. उदयभानु सिंह की रीडर पद पर नियुक्ति भी कर दी, पर बात बनी नहीं। विद्यार्थियों की नज़र अपनी नियुक्तियों पर लगी थी। उन्हें अपनी रोजी-रोटी का सवाल सता रहा था। वामपंथी विचारधारा की पताका के नीचे उन्होंने हल्ला बोला, तो तत्कालीन उपकुलपति अर्थशास्त्री के.एन. राज ने, जो स्वयं भी वामपंथी थे, योजना बनाकर डॉ. नगेन्द्र को ऐसा गिरफ्त में लिया कि उन्हें अध्यक्षता से त्यागपत्र देना पड़ा। छात्रों की अगुवाई औरों के अलावा मुख्य रूप से सुधीश पचौरी और कर्णसिंह चौहान कर रहे थे। इनका साथ लगभग गुमनाम रहकर प्रताप सिंह नेगी दे रहे थे, जिनका काम मुख्य रूप से रात के समय कन्धे पर पोस्टर लादकर चिपकाने का अभियान चलाना था। पर विचारधारा के प्रति सबसे समर्पित सम्भवतः वही थे, जो बाद में इमरजेंसी के दौरान कई महीने गिरफ्तार भी रहे।
उधर अजित कुमार के घर में जमनेवाली सान्ध्यकालीन बैठकें पहले ही भंग हो चुकी थीं। हुआ यह कि उनमें धीरे-धीरे कुछ अवांछित तत्त्वों ने प्रवेश करना शुरू किया। बातों में असंयत बहस-मुबाहिसा और यदा-कदा गरमागरमी होने लगी। मैंने यह भविष्यवाणी करते हुए कि अब माहौल बैठने लायक नहीं रह गया है, किसी दिन बखेड़ा खड़ा होनेवाला है, जाना कम कर दिया। एक दिन सुना कि वहाँ चप्पल चल गई। वादी प्रतिवादी सम्भवतः रमेश गौड़ और उदयभान मिश्र थे। हमेशा की तरह नामवर जी अध्यक्ष पद पर आसीन थे। उपस्थितों में देवीशंकर अवस्थी भी थे। जब चप्पलें हाथों में आ गईं तो शराफ़त के मारे अवस्थी जी बीच-बचाव करने उठे। लगे हाथों दो-एक चप्पल उन पर भी पड़ गईं। अध्यक्ष जी अतिरिक्त गम्भीर मौन धारण किए रहे और अजित जी वाचिक रूप से बीच-बचाव करते रहे। बाद में शायद अजित जी ने पूरे प्रसंग पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की, और सार्वजनिक बैठकी उसके बाद बन्द हो गई।
इसके समानान्तर एक दुर्घटना और हो चुकी थी। होली के अवसर पर मॉडल टाउन निवासी मित्रों की टोली होली मिलन के लिए इकट्ठे होकर एक-दूसरे के घर जाती थी। मित्रों के अनुसार, एक ऐसे ही अवसर पर जब कुछ लोग सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के घर पहुँचे तो किसी प्रच्छन्न कारणवश उन्होंने क्रोध में नामवर सिंह का कुरता फाड़ दिया। प्रतिक्रिया में नामवर सिंह चुपचाप मुड़े और उलटे पाँव लौट गए। लोगों का कहना था कि उन्होंने उस दिन अद्भुत शालीनता और संयम का परिचय दिया। यदि वे भी ठकुराई पर उतर आते तो न जाने क्या होता! बहरहाल, उसके बाद वह होली मिलन भी बन्द हो गया।