महज 8 साल की उम्र में लेनी शुरू की संगीत की दीक्षा

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

उस्ताद शेख दाऊद का परिचय

उस्ताद शेख दाऊद का जन्म 16 दिसंबर, 1916 को सोलापुर (महाराष्ट्र) में हुआ। उनके पिता हाशिम साहिब पी.डब्ल्यू.डी., बीजापुर में ड्राफ्ट्समैन थे। 13 साल की उम्र से ही शेख दाऊद को संगीत और रिदम का शौक हो गया था। बेटे की खुशी के लिए पिता ने उसे एक जोड़ी तबला और ताशे ला दिए। हाशिम अपने बेटे शेख को नियमित नाटक दिखाने जाते थे। नाटक उन दिनों पूरी तरह संगीत-प्रधान होते थे। इस संगीत का शेख दाऊद पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनकी पकड़ बहुत अच्छी थी। जैसा रात को वे नाटक में सुनते वैसा ही सुबह तबले पर बजा देते थे।

8 साल में ली संगीत की दीक्षा

8 साल की उम्र में शेख दाऊद सोलापुर के ही एक शास्त्रीय गायक अमीर कव्वाल से तबले की शिक्षा लेने लगे। सोलापुर के जमींदार उस्ताद कासिम साहिब स्वभाव से सूफी थे। वे हर बृहस्पतिवार को आध्यात्मिक महफिल जमाते थे, जिसमें अमीर कव्वाल कव्वाली गाते थे और शेख दाऊद गाते व तबला बजाते थे। उस्ताद कासिम साहिब स्वयं एक अच्छे तबला वादक थे, लेकिन उन्होंने अभी तक किसी को अपना शागिर्द नहीं बनाया था।

इस तरह बने शार्गिद

4 साल तक कव्वाली और दाऊद का तबला वादन चलता रहा। एक दिन उन्होंने कासिम साहिब से अनुरोध किया कि वे उन्हें अपना शार्गिद बना लें। कासिम साहिब ने उन्हें एक नोट दिया और तबले पर उसे तैयार करने के लिए कहा। दाऊद ने रात भर लगनपूर्वक उसे तैयार किया और सुबह कासिम साहिब को सुनाकर संतुष्ट कर दिया और उनके शागिर्द बन गए।

गया और बनारस रहकर ली शिक्षा

इस प्रकार १२ वर्ष की उम्र में शेख दाऊद कासिम साहिब के शागिर्द बने। कासिम ने तबले की शिक्षा गया, बिहार के उस्ताद अली दाद खाँ और बनारस के उस्ताद तजामुल हुसैन से ग्रहण की थी। 18 वर्ष की आयु तक शेख दाऊद ने वहाँ रहकर तबले की बारीकियाँ सीखीं। उस्ताद कासिम के अनेक तबला वादक घनिष्ठ मित्र थे, जिनमें उस्ताद अब्दुल करीम खाँ, पं. भास्कर बुआ भाकले, उस्ताद शब्बू खाँ, उस्ताद अल्ला दिआ खाँ इत्यादि प्रमुख थे। ये कलाकार समय-समय पर उनसे मिलने आते रहते थे। इनसे भी शेख दाऊद को सीखने को बहुत कुछ मिला ।

रेडियो कार्यक्रम में प्रस्तुति

२० वर्ष की आयु में शेख दाऊद को हैदराबाद रेडियो स्टेशन (उस समय निजी रेडियो स्टेशन था) के कार्यक्रम कार्यकारी एम. ए. राऊफ का कुछ कलाकारों के साथ संगत करने के लिए आमंत्रण मिला दाऊद की संगत और कला से राऊफ और रेडियो स्टेशन के संगीतकार रोशन अली मूलजी बहुत प्रभावित हुए। अब उनका सोलापुर से हैदराबाद रेडियो स्टेशन आना आम हो गया। सन् १९३७ में हैदराबाद रेडियो ने उन्हें स्थायी नौकरी का प्रस्ताव रखा और वे हैदराबाद आ बसे।

कुछ महीनों बाद हैदराबाद रेडियो को निजी हाथों से हैदराबाद के निजाम नवाब अली यावर जंग ने अपने अधिकार में से लिया और यह हैदराबाद राज्य की संस्था बन गया। नवाब अली यावर जंग स्वयं एक संगीत पारखी थे। उनके संरक्षण में सांस्कृतिक मामलों के मंत्री नवाब जहीरयार जंग बहादुर ने उस समय के सभी महान् संगीतकारों को बुलाया। सबके साथ तबले की संगत शेख दाऊद ने की। इस प्रकार उन्हें कलाकारों की तीन-तीन पीढ़ियों के साथ तबले की संगत करने का अवसर मिला।

पंडित भीमसेन जोशी संग संगत

अपने 58 साल के कैरियर में शेख दाऊद को जिन कलाकारों के साथ संगत का अवसर मिला उनमें ‘ आफताब-ए-मौसकी’ उस्ताद फैयाज खाँ, उस्ताद विलायत हुसैन खाँ (गायन), उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद बरकत अली खाँ, रोशनारा बेगम, अब्दुल वहीद खाँ (बेगम अख्तर के गुरु), पं. भीमसेन जोशी, पं. सवाई गंधर्व, पं. बासवराज राजगुरु (उस समय १८ वर्ष के थे), नजाकत सलामत, मुश्ताक हुसैन खाँ, पं. डी.वी. पुलस्कर, पं. विनायक राव पटवर्धन, उस्ताद अलाउद्दीन खाँ, उस्ताद अली अकबर खाँ, रवि शंकर, उस्ताद विलायत अली खाँ इत्यादि शामिल हैं। यह सूची बहुत लंबी है, जिसमें हिंदुस्तानी संगीत की सभी महानतम विभूतियाँ शामिल हैं।

आमतौर पर मंचीय शख्सियत बनने के बाद कलाकार सीखने से तौबा कर लेते हैं, लेकिन शेख दाऊद ने इसके बाद भी उस्ताद अलाउद्दीन खाँ को अपना गुरु बनाया और १२ साल तक उनसे तबला वादन के गुर सीखे। वे अलाउद्दीन के पुत्रों-मोहम्मद खाँ तथा उस्ताद छोटे खाँ के भी शार्गिद रहे। यहाँ रहकर उन्होंने पखावज वादन, गायन, गजल गायकी और सितार सीखे।

अपनी विविधताओं एवं उदार स्वभाव के चलते वे कलाकारों, आयोजकों और साथ-ही-साथ अपने चाहनेवालों आदि सभी के पसंदीदा थे। धीमा ‘झुमरा ठेका हो या तेज ‘लाग्गी’ (ठुमरी-दादरा गायन में) या एक घंटे का एकल तबला वादन हो, दाऊद सभी कलाकारों के साथ-साथ चाहनेवालों सहित सभी को संतुष्ट कर देते थे।

डागर बंधु संग बजाया पखावज

एक बार का सुंदर वाकया है। १९६० के दशक में डागर बंधु हैदराबाद आए। बहुत ही शॉर्ट नोटिस पर ऑल इंडिया रेडियो पर एक रिकॉर्डिंग आयोजित की गई। स्टूडियो में एक छोटा सा श्रोता वर्ग मौजूद था। शेख दाऊद तबले के साथ बैठ गए। सभी लोग अचंभित थे कि डागर बंधु अगर खयाल गायन करेंगे तो पखावज बजानेवाला तो इस समय कोई मौजूद ही नहीं है। लेकिन उन्होंने ध्रुपद / धमार गाना आरंभ किया और शेख दाऊद ने खुले हाथों से पखावज की तरह बजाना आरंभ कर दिया। कार्यक्रम खासा सफल रहा। बाद में डागर बंधु ने शेख दाऊद को गले से लगा लिया और उनके पखावज ज्ञान की तारीफ की। खुलकर

जहीरयार जंग बहादुर उनके पहले शार्गिद

अपने व्यस्त कामकाज के बावजूद शेख दाऊद अपने शागिर्दों के लिए समय निकाल ही लेते हैं। वे समूह में प्रशिक्षण देने को ठीक नहीं मानते, बल्कि अपने प्रत्येक शिष्य को स्वयं सिखाते हैं नवाब जहीरयार जंग बहादुर उनके पहले शागिर्द थे। आज तो उनके अनेक शिष्य देश-विदेश में नाम कमा रहे हैं।

शार्गिदों से नहीं लिए पैसे

शेख दाऊद पैसे के पीछे कभी नहीं भागे। वे अपने शार्गिदों से केवल प्रतीकात्मक रूप से 251 रुपए लेते थे। अनेक संगतों में वे आमंत्रित किए जाते थे, लेकिन उनमें मेहनताने को वे उदारतापूर्वक वापस कर देते थे।

तबला वादक के रूप में शेख दाऊद स्वयं को मुख्य कलाकार का सेवक समझते थे। चाहे वह कोई सम्मानित संगीतकार हो अथवा १२-१४ साल का उभरता सितार वादक, उनके बारे में कहा जाता था कि भारत में तबले के बारे में जितना भी ज्ञान फैला पड़ा है, वह अकेले शेख दाऊद में समाया है।

उस्ताद शेख दाऊद को मिले पुरस्कार

संगीत के प्रति उनके लंबे समर्पित जीवन के लिए उन्हें सन् १९७५ में ‘हिंदू-मुसलिम यूनिटी फ्रंट अवार्ड दिया गया। सन् १९९२ में उन्हें भारत सरकार का प्रतिष्ठित ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ प्रदान किया गया। लेकिन दुर्भाग्य से खराब सेहत के चलते वे स्वयं उसे लेने नहीं जा सके। उनकी तरफ से उनके पुत्र उस्ताद शब्बीर निसार ने यह पुरस्कार ग्रहण किया।

उस्ताद शेख दाऊद का निधन

२१ मार्च, १९९२ को यह महान तबला वादक संगीत की अपनी समृद्ध विरासत को भविष्य के लिए छोड़कर कूच कर गया। उनके पुत्र उस्ताद शब्बीर निसार ने हैदराबाद में ‘तबला नवाज उस्ताद शेख दाऊद अकादमी ऑफ म्यूजिक’ की स्थापना की। इस रूप में वे आज भी अपने शार्गिदों, प्रशंसकों और संगीत की थाप में मौजूद हैं।

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