शतरंज दिल्ली वालों का वक्त गुजारने का शायद सबसे अहम और सबसे पसंदीदा जरिया थी। इस खेल को दूसरे खेलों के मुक़ाबले में अमीराना खेल समझा जाता था। हारुन अलशीद का कथन था कि, “तफरीह के बगैर जिंदगी गुजारना बड़ा मुश्किल है और मेरे ख्याल में एक हुक्मरान (शासक) के लिए शतरंज से बेहतर कोई तफरीह नहीं है।” हिन्दुस्तान में शतरंज बहुत प्राचीन काल से खेली जाती रही है। प्रसिद्ध इतिहासकार मैक्डानल के कथनानुसार चार पहलू शतरंज (चतुरंग) का जिक्र पंद्रहवीं सदी के अंतिम और सोलहवीं सदी के आरंभिक वर्ष में एक संस्कृत लेखक ने किया है। हालांकि वह उससे पहले भी मौजूद थी। इस खेल में चार आदमी शामिल होते थे। दो पासे इस्तेमाल करते थे। पासा फेंकने के बाद जो संख्या आती थी, मोहरे को उसी के मुताबिक चला जाता था।

इस खेल में चौंसठ वर्गों का एक तख़्ता इस्तेमाल किया जाता था और 32 मोहरे आठ-आठ के चार समूहों में इस्तेमाल होते थे हर समूह में एक बादशाह, एक फ़ील, एक घोड़ा और रथ पहली पंक्ति में और दूसरी पंक्ति में उनके चार पैदल सिपाही होते थे। उन्हें इस तरह रखा जाता था कि खिलाड़ी की तरफ़ बाएँ हाथ के कोने में हमेशा रथ होता था। इस तरह इसमें चार बादशाह होते थे, हरके की खिदमत में जो मोहरे होते थे वे सेना के चार सिपाहियों का प्रतिनिधित्व करते थे, जबकि वजीर ग़ैर-हाज़िर होता था ।

एक दूसरे इतिहासकार ब्लैंड का ख़याल था कि शतरंज की शुरुआत ईरान में हुई। तैमूर यही चहार पहलू शतरंज खेलता था और ख़याल किया जाता है कि शतरंज के आम खेल की शुरुआत उसी से हुई। इस नज़रिए के अनुसार वर्तमान शतरंज उसका संक्षिप्त रूप है। दरअसल शतरंज के हिन्दुस्तानी खेल होने के सवाल पर काफ़ी मतभेद रहा है लेकिन अमीर ख़ुसरो के दौर में यह मतभेद ज़्यादा नहीं रहा। खुद अमीर खुसरो इस बात को स्वीकार करते थे कि शतरंज हिन्दुस्तानी खेल ही है। ऐतिहासिक साक्ष्यों और पुराणों को देखते हुए हिन्दुस्तान का यह दावा कि यह खेल उसकी ही देन है, झुठलाया नहीं जा सकता। मौजूदा शतरंज के अलावा शंतरज-ए-कामिल या चहार पत्ती शतरंज भी उस दौर में खेली जाती थी। फिर एक राय यह भी रही कि शतरंज सबसे पहले चीन में खेली गई और चीनियों ने ही इसे ईजाद किया। कहा जाता कि इसे एक चीनी सिपहसालार ने ईजाद किया था जो अपने सिपाहियों को किसी खेल में व्यस्त रखना चाहता था ताकि वे राजनीति में भाग न लें। जर्नल ऑफ़ रॉयल एशियाटिक सोसायटी (1898) में यह रहस्योद्घाटन भी किया गया है कि छठी सदी के आखिरी दौर में किसरा नौशेरवाँ के दरबार में एक हिन्दुस्तानी एलची गया था और ईरान में शतरंज की शुरुआत इसी एलची के जरिए हुई थी। बहुत-से इस्लामी इतिहासों में इस हिन्दुस्तानी एलची का उल्लेख मिलता है जो कन्नौज के राजा के दरबार से गया था।

बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार शतरंज हिन्दुस्तान में 2500 वर्ष पहले खेली जाती थी। पाणिनी (500 ई. पू.) और पतंजलि ने भी अपनी रचनाओं में शतरंज का ज़िक्र किया है। इन रचनाओं से भी यह साबित होता है कि शतरंज का घर हिन्दुस्तान ही था। अब आमतौर पर इस बात पर मतैक्य है कि शतरंज पूरब का खेल है और शायद हिन्दुस्तान ही इसका आविष्कारक है। हिन्दुस्तान से यह ईरान पहुँचा और ईरान से अरब और बहुत बाद में यह पाश्चात्य देशों में पहुँच गया।

मध्य युग में शतरंज की हिन्दुस्तान में बड़ी उन्नति हुई और एक मशहूर हिन्दुस्तानी खिलाड़ी अबुलफ़तह हिन्दी ने इस खेल में इतनी महारत हासिल की कि उसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति हासिल । अमीर खुसरो और मलिक मुहम्मद जायसी के हवालों से पता लगता है कि यह खेल हर तबके में लोकप्रिय था और दिल्ली में शतरंज काफ़ी खेली जाती थी। जायसी की पद्मावत के एक दृश्य में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी और राजा रतनसेन को चित्तौड़ के क़िले में शतरंज खेलते हुए दिखाया गया है।

मशहूर शायर मौलाना अल्ताफ़ हुसैन ‘हाली’ ने लिखा है कि दिल्ली के मिर्ज़ा रहीमुद्दीन ‘हया’ और रहमत अली उन्नीसवीं सदी के शतरंज के बेहतरीन खिलाड़ी थे। उन दिनों दिल्ली में दो तरह की शतरंज खेली जाती थी। एक ‘हाज़िर’ और दूसरी ‘गायब’ यानी नाबीना अंधी शतरंज दिल्ली के अब्दुल हकीम ‘गायब’ शतरंज के माहिर खिलाड़ी थे। ग़ायब या नबीना शतरंज के दोनों खिलाड़ी पर्दे के पीछे बैठ जाते हैं और उनके नमाइदे उनके बताने पर मोहरे शतरंज के बोर्ड पर चलाते हैं।

अकबर को इस खेल का बड़ा शौक़ था। एक रोज़ वह बीरबल के साथ शतरंज खेल रहे थे। चौथी या पाँचवी चाल के बाद अकबर को महसूस हुआ कि उसकी हार निश्चित है। पर्दे के पीछे एक रास्ता महलसरा में जाता था, अकबर चुपके से उस रास्ते से निकल गया ताकि अपनी राजपूत महारानी से सलाह कर सके कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए। महारानी का मशविरा यह था, “बीरबल को अपने वज़ीर जीतने दीजिए और आप अपनी अगली चाल का प्यादा मार लें। इस तरह बीरबल फँस जाएगा और हार जाएगा।

बीरबल समझ गया कि बादशाह अंदर महलसरा में सलाह लेने गए हैं। वह भी बाज़ी छोड़कर अपने घर चला गया। जब अकबर वापस आया और उसने देखा कि उसका प्रतिद्वंद्वी इस बीच बाज़ी छोड़कर चला गया है तो उसे बहुत गुस्सा आया । उसने एक दूत भेजकर फ़ौरन उसे घर से बुलवाया। दूत ने लौटकर कहा कि बीरबल गुस्सा कर रहे थे और उन्होंने कहा है कि वह कुछ देर बाद आएँगे। काफ़ी वक़्त गुज़र गया मगर बीरबल नहीं आया। बादशाह तैश में था और उसने फिर दूत को भेजा और बीरबल को फ़ौरन बुलवाया। इस बार दूत ने आकर यह कह दिया कि बीरबल पूजा कर रहे हैं और थोड़ी देर में आएँगे। बादशाह की अधीरता और क्रोध की यह दशा थी कि वह लगी हुई शतरंज की बाज़ी के आसपास ही चक्कर लगाता रहा। उसने तीसरी बार दूत भेजा और अबके यह धमकी दी कि बीरबल फ़ौरन हाजिर नहीं हुआ तो उसे सख्त सजा मिलेगी। चूँकि शतरंज के खेल में किसी दूसरे से सलाह करना क़ायदे के खिलाफ़ था, बीरबल ने दूत के हाथ यह जवाब लिखकर भिजवा दिया, “जहाँपनाह, अगर आपका मक़सद अपने वजीर के बदले में मेरे प्यादे को मारने का है तो उसका अब कोई फ़ायदा नहीं होगा। बाजी तो उसी वक्त ख़त्म हो गई थी जब हुजुर कानून के खिलाफ़ दरम्यान में ही उठकर सलाह-मशविरा करने के लिए अंदर तशरीफ़ ले गए थे।”

शहजादा सलीम को भी, जो बाद में जहाँगीर के नाम से तख्त पर बैठा, शतरंज का बड़ा शौक था। एक दफ़ा उसने एक राजपूत राजा से शर्त लगाई कि अगर वह बाजी हार गया तो अपनी दिलपसंद दासियाँ, जहाँ बेगम, हयात बेगम और दिलआराम बेगम में से एक को राजपूत राजा को दे देगा। ज्यों-ज्यों बाजी चलती रही सलीम को अहसास हो गया कि वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। पर्दे के पीछे बैठी हुई उन तीनों दासियों से मशविरा करना क़ानून के ख़िलाफ़ था। मगर अपने आप राजपूत राजा से बात करते हुए उसने दासियों तक बाजी की स्थिति पहुँचा दी, इस उम्मीद में कि शायद कोई दासी किसी इशारे से उसकी मुश्किल का हल बता दे। जहाँ बेगम को हल तो कोई नहीं सूझा मगर उसने इस डर से कि सलीम बाजी हारने पर उसी को राजपूत राजा के हवाले न कर दें, यह शेर पढ़ा-

तो बादशाह-ए-जहानी जहां ज़ दस्त बिदिह

कि बादशाह-ए-जहां रा जहां ब कार आयद

(तू ‘जहां’ का बादशाह है, अपने हाथ से ‘जहां’ को मत दे क्योंकि जहां के बादशाह को ‘जहां’ ही काम आता है।) फिर शहजादा सलीम हयात बेगम की ओर से किसी संकेत की उम्मीद करने लगा। मगर उसने भी यह शेर पढ़ दिया-

जहां खुशस्त-ओ-लेकिन हयात गी बायद

अगर हयात न बाशद, जहां चे कार आयद

(जहां तो ठीक है मगर उसका लुत्फ़ उठाने के लिए ‘हयात’ ज़रूरी है। अगर हयात न होगी तो जहां किस काम का ।) सलीम को अपनी इन दोनों दासियों से अपने मसले का हल नहीं मिला। वह आखिर में दिलआराम से किसी हल की उम्मीदें करने लगा। दिलआराम ने उसके मसले का हल ढूंढ निकाला और फ़ौरन यह शेर पढ़ा-

शाहा रुख बिदिह दिल आराम रा मिदिह

पील-ओ-पियादा पेश कुन अस्त किश्त मात

(ऐ शहजादे दो रुख (हाथी) दे दे मगर दिलआराम को मत दे। पील (ऊंट) और प्यादा आगे बढ़ा और घोड़े को चलाकर किश्त दे और बाजी जीत ले।)

शहजादा सलीम दिलआराम के बताए हल पर बड़ा खुश हुआ। पलक झपकते ही चाल उसकी समझ में आ गई और उसने उसे खेलकर अपने विपक्षी को हरा दिया। कई किताबों में तीन दासियों के बजाए चार का जिक्र मिलता है। चौथी दासी का नाम फ़ना था मगर शहजादा सलीम को उससे हल की उम्मीद जहांबेग़म और हयात बेगम के बाद ही थी। फ़ना का जवाब यह था-

जहां-ओ-हयात-ओ-हमा बेवफ़ा अस्त

तलबकुन ‘फना’ रा कि आखिर फ़नाअस्त

(‘जहां’ और ‘हयात’ और सब कुछ बेवफ़ा है। ‘फ़ना’ को बुला क्योंकि आखिर हर चीज़ को फ़न (नष्ट) होना है। यानी ‘फना’ को अपने साथ रख।)

जहांगीर का शतरंज से शौक तख्तनशीनी के बाद और तेज हो गया था। जब वह मलिका नूरजहां के साथ शतरंज खेलता था तो उसके सामने एक वर्गफुट की बिसात और छोटे-छोटे मोहरे न होते थे बल्कि महल के अंदर एक सुसज्जित ज़मीन के टुकड़े पर संगमरमर और मूसा की पच्चीकारी का एक ख़ुशनुमा बिसात का तख्त होता। उस पर सुंदर दासियाँ कुछ प्यादों के लिबास में होतीं, बाक़ी बादशाह और

वजीर के रूप में अपने सिर पर ताज रखे, घोड़ा, फ़ील और रुख अपने सिरों पर खोद लगाए, हाथों में भाले, तलवार और ढालें संभाले मोहरे बनकर अपने खानों में खड़ी होती। बादशाह और मलिका अपनी बुलंद जगह पर बैठे-बैठे अपने-अपने मोहरे को मुनासिब खाने में चलने की फ़रमाइश करते और वह परी-सा सुंदर मोहरा एक दिलरुबा अंदाज़ में अपनी जगह से चलता और अपने रुतबे और दर्जे के मुताबिक़ अपनी प्रतिस्पर्धी पर हमला करता, रोकता या पिटकर बिसात छोड़ देता। इसी तरह पूरी बाजी खेली जाती।

शतरंज के कुछ शब्द ये हैं-

बिसात—-शतरंज खेलने का तख्ता

शातिर–चाल चलने वाला यानी खिलाड़ी

फर्जी—वजीर का दूसरा नाम

चाल–मोहरे को एक घर से दूसरे घर में रखना

रुक्न—मोहरा

घर—खाना

अड़दब—बादशाह का अकेला रह जाना अर्थात् खेल का बिना हार-जीत के समाप्त हो जाना

किश्त— बादशाह को खतरा

मात—बादशाह के सामने बचने का कोई रास्ता न होना। हार और बाज़ी की समाप्ति

अंग्रेज़ों के शासन काल में हिन्दुस्तान के यूरोपीय निवासी पश्चिम ढंग और उसूलों से शतरंज खेलते थे। उन्नीसवीं सदी के अंत में हुए टूर्नामेंट में (1899) दिल्ली के राजा बाबू ने, जो महाराजा पटियाला के खेल विभाग के इन्चार्ज भी थे, 28 मैचों में से 27 जीते थे और उन्हें शतरंज का चैम्पियन क़रार दिया गया था। राजा बाबू ने शतरंज पर एक पुस्तक ‘यार-ए-शातिर’ भी लिखी थी जो अभी तक शतरंज खेलनवालों के लिए एक प्रामाणिक मार्गदर्शिका मानी जाती है। इसमें शतरंज की हर मुमकिन चाल और उसके तोड़ (अगर वह संभव है) का ज़िक्र है। शायद ही कोई चाल जिसमें माथापच्ची करनी पड़ती हो, ऐसी होगी जिसका इस पुस्तक में हवाला हो। इसमें दो सौ से ज़्यादा बाज़ियों की विभिन्न स्थितियों के नक्शे भी दिए गए हैं।

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