चौसर या चौपड़ एक प्राचीन हिन्दुस्तानी खेल है। इसे पच्चीसी भी कहा जाता है। इसके खालिस हिन्दुस्तानी खेल होने में किसी को संदेह नहीं है। चौपड़ महाभारत के काल में भी खेली जाती थी। कौरवों और पांडवों के बीच अक्सर चौपड़ की बाज़ी लगती थी। प्राचीन चतुरंग से भी चौपड़ का संबंध रहा है। कई पुरानी तस्वीरों में मीरा को कृष्ण के साथ चौपड़ खेलते दिखाया गया है। ‘आईन-ए-अकबरी’ में न केवल चौपड़ का नक्शा दिखाया गया है बल्कि यह भी जिक्र है कि चौपड़ खेलने में राजपूतों को बड़ी महारत हासिल है।

आजकल की तरह, चौपड़ उस दौर में भी अलग-अलग रंग की 16 गोटों से खेला जाता था। एक रंग की चार गोटें होती थी। आमतौर पर चार खिलाड़ी दो-दो की जोड़ी बनाकर खेलते हैं। हर खिलाड़ी चार गोटों से खेलता है जिन्हें वह पाँसा फेंकने के बाद चौपड़ के नक्शे पर चलता है। आजकल कौड़ियाँ फेंकी जाती हैं। गोटें काले, पीले, हरे और लाल रंग की होती थीं। काली-पीली और हरी-लाल का जोड़ा होता था, यानी दो साथी काली-पीली गोटें रखते थे और दूसरे दो हरी-लाल । चार अलग-अलग आदमी भी चौपड़ खेल सकते थे।

चौपड़ की शक्ल को इस तरह बताया जा सकता है-दो-दो समानांतर रेखाएँ एक दूसरे को समकोण पर काटती हैं। चारों रेखाओं के एक-दूसरे को काटने से मध्य में एक वर्ग और चार आयतें बनती हैं जो इस वर्ग की चारों रेखाओं से मिली हुई होती हैं। केन्द्रीय वर्ग को छोड़कर चारों आयतों को चौबीस वर्गों में विभाजित किया जाता है और हर आयत पर आठ-आठ वर्गों की तीन पंक्तियाँ होती हैं।

चौपड़ का खेल हिन्दुओं में विशेष रूप से लोकप्रिय था। राजपूत इसे बहुत पसंद करते थे। मुग़ल बादशाह अकबर ने बाद में चौपड़ के टुकड़ों की बजाय इन्सानी शक्लों से खेलने को रिवाज दिया। इसका उल्लेख भी ‘आईन-ए-अकबरी’ में मिलता है। इस प्रकार के चौपड़ को चंडल-मंडल कहा जाता था। चौपड़ के आम खेल में कुर्स या पाँसा इस्तेमाल किया जाता था। यह आमतौर पर हाथी दांत का बना हुआ, चार पहलुओं का टुकड़ा होता था। मुग़लों के दौर में चौपड़ के ज़रिए जुएबाजी सिर्फ़ निचले वर्ग तक ही सीमित न थी। गुलबदन बेगम का कथन है कि जब शाही खानदान काबुल में था तो हुमायूं शर्त लगाकर ही खेलों में शरीक होता था। वह हर खिलाड़ी को बीस-बीस अशरफ़ियां बांटता था, जो शर्त जमानत के तौर पर रखी जाती थीं।

चौपड़ खुशहाल और अमीर घरानों के मुक़ाबले में आम लोगों का खेल ज़्यादा था। अंग्रेज़ों के समय में उन्नीसवीं सदी के आखिर में बल्कि आज से साठ-सत्तर साल पहले भी दिल्ली के लोगों में चौपड़ बहुत लोकप्रिय था। इसे दिल्ली के दुकानदारों से लेकर फेरीवाले, तांगे वाले और मजदूर तक खरलते देखे गए हैं। गर्मियों में दरख्तों के साए में, बागों में, गलियों में, चारपाइयों पर, दुकानों के चबूतरों पर लोग चौपड़ खेलते दिखाई देते थे। बेशक आम जनता में वह जुएबाज़ी का खेल और ज़रिया था।

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