पुरानी दिल्ली के गली कूचों में बनी हवेलियों से हो कर गुजरना एक रोमांच है लेकिन इन हवेलियों में बने छत्तों के बीच से गुजरना अद्भुत है। कभी परिवारों को बांध कर रखने वाले छत्ते आज रास्तों में तब्दील हो गए हैं। यह रास्ते किसी भुलभुलिया से कम नहीं है। लेकिन इन रास्तों का सफर न ही थकाता है और न ही परेशान करता है बल्कि यह इतिहास के उन गलियारों से रूबरू कराता है जो भीड़ भाड़ में कही खो सी गई है। इन राहों पर कही उजाला है तो कही अंधेरा लेकिन एक समान रूप से ठंडक बरकरार रहती है। संकरी रास्तों में ठंडी हवाओं में घुली पुरानी इटों की सीलन की गंध, लकौरी के ईंटों से भरभराती लाल मिट्टी और दीए रखने के मकसद से बनाए गए आले भी उन दिनों का अभास करा रोमांचित कर देते हैं जब इनके मायने हुआ करते थे। गजब के कारीगर थे उन दिनों में जिन्होंने पुरानी दिल्ली को इस कदर तैयार किया जहां सिर्फ अपनापन था और इसकी बानगी भर है चांदनी चौक के शीतल छत्ते।

चांदनी चौक के छत्तों का सफर इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि यहां के बाशिंदे ही इन रास्तों के राहगीर हो सकते हैं। अंजान लोगों के लिए यह किसी भुलभुलिया से कम नहीं है। आज से लगभग सौ-डेढ़ सौ साल पहले चांदनी चौक की सामाजिक संरचना में काफी अपनापन रहा है जो अब भी यहां देखा जा सकता है। लोग दूसरों की मदद के लिए तैयार हो जाते हैं इसलिए इन रास्तों पर खो जाने का डर कम ही है। चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन से होते हुए गली भवानी शंकर में प्रवेश करते ही छतता नमक हराम मिलता है।

छत्ता नमक हराम

छत्ता नमक हराम का नाम ही सुनकर इसके बारे में जानने की जिज्ञासा होती है। दरअसल यह छत्ता भवानी शंकर नाम के शक्स ने बसाई थी। भवानी शंकर की हवेली भी है जिसे नमक हराम की हवेली के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि भवानी शंकर इंदौर के राजा यशवंत राव होल्कर के दाहिने हाथ हुआ करते थे, दिल्ली में ब्रिटिश सेना के साथ लड़ाई में राव होल्कर को सिर्फ इसलिए हार का सामना करना पड़ा किया क्योंकि भवानी शंकर ने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया। भवानी शंकर को इस गद्दारी के लिए भवानी शंकर को इनाम के तौर पर यहां की हवेलियां दी। जिसमें बाद में छत्ता बनाया गया। नमक हराम छत्ते में पिछले कई सालों से पकौड़े बेचने वाले रौशन बताते हैं कि पहले यहां बहुत ठंडक हुआ करती थी, लोग अपने काम निपटा कर फुर्सत में यहां बैठकें किया करते थे। साठ साल पहले यहां लाइटें नहीं हुआ करती थी इसलिए सरकारी मुलाजिम इस छत्ते में दिन ढलते ही लालटेन लटकाया करते थे। शाम ढलते ही शहर में लालटेन की रौशनी हुआ करती थी, खूबसूरत माहौर हुआ करता था। इसी इसी छत्ते के सामने ट्राम भी चला करती थी। सत्तर साल पहले चांदनी चौक की दिलचस्प स्मृतियां रोमांच पैदा करती हैं। इस छतते से यहां रहने वालों की यादें जुड़ी रही होंगी क्योंकि यहां कई सालों तक ट्राम के लिए लोगों ने यहां इंतजार किया।

छत्ता कंदले कसान

अगला पड़ाव फतेहपुरी मस्जिद के सामने होते हुए बल्लीमारन की तरफ जाने वाले रास्ते में पड़ने वाला छत्ता कंदले कसाना है। मुख्य सड़क से बाई ओर एक मेहराब है जो कई साल पुराने छत्ता कंदले कसान की ओर ले जाती है। इस छत्ते में भी मेहराब है हालांकि अंदर रास्ता करीब दस मीटर के बाद बंद हो जाता है। यहां के लोग बताते हैं कि अतिक्रमण के कारण यह रास्ता बंद हो गया। कहां जाता है कि यह छत्ता बल्लीमारन को जोड़ता था। इस छत्ते में पहले कंदले काटे जाते थे। कंदले का मतलब है चांदी की तार। कहा जाता है कि यहां पहले चांदी की तार और वर्क बनाने का काम हुआ करता था। सुबह रोजाना यहां चांदी की सिल्लियां आती थी जिसे यहां छोटे-छोटे चांदी के तार बनाए जाते थे। हालांकि अब चांदी की तार बनाने वाली सारी दुकाने बंद हो गई है, अब इस छत्ते में कलाकार रहते हैं। इसलिए यहां हर त्योहारों की पुरानी दिल्ली वाली रौनक रहती है। लोगों के अनुसार इस छत्ते में अब बैठकें होती है। चूंकि बल्लीमारन की तरफ जाने वाला रास्ता यहां से बंद है इसलिए छत्ता प्रताप सिंह के लिए चांदनी चौक की मुख्यसड़क की ओर होते हुए बल्लीमारन जाना पड़ता है। बल्लीमारन में कई छत्ते हैं। जो अब मकानों में तब्दील हो गई और पर इनके कुछ रास्ते अब भी खुले हुए हैं। अगर बल्लीमारन से लोग लालकुआं तक छत्ते के रास्ते कुछ मिनटों में जा सकते थे। कुछ रास्ते अब भी चांदनी चौक के दुकानदारों के लाइफ लाइन बननी हुई है। बल्लीमारन से होते हुए छत्ता मदन गोपाल, छत्ता प्रताप सिंह और छत्ता शाह जी की ओर जाया जा सकता है। यानि बल्लीमारन से साइकिल मार्केट तक कुछ पांच मिनट में पहुंचा जा सकता है। इन छत्तों के नाम इनके बसाने वालों के नाम पर रखी गई है। कहा जाता है कि प्रताप सिंह, शाह जी, मदन गोपाल रईसों में गिने जाते थे। इन लोगों ने अपने परिवार और परिचितों के लिए मकान बनाए।

इसके अलावा पुरानी दिल्ली स्टेशन के पास छत्ता रेल है जो अंग्रेजों के जमाने में रेलवे की कालोनी हुआ करती थी। यहां उस जमाने के रेलवे कर्मचारी रहा करते थे। लेकिन समय की मार इसपर भी पड़ गई है और जर्जर हो चुकी है।

छत्ते बन गए रास्ते

विजय गोयल, सांसद और विरासत के जानकार

चांदनी चौक के रहने वालों ने शहर बसने के दौरान अपने आसपड़ोस को कुछ नाम दिए जो आज भी इनकी पहचान बने हुए है। बाहर से आए लोगों के लिए यहां के गली- मोहल्ले, कटरा, कूंचे, छत्ते अजीब से होंगे लेकिन इन शब्दों में जो अपनापन है इसका अंदाजा इनकी बसावट को देख कर लगाया जाता है। छत्तों में समूह में लोग रहा करते थे। जैसे मधुमक्खी के छत्ते में एक रानी मक्खी होती है जो सभी को एक साथ रखने के लिए छत्ता बनाती है। इस छतते में उसके परिवार के कई लोग एक साथ रहते हैं। पहले हवेलियां, मकानों में खिड़कियां, दरवाजे, झरोखे, मुंडेर हुआ करती थी। दो लोग अपनी अपनी मुंडेर पर आ कर भी बात कर लिया करती थी। मकान बनाने के स्टाइल में ही अपनापन छुपा था। छत्तों में लोग काम निपटा कर कुछ गपशप भी करते थे। गर्मियों में तो यहां ठंडक और सर्दियों में गर्माहट रहा करती थी। छत्ते रास्ते में तब्दील हो गए। लेकिन आज भी चांदनी चौक को इन रास्तों ने जोड़े रखा है। अगर चांदनी चौक में एक तरफ से प्रवेश करें तो लोग इन रास्तों से होते हुए दूसरी तरफ से निकल भी जाएंगे। सबसे खास बात इस दौरान न ही गर्मी का अहसास होगा और पुरानी धरोहरों से मुलाकात भी हो जाएगी। लोग करीब से हवेलियां, गलियां, कूंचे को देख सकेंगे और महसूस कर सकेंगे।

मधुमक्खी के जैसे थी लोगों में एकता

रामेश्वर दास गुप्ता, पुरानी दिल्ली के बाशिंदे

80 वर्षीय रामेश्वर दास गुप्ता बताते हैं कि पहले शहर में समाज बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था। बड़े बुजर्गो के बिना सहमति के कोई काम नहीं होता था। घर का मुखिया जो कह देता था वो ही बच्चे मानते थे। इसी परिपेक्ष में छत्ते भी थे। एक मुखिया पूरे रिश्तेदारों व कुटुंब को एक जुट रखने के लिए अपनी हवेलियों में बसाता था। छत्ता से मतलब है कि एक ऐसी जगह जहां एक साथ परिवार के लोग रहते थे। इसलिए हर एक छत्ते में आठ दस परिवार रहते थे। यानि पुरानी दिल्ली के छत्ते करीब डेढ़ सौ लोगों का बसेरा हुआ करता था। कुछ जगह आज भी एक परिवार के सभी लोग एक छत्ते में रहते हैं। जैसे गली छत्ता ऊंची मस्जिद में आज भी आठ परिवार एक साथ रहते हैं। कुछ परंपराएं चल रही हैं। अब ज्यादातर छत्तों में कई मकान बना लिए हैं इसलिए इनके रास्ते भी बंद हो गए हैं। लेकिन कई गलियां अब भी छततों से जुड़े हैं। लोगों ने अपनी जरुरतों के हिसाब से इन रास्तों का उपयोग करना शुरू कर दिया है। इन रास्तों को यहीं के रहने वाले बाशिंदे इस्तेमाल कर सकते हैं। बाहर के लोगों के लिए ये रास्ते भुलभुलिया साबित होंगे।

पुराने आर्किटेक्ट की बात ही कुछ और डॉ. प्रियालीन सिंह, पुरातत्व आर्किटेक्ट विशेषज्ञ

पहले भवन वातावरण को ध्यान में रख कर बनाया जाता था। बात चाहे भवनों की हो, गलियों की हो या फिर हवेलियों में बने छत्तों की। लोग पहले शहर रिहाइश के लिए बसाते थे, जबकि आज लोग गाड़ियों के लिए शहर बना रहे हैं। पुरानी दिल्ली की बसावट आज के दौर में काफी अव्यवहारिक लगती है लेकिन मेरे हिसाब से सबसे सुनियोजित तरीके से बसाया गया शहर था चांदनी चौक। इसकी गलियां, कटरे, कूचे, हलेवियां सब की बनावट का स्टाइल बेहतरीन है। आज से सौ डेढ़ सौ साल पहले न बिजली थी और न ही सीमेंट लेकिन उस वक्त की हवेलिया आज भी है। मकान बनाने में कमाल की कारीगरी होती थी। गली इतनी संकरी बनाई जाती थी कि गर्मी के मौसम में भी मकान और गलियों में ठंडक बनी रहे। इसके अलावा सामाजिक परिदृश्य का भी विशेष ख्याल रखा जाता था। लोग अपने काम खत्म करके गलियों व छत्तों में आ कर गपशप किया करते थे क्योंकि उस जमाने में न टीवी था और न मोबाइल। ऐसे में लोग एक दूसरे के साथ मेल मिलाप रखा करते थे। संकरी गलियों में मकान भी आसपास रहा करते थे और उनके छज्जे भी नजदीक। महिलाएं आंगन में आकर रसोई काम काम किया करती थी। इसलिए हवेलियों के बीच में आंगन हुआ करता था। हवेलियां हवादार हुआ करती थी। पहले हवेलियों की बनावट में नक्काशी दार कारीगरी भी हुआ करती थी।

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