राजधानी के सड़कों पर पानी की सुविधा के लिए शायद आपको पानी की रेहड़ी व बोतल पर निर्भर रहना पड़े लेकिन इस शहर में एक पुराना शहर अब जिंदा है जिसमें कुछ पुरानी परंपरा सांसे लेती हैं। पुरानी दिल्ली की गलियों में जहां ठंडक है तो प्यास बुझाने के लिए प्याऊं भी, और इन प्याऊं को तृप्त करने के लिए कुएं भी हैं। पानी की पाइपलाइन के साथ भले ही कुएं के अस्तित्व को शायद मुख्यधारा में न रहे लेकिन इन सब से परे संतोष है कि पुरानी प्याऊं की परंपरा आज भी कायम है। लोग आज भी पानी प्रेम भाव से पिलाते हैं। बाजार इसे अपना पूरा संरक्षण देती है क्योंकि लोग मानते हैं कि पानी पिलाना पुन्य का काम होता है। पुरानी दिल्ली में पानी पीने के लिए पानी की बोतलों की दुकानों की तलाश नहीं करनी पड़ती। हर गली में प्याऊ है और शीतल पानी है। परंपरा से परे इन गलियों में स्थित प्याऊ और कुएं की कहानी भी है। शायद हममें से कईयों को बचपन के दिन भी याद दिला जाती हैं यह परंपरा, जब स्कूल से थके लौटते हुए रास्ते में प्याऊ से चुल्लू से पानी पिया करते थे। शहर के इसी परंपरा को जानने के लिए चलिए उन गलियों से रूबरू कराते हैं जहां प्याऊ और कुएं आज भी लोगों के गले को तर कर रहे हैं।

किनारी बाजार की गली प्याऊ वाली

दरअसल पुरानी दिल्ली के ज्यादातर बाजारों में प्याऊ के लिए अलग स्थान हुआ करता था। हवेली के एक कोने में प्याऊ बनाने की रवायत थी। उसी रवायत के तहत आज भी कुछ पुराने प्याऊ लोगों को शीतल जल पिला रहे हैं। किनारी बाजार में शिव मंदिर प्याऊ करीब सौ साल पुराना है। यहां हर मजहब के लोग अपनी प्यास बुझाते हैं। इसी प्याऊ के ऊपर मस्जिद भी है। मस्जिद में सजदा करने वाले लोग भी यहां पानी पीते हैं। विदेशी पर्यटकों के लिए तो यह आर्कषण का केन्द्र है।

दरीबा कलां में प्याऊ वाली गली

दरीबा कलां में प्याऊ वाली गली में भी करीब सौ साल से ज्यादा पुराना प्याऊ है। इस प्याऊ के कारण इस गली का नाम प्याऊ वाली गली रखा गया है। इस गली में एक कुआं भी है लेकिन सीवर लाइन के कारण उसे ऊपर से ढक दिया गया है। इस कुएं का पानी अब नहीं पिया जाता। इस प्याऊ की देख रेख करने वाले भीम सिंह बताते हैं कि जब वे छोटे थे तो यहां लकड़ी के बने खंभों से बने तखत पर प्याऊ था। करीब साठ साल पहले कई स्थानों पर काठ की गद्दी पर पीतल और तांबे के बर्तनों में पानी पिलाया जाता था। इन बर्तनों में पानी रखना शुद्ध माना जाता है। इसलिए आज भी पानी को रखने के लिए पीतल और तांबे के बर्तन का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्याऊ की देख रेख मार्केट करता है। वे बताते हैं कि पुरानी दिल्ली की रवायत है कि जो भी इस शहर में आए प्यासा न जाए। धर्मार्थ के इसी मकसद से प्याऊ लगाए गए थे। मकसद अब भी यही है, लेकिन इसे देखने का नजरिया बदल गया है। विदेशी शौक से पानी पीते और फोटो खिंचवाते हैं, तो आस पास काम करने वालों के लिए संजीवनी का काम करती है प्याऊ।

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बनाए गए प्याऊ

चर्च मिशन रोड व बर्शाबुल्ला चौक पर आज भी कुछ पुराने प्याऊ देखे जा सकते हैं। इनमें से ज्यादातर प्याऊ में नल लगा दिए गए हैं लेकिन दो प्याऊ में अब भी पुरानी परंपरा जारी है। दोनों प्याऊ में एक व्यक्ति पीतल के बर्तन में लोगों को पानी पिलाते हैं। लोग भी बिना किसी गिलास के चुल्लू में पानी पीते हैं। चर्च मिशन रोड पर पुरानी धर्मशाला के पास प्याऊ में अब भी कुआं है जिस पर पानी खिंचने वाले सभी यंत्र लगे हैं लेकिन अब पानी को खिंचने के लिए मोटर व पानी साफ व ठंडा करने वाली मशीन लगाई गई है लेकिन पानी पिलाने के लिए अब भी एक व्यक्ति को लगाया गया है। दुकानदार महेन्द्र सिंह ने बताया कि यह प्याऊ दूसरे विश्व युद्ध के समय में यहां बनाई गई थी। तब दिल्ली के माहौल में देश को आजाद कराने का जज्बा घुला हुआ था। हर व्यक्ति अपने स्तर पर कुछ न कुछ समाज के लिए करना चाहता था। अंग्रेजों से आजादी के लिए रैली निकालने वालों को पानी पिलाने के लिए व्यवस्था करने के लिए यहां बड़ी प्याऊ लगाई गई। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान चर्च मिशन रोड पर माहौल तनावपूर्ण रहा। चूंकि यहां कुआं स्थित था इसलिए इस पर प्याऊ लगाया गया। यह प्याऊ यहां 1939-40 में बनाई गई थी। जिस बड़े से टैंक में पानी भर कर रखा जाता था वो अब भी है मौजूद है।

चावड़ी बाजार के खूबसूरत प्याऊ

चावड़ी बाजार के प्याऊ वाली गली में खूबसूरत पुराने प्याऊ देखे जा सकते हैैं। इन झरोखों में लगे काठ के फ्रेम में नक्काशीदार काम भी देखा जा सकता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस कदर खूबसूरत हवेली रही होगी। लेकिन अब झरोखे बंद कर दिए गए हैं लेकिन मंदिर और कुआं आज भी है। इस कुएं में मोटर लगा दी गई है और पीने का पानी इससे लिया जाता है। गली से बाहर आते दोनों तरफ बंद पड़े प्याऊ दुखी करते हैं लेकिन उसके बदले में बाजार एसोसिएशन ने प्याऊ लगाया है।

शहर की पहचान बने कुएं व प्याऊ

विक्रम जीत सिंह, धरोहर जानकार

प्याऊ एक परंपरा ही नहीं बल्कि शहर की गलियों और कूचों की पहचान भी हुआ करती थी। दिल्ली के शहरों के साथ गांव की भी पहचान कुआं, बावली, प्याऊ हुआ करते थे। शायद यही वजह रही होगी कि शहरों और स्थानों के नाम इनमें नाम से रखा जाता था। मसलन धौला कुआं, यहां पहले कुआं हुआ करता था। कहते हैं कि यहां एक सफेद रंग का कुआं हुआ करता था, जो गांव के लिए पानी का मुख्य स्त्रोत हुआ करता था। इस कुएं के नाम पर इस जगह का नाम धौला( सफेद) कुआं पड़ गया। कुआं अब वहां नहीं है, लेकिन जगह का नाम आज भी बरकरार है। उसी तरह जनकपुरी में भी धौली प्याऊ नाम की सड़क है। कहा जाता है कि यहां पर पहले प्याऊ हुआ करता था जिसके कारण इस स्थान का नाम धौली प्याऊ पड़ गया। कुएं और प्याऊ को करीब से जानने समझने के लिए चांदनी चौक की गलियों में घूमा जा सकता है। प्याऊ बनवाना लोगों के लिए कितना अहम था यह हवेलियों की कोनों और किनारों में बने प्याऊ के झरोखे देखे जा सकते हैं। इनको देख कर सौ साल पुराने शहर में जाया जा सकता है। कुएं पर लगे पानी खिंचने वाले यंत्र और रस्सी बंधी बाल्टी भी देखी जा सकती है। लोगों को पानी की कमी कभी नहीं हुई। शायद इसकी वजह यहां यमुना नदी और नहर भी रही होगी। तब के लोग यमुना नदी और नहर का पानी पीने के लिए इस्तेमाल नहीं करते थे। इसलिए कुएं अहम स्थान रहे। संपन्न लोगों ने हवेलियों में कुएं भी बनवाए। चूंकि यह बाजार भी था तो यहां आने वाले खरीदारों की सुविधा के लिए हर गली में प्याऊ बनाए गए। हवेलियों के एक कोने में प्याऊ के लिए खास स्थान दिया जाता था। शहर की परंपरा को इन कुएं और प्याऊ ने सींचा है और आज भी यह परंपरा बदस्तूर चल रही है। लोग श्रमदान करते हुए प्याऊ में पानी पिलाते थे। आज भी मंदिरों और गुरुद्वारों में स्वेछा व श्रद्धा से पानी पिलाते हैं।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here