कभी सीपी तो कभी आईटीओ को केंद्र में रखकर हुआ विस्तार
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Delhi: दिल्ली शहर की बनावट और संस्कृति पर आर्थिक उदारीकरण की नीतियों का प्रभाव अलक्षित ढंग से, पर गहराई तक पड़ रहा था। देखते-देखते शहर का बेतरतीब विस्तार होता जा रहा था। शहर का केन्द्र क्रमशः पुराने शहरी इलाक़ों से खिसककर नई दिल्ली हो गया था। लोग आवासीय दूरी का हिसाब कनॉट प्लेस और तिलक ब्रिज को केन्द्र मानकर मापने लगे थे।
सरकारी दफ्तर, संसद भवन, आयकर विभाग, आकाशवाणी, दूरदर्शन, मंडी हाउस के अलावा भी बहुत कुछ यहां से पांच किलोमीटर के घेरे में ही बसा था। इसलिए फैलने के लिए सबसे अनुकूल यमुना पार का वह विशाल क्षेत्र था जो इस इलाके से सबसे कम दूरी पर था।
बाद में आई.टी.ओ. पुल बनाकर इस दूरी को मापना और सुगम बना दिया गया। यह संयोग भर नहीं है कि उस पुल से निकलकर पार की बस्तियों से जोड़नेवाली सड़क का नाम ही विकास मार्ग रखा गया था। नए पुल से जुड़ी तमाम कॉलोनियां, जो ‘विहारों’ के नाम से जानी जाती हैं, मुख्यतः मध्यवर्ग के लोगों के रिहाइशी इलाके हैं। खास बात यह है कि इन ‘विहारों’ और पुराने यमुना पुल होकर जाने पर गांधी नगर और कृष्णा नगर जैसी पुरानी बस्तियों के रहन- सहन और संस्कृति में आज भी बुनियादी अन्तर दिखाई पड़ता है।
पुरानी बस्तियों में आरम्भ में ज़्यादा आबादी दिल्ली के निम्न मध्यवर्ग के लोगों की थी। किराए कम थे। संकरे गली-बाज़ारों की सघन बसागत वाली इन बस्तियों में छोटे स्तर का कारोबार करनेवाले व्यापारियों और कारीगरों की आबादी थी। धीरे-धीरे इन धन्धों का विस्तार थोक बाज़ारी में हो गया।
आमदनी में बढ़त के अनुपात में सम्पन्न परिवारों ने छोटे-छोटे मकानों को मिलाकर अच्छे-खासे हवेलीनुमा घर खड़े कर लिए, कुछ उसी तर्ज पर जिस पर आज भी किनारी बाज़ार और चावड़ी बाज़ार में खुलनेवाली तमाम संकरी गलियां आबाद हैं।
वहां रहनेवालों को सबसे बड़ी सुविधा यह है कि पूजा-स्थलों से लेकर बाजारों तक जीवन की रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वे पद-यात्रा से बखूबी काम चला लेते हैं। दूरी कुछ ज़्यादा हुई तो हर मोड़ पर रिक्शा हाज़िर है। बड़ी संख्या में पुराने दिल्ली शहर के दुकानदार आज भी वहीं से आते-जाते हैं और इस कस्बाई संस्कृति में सुखी- सन्तुष्ट हैं।
पर दिल्ली है कि रुकने का नाम नहीं लेती। विस्तार तो सब बड़े शहरों का हुआ है, पर प्रायः निश्चित दिशाओं में। मुम्बई शहर ने पसरना शुरू किया तो वह समुद्र के किनारे-किनारे सीधी रेखा में बढ़ता गया, पर दिल्ली तो चतुर्दिक बेहिसाब फैलती गई, अनियोजित ढंग से।
जिसके जहां सींग समाए, उसने वहीं डेरा डाल दिया। इस विस्तार का श्रेय काफी हद तक सरकार समर्थित डी.डी.ए. को, और उससे ज़्यादा प्राइवेट बिल्डर्स को दिया जाना चाहिए। इनके अलावा गैर-कानूनी ढंग से बसाई गई बस्तियों की भूमिका अपनी जगह है, जिनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते अब हज़ार की गिनती पार कर गई है।
सब अपने तई आश्वस्त हैं कि एक-न-एक दिन उन्हें वैधता मिल जाएगी, क्योंकि मामला औचित्य का या योजनाबद्ध विस्तार का नहीं, राजनीति के खेल में सत्ता पर कब्ज़ा जमाने का है। इन बस्तियों का भाग्य चुनावों के साथ रहता है-वे विधान सभा के हों या लोकसभा के।