दी यंगिस्तान, नई दिल्ली

दिल्ली के कबूतरबाज उड़ान में दूसरे कबूतरबाजों से शर्तें भी लगाते थे। अगर किसी कबूतरबाज का कबूतर किसी दूसरे की टुकड़ी में भूले से आ फंसता तो एक-दो अशरफियों दिए बगैर उसका छुटकारा न होता। इसके अलावा जिसका कबूतर हो वह बड़ी खुशामद करता। पकड़े हुए कबूतरों के पर कैंच कर दिए जाते। लेकिन कबूतरों को अपने घर की इतनी पहचान होती कि वे इस ताक में रहते कि कब आंख बचे और वे निकल भागे कबूतरबाज अपने जीते हुए कबूतरों के पांवों में सोने की पैंजनियां डालते और दूसरों के पांवों में चांदी और पीतल की पैंजनियां पड़ी रहतीं। कुछ कबूतर इतने नाजुक बदन होते थे कि उनके पांवों में परों के रंग के रेशमी बाने डाले जाते।

कबूतरों को बड़े लाड़-चाव से पाला जाता था उनके रहन-सहन के लिए अच्छी से अच्छी काबुकें बनाई जाती थीं। काबुकों को अपने हाथ से साफ करते, उजली-उजली, चमकदार कटोरियों में दाना-पानी भरते। कबूतरों के नहाने और पानी पीने के लिए छोटे-छोटे हौज़ और फव्वारे लगे होते। कबूतरों की सेहत का पूरा ध्यान रखा जाता। कबूतर की आंख देखकर ही पता लगा लेते कि उसकी तबीयत कैसी है। जरा आंख गदली हुई या चोंच और पांव में कोई ख़राबी नजर आई तो कबूतरबाज़ की नींद हराम हो जाती। दवा इलाज फ़ौरन शुरू कर दिया जाता।

आम तौर पर हर कबूतरबाज को अपने कबूतरों की बीमारियों का निदान और उनका इलाज करना आता था। अगर किसी कबूतरबाज़ को कोई बीमारी समझ में नहीं आती तो वह अपने कबूतर को हाथ में लेकर किसी दूसरे बुजुर्ग या अनुभवी कबूतरबाज़ के पास ले जाता और उसकी सलाह के अनुसार इलाज शुरू कर देता।

शाहदरा का कन्हैया नामक कबूतरबाज़ और जामा मस्जिद पर खलील नामक कबूतर बेचने वाला कबूतरों की बीमारियों के माहिर समझे जाते थे वे कबूतर को हाथ में लेकर उसकी आंखों, चोंच और पंजों की जांच से बीमारी का पता लगा लेते थे। कन्हैया के बारे में तो यह भी मशहूर था कि वह अपनी एक उंगली से कबूतर की छाती को ठोंककर दिल और सीने की बीमारी का भी पता लगा लेता था।

कबूतरों की आम बीमारियां ये हैं-‘अलगा’- दिल की बीमारी जिसके दौरे से वह बेहोश होकर गिर पड़ता है।

‘खुर्रा’ (खांसी) तकमा, जिस्म पर गाँठों का पैदा होना जो बाजरे के आदी कबूतर को गेहूं खिला देने से होती है।

एक रक गेंदे की बीमारी का नाम है इसे रंजपोटा’ भी कहते हैं और ‘बदी’ जिसमें कबूतर के तालू में जख्म हो जाता है। दिल्ली के ये नामी कबूतरबाज़ कन्हैया और खलील कबूतरों की बीमारियों की दवा भी रखते थे और उसके बनाने की तरकीब भी बता देते थे। कबूतरबाज आपस में किसी भी सलाह और दवा का एक पैसा नहीं लेते थे। बाद में चांदनी चौक में जैनियों के लाल मंदिर से जुड़ा हुआ परिन्दों का एक अनोखा अस्पताल भी खोला गया था जो अभी तक कायम है। इस अस्पताल में दूर-दूर से घायल और बीमार परिन्दों को इस शर्त पर दाखिल कर लिया जाता था कि ठीक होने पर उन्हें आज़ाद कर दिया जाएगा।

कबूतर पालने वालों के मकानों की छतों पर बनी कबूतरों के लिए छतरियां बांसों से बनती थी। उनमें खपच्चियों और लोहे के तारों का भी इस्तेमाल कर लिया जाता था। एक चौकोर, जालीदार टट्टी को बांस पर बांधकर उसे खड़ा कर देते और छतरी तैयार हो जाती। यह कबूतरों के बैठने का अड्डा होता था। पुरानी दिल्ली में जब कबूतरबाजों का शौक सीमा पर था तो गली-गली कूचे कूचे में उन छतरियों का जाल-सा बिछा होता था बिल्कुल उसी तरह जैसे आजकल टेलीविज़न के ऐंटिना छतों पर नज़र आते हैं।

कबूतरों को अपना घर, काबुक और काबुक में अपना खाना बहुत प्यारा होता था। क्या मजाल जो कोई दूसरा कबूतर भूलकर भी उसके खाने में घुस जाए। दूसरा मार-मार उसका बुरा हाल कर देगा।

कबूतरों को बिल्ली से बचाने के लिए भी पूरा इंतजाम करना पड़ता था। अगर कोई बिल्ली किसी कबूतर को मार देती या जख्मी कर जाती तो कबूतरबाज का चैन-आराम जाता रहता कबूतरों के बारे में यह भी विश्वास था कि उनकी हवा तपेदिक के मरीज के लिए बहुत फायदेमंद होती है। कुछ मुसलमान कबूतरों को ‘सैयद’ कहा करते थे।

उड़ने वाले कबूतर दो तरह के होते हैं-गिरहबाज और गोला। सुनते हैं कि उड़ने वाली किस्मों में सबसे पहले गिरहबाज काबुल से लाए गए थे। पहले कबूतरों की यही क़िस्म उड़ाई जाती थी। गोला बाद में आए। ये ईरान, अरब और तुर्किस्तान से लाए गए थे। गिरहबाज कबूतरों की यह शान थी कि सवेरे उड़ते तो घंटों मकान के ठीक ऊपर आसमान में चक्कर लगाते रहते। ये कबूतर दिन-दिन भर उड़ते रहते और कहीं दिन ढले जाकर उतरते थे। गिरहबाज अपने मकान, अपनी काबुक उसमें अपने खाने को दरसों नहीं भूलते थे एक विद्वान जिसे कबूतरबाजी का शौक था, लिखता है, “मेरे यहां का एक गिरहबाज कबूतर किसी दूसरे की टुकड़ी में जाकर फंस गया। वहा उन्होंने मेरे कबूतर के पर काट दिए। तीन साल बाद जब उसके दुबारा पर निकल आए तो वह मेरे आस वापस आ गया और आते ही अपने खाने में घुसकर उस कबूतर से बुरी तरह लड़ने लगा, जिसे मैंने उसके गुम हो जाने के बाद उस खाने में रख दिया था।”

उड़ने वाले कबूतरों की खास ख़ातिर की जाती थी। गोलों को घी-मलाई खिलाई जाती और गिरहबाज़ और गोले जब उड़ते तो आसमान की ख़बर लाते। आप जितनी फुर्ती और तेजी से उन्हें उड़ाना चाहें, उड़ा लें। ये कबूतर हर दिशा में उड़ते हैं। उनकी उड़ान की निराली शान है। सवेरे उड़े तो घंटों मकान का चक्कर लगाते रहेंगे। आप अपने आँगन में एक खुला बरतन पानी से भरकर रख दीजिए उन कबूतरों की परछाइयाँ पानी में दिखाई देती रहेंगी। ये कबूतर सारा दिन उड़ते मगर थकान नाम को न होती कबूतरबाज अपने उड़ने वाले कबूतरों को नशीली चीजें भी खिलाते। उनके खाने से वे मस्त होकर हवा में उड़ते रहते और हिम्मत न हारते। कई कबूतरबाज़ों ने उन्हें ऐसा सचाया था कि आज उड़े तो तीन दिन तक अपनी छतरी पर वापस न आएँ, बस उड़ते ही रहें और उड़ान इतनी ऊँची कि पलक झपकते ही आँखों से ओझल हो जाते। कबूतरबाज़ भी कभी-कभी परेशान हो जाते और टकटकी लगाए आसमान की तरफ़ देखते रहते कि कबूतर यहाँ गायब हो गए और कब लौटेंगे। ऐसे कबूतर अकेले भी उड़ाए जाते और दूसरे कबूतरों के साथ भी अगर अकेला कबूतर आसमान से ग़ायब हो जाता तो परेशानी ज़्यादा हो जाती, मगर जब कबूतरबाज़ का लाडला कबूतर वापस आ जाता तो उसकी बाँछें खिल जातीं।

कबूतरों को सपाने का काम काफी मुश्किल और धैर्य की परीक्षा लेने वाला है। अट्ठाईस दिन की उम्र में ही उन्हें लगातार सधाना पड़ता है। इस उनका काबुक में दाखिल होना, अपने खाने को पहचानना और सिर्फ उसी में दाखिल होना, काबुक के ऊपर चक्कर लगाना, आसमान में पलटियाँ खाना और उड़ने के बाद काबुक वापस आने की इच्छा पैदा करना और आवाज देने पर लौटाना शामिल हैं। कबूतर अपने आप काबुक में भूख-प्यास की वजह से या अपनी मादा से मिलने की ख्वाहिश से ही वापस आ जाता है, मगर उसके लिए भी तो सधाना पड़ता है कि उन इच्छाओं पर भी क़ाबू पाए। उम्दा तौर पर सधाए हुए कबूतर उड़ान के बाद सिर्फ थक जाने पर या बुलाए जाने पर ही लौटते हैं धुंध, कुहर, बारिश और मीसम की खराबी की वजह से भी जब नजर कम आता है, कबूतरों की उड़ान पर असर पड़ता है।

उनकी उम्दा, निर्दोष उड़ान, उनकी अच्छी सेहत और काबुकों और ख़ानों की सफाई और अच्छा दाना और साफ़ पानी मिलने पर निर्भर होती है। उन्हें अभ्यास के लिए कुछ ऐसी उड़ानें करानी पड़ती हैं, जिनका शुमार उनकी रोजाना कसरत में होता है।

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