‘मुजरा’ फारसी का शब्द है और उसका अर्थ है-सलाम और आदाब। शाही दौर में जब कोई आदमी दरबार, मजलिस और महफिल में आना चाहता तो कहा जाता कि हुजुर फला आदमी मुजरे के लिए हाजिर होना चाहता है। लेकिन मुगलों के जमाने में जब कोई तवायफ नाच शुरू करती तो पहले झुककर सलाम करती और फिर कहती हुजूर मुजरा अर्ज करती हूं। इस तरह से ‘मुजरा’ शब्द नाच-गाने के लिए – इस्तेमाल होने लगा और नाचने-गाने की विधा से संबंध रखने वाली महिलाओं को मुजरेवालियां कहने लगे। उन दिनों औरतों का नाच-गाना बुरा समझा जाता था और दरबारों और महफिलों में तवायफ ही गाती और मुजरे करती थीं।

जिन समारोह में स्त्रियों शामिल होती और शान-शौकत के लिए मुजरा कराया जाता, उनमें वे पर्दे के पीछे होकर मुजरा देखतीं। उन दिनों अच्छे और शरीफ घरों की महिलाएं दिल बहलाने के लिए सिर्फ दोलक पर गीत गा लिया करती थीं और वह भी चारदीवारी के अंदर व्याह-शादी के मौके पर अगर औरतें नाचतीं भी तो आम तौर पर उस वक़्त जब कोई मर्द घर में न होता। केवल गोदी के बच्चे या ज्यादा से ज्यादा चार-पांच साल के लड़के ही औरतों के नाच में बैठ सकते थे। फिर यह रिवाज हो गया कि हर खाते-पीते घर में खुशी के मौके पर चाहे बच्चे का जन्म-दिन हो, शादी की सालगिरह हो या घर में शादी-ब्याह हो या कोई और उत्सव हो तो मुजरा जरूर कराया जाता। मुजरे के लिए दूर-दूर से मुजरेवालियां बुलाई जाती थीं।

इन मुजरेवालियों के ठाठ-बाट और नाज-नखरे निराले होते थे। ये तवाइफे भारी-भारी पिश्वाज (नृत्य के समय पहना जाने वाला लहंगा) पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर, जेवरात में लदी हुई चौथी दुलहन बनकर आती थीं। उनके साथ युवतियां, साजिंदों के साथ पान उठाने वाले भी होते थे। अदाएं, मतवाली चाल, शोखीभरी, आंखें, रंग-रूप और सजधज देखकर लोग मस्ती में डूब जाते जिस किसी की हवेली या घर पर मुजरा होता वहां बिन बुलाए लोगों की एक भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। आमतौर पर मुजरे के अवसर पर जब तक कि मुजरा खास तौर से हवेली के अंदर मर्दाने में सिर्फ घर के मालिक और उसके निजी दोस्त तक सीमित न हो, लोगों को आने से नहीं रोका जाता था। इन नाच-गानेवालियों पर हजारों और कभी-कभी लाखों रुपए खर्च हो जाते थे। इसलिए मुजरा करवाना अमीर होने का परिचायक समझा जाता था।

यों तो दिल्ली में शादी-ब्याह और रीति-रिवाजों में काफ़ी रौनक रहती थी लेकिन मुजरे के लिए तो विशेष आयोजन किया जाता था। घर के आंगन, दालान और दालान-दर-दालान में ख़ूब सजावट की जाती थी। झाड़-फानूस और हांडियों से इतनी रोशनी की जाती कि रात भी दिन मालूम होती थी। मुजरेवालियां बड़ी बन-ठनकर आतीं और ठस्से से मर्दों के बीच में जाकर बैठ जातीं और रात भर गाना- नाचना होता रहता। घर की औरतें या मेहमान औरतें मर्दों के बीच नहीं बैठती थीं। वे तो नाच-गाने का तमाशा ऊपर से छज्जों और बालाखानों में चिलमनों के पीछे से देखती रहती थीं और तवाइफें सेहरा और बधाई गातीं तो ऊपर से ही अपने दुपट्टों और पल्लुओं में रुपए बांधकर इनाम और निछावर के तौर पर नीचे लटका देतीं।

मुजरेवालियां गाने और नाचने में तो माहिर होती ही थीं, मगर हाजिर जवाबी की कला में भी निपुण होतीं। एक बार दो मशहूर मुजरेवालियां मुश्तरी और जोहरा किसी रईस की महफिल में बुलाई गई। जिस समय उन्होंने घर के आंगन में कदम रखा तो एक मनचले नौजवान ने, जो महफिल में शरीक था, उन पर फबती कसी, “क्या उम्दा जोड़ी है ?” उन दिनों जोड़ी से अभिप्राय घोड़ियों की जोड़ी होता था और नौजवान का इशारा भी उसी तरफ था और उसने जानबूझकर जुमला कसा था। मुश्तरी ने अभी पांव की जूती भी नहीं निकाली थी कि वहीं से पलटकर जवाब दिया, “हां भई, साईस की औलाद खूब पहचाना।” महफिल में एक गूंज उठा और नौजवान खिसियाना होकर रह गया। चूंकि वह नौजवान उनसे मात खा चुका था इसलिए बदले के मौके की तलाश में था। गाना शुरू होने से पहले ही वह सपरदे साज मिला रहे तो मुजरेवालियां उस नौजवान को जानबूझकर घूर घूर कर देख रही थीं। जब नौजवान से नजरें मिलतीं तो बड़ी शोखी से मुस्करा देतीं। मगर नौजवान ने उनकी घूरती हुई नजरों को भी देख लिया था। नौजवान से न रहा गया और तड़पकर बोला-

“क्यों बी साहबा, क्या निगल जाने का इरादा है ?” इस बार जोहरा की बारी थी, उसने तड़ से जवाब दिया-“हमारे मजहब में सूअर खाना हराम है।”

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