यह दिल्ली के लोगों का पसंदीदा शौक था। मुर्गा लड़ाई के लिए तैयार किया जा सकता था, मगर असली नस्ल के मुर्गे का लड़ाई में कोई जवाब नहीं था। मुर्गों को लड़ाई के लिए तैयार करने और रखने का एक तरीका उनके पंजों और नाखूनों काे सुरक्षित रखना था। उसकी चोंचों को भी चाकू से खुरच कर तेज और नुकीला बना दिया जाता था। लड़ाई के वक़्त मुर्गों के पंजों को कपड़े से बांधने का रिवाज भी था ताकि एक-दूसरे को इतना ज़ख़्मी न कर दे कि जान जाने तक की नौबत आ जाए। जब लड़ाई के लिए दो मुर्गों को आमने-सामने छोड़ा जाता था तो उनके मालिक अपने-अपने मुर्ग के पीछे खड़े हो जाते थे और आवाज़ लगा-लगाकर उसे उकसाते थे कि पहला वार करें। जब मुर्ग एक-दूसरे पर अपनी चोंचों और पंजों से हमला शुरू कर देते थे तो उनके मालिक चिल्लाते रहते थे, “शाबाश पट्टे ! कर हमला मेरे बेटे, मेरे रुस्तम ! बढ़ आगे और कर वार!”

जब दोनों मुर्ग बगैर हार-जीत का फैसला हुए देर तक लड़ते-लड़ते जख्मी हो जाते थे तो उनके मालिक आपसी सहमति से लड़ाई रोक कर उन्हें उठा लेते थे। इसे मुर्गबाजी की शब्दावली में ‘पानी’ कहा जाता था। मालिक अपने मुर्ग के जख्म धोते और गरम-गरम दूध पिलाते और जब मुर्ग की ताकत बहाल होती तो फिर उन्हें लड़ने के लिए छोड़ देते। ‘पानी’ का तरीका चलता रहता और लड़ाई पूरे-पूरे दिन चलती रहती। जब कोई मुर्गा अंधा हो जाता या इतना बुरी तरह घायल हो जाता कि खड़ा ही न हो सके तो वह हारा हुआ समझा जाता।

तीतर और बटेर की लड़ाई

इन परिन्दों को भी आम तौर पर निचले तबके के लोग पालते थे और वही उन्हें लड़ाते थे। ये परिन्दे पिंजरों में रखे जाते और उनके पिंजरे बड़े मजबूत, ऊंचे, खुशनुमा और हवादार होते थे। लोग अपने तीतर या बटेर को एक डोरी से अपने हाथ में बांधकर भी फिरते थे। उनके नाम भी उनकी सिफ़त के अनुसार रख दिए जो थे जैसे ‘रुस्तम’, ‘खलीफा’, ‘गर्दन तोड़’ आदि। उनको लड़ाई के लिए तैयार करने में पानी से गीला रखा जाना और घंटों हाथ में रखना भी शामिल है। इससे उनका हौसला बढ़ता है और वे खुश रहकर बोलते रहते हैं। फिर उनको कुछ दिन भूखा रखा जाता है और जुल्लाब देकर पेट भी साफ कर दिया जाता है। रात को उनके मालिक उनके कान में जोर से चिल्लाकर ‘कू’ कहते हैं, जिसे ‘कूकना’ या ‘चाबी देना’ भी कहते हैं। इस अमल से ये परिन्दे चुस्त और छरहरे हो जाते हैं और उनके बदन में ताकत आ जाती थी।

तीतर और बटेर की लड़ाई के लिए ज्यादा बड़ी जमीन की जरूरत नहीं होती। यह लड़ाई घर में ही या किसी कमरे में या अंदर और बाहर दो-तीन ग़ज खुली जमीन पर कराई जा सकती है। उनकी चोंचें भी चाकू से खरच कर तेज की जाती हैं। इनकी लड़ाई भी मुर्गो की लड़ाई की तरह ही होती है और ये भी अपने विरोधी पर पंजों और चोंचों से हमला करते हैं। लड़ाई में न सिर्फ़ ये बुरी तरह घायल हो जाते हैं, बल्कि एक-दूसरे के पर तक उखाड़ देते हैं। लड़ाई शुरू कराने से पहले फ़र्श पर उनके लिए दाना भी बिखेर दिया जाता है।

हार-जीत का वही तरीका था कि या तो बटेर या तीतर जमी होकर लेट जाएगा और फिर नहीं उठेगा तो मालिक बीच-बचाव करके अलग कर देंगे और या हारा परिन्दा उस जगह से भाग खड़ा होगा। कभी-कभी तीतर या बटेर की लड़ाई में नाजायज तरीके भी इस्तेमाल किए जाते थे। कुछ लोग परिन्दे को कोई नशीली चीज खिला देते थे और वह नशे में धुत्त लड़ता रहता था। मगर इसमें उसके या उसके विपक्षी के मारे जाने का बहुत ख़तरा था। इसी तरह बहुत-से लोग अपने परिन्दे की चोंच में जहरीला तेल लगा देते थे ताकि विरोधी, चोंचों की चोट खाकर और तकलीफ़ बरदाश्त न करके पीछे हट जाए या अगर वह लड़ता रहा तो जहर के असर से उसकी मौत यक़ीनी थी। लेकिन अगर इन नाजायज तरीक़ों का पता लग जाता था तो परिन्दों की लड़ाई रुक जाती थी, मगर दोनों प्रतिद्वंदी मालिकों और उनके साथियों में गाली-गलौज और जूतम-पैजार शुरू हो जाती थी।

लवा और गुलदुम की लड़ाई

दिल्ली में प्राचीन काल में तीतर या बटेर की लड़ाई के कहीं-कहीं लोग लवा और गुलदुम की लड़ाई भी कराते थे। दरअसल इन परिन्दों की लड़ाई का रिवाज लखनऊ में था, मगर वहाँ की देखा-देखी दिल्ली में भी यह शौक़ शुरू हुआ, लेकिन चला नहीं। लवा एक तीतर की क़िस्म होती है मगर यह आम बटेर से छोटा होता है। इनको लड़ाई के लिए उकसाने के लिए, पिंजरे में बंद कर दिया जाता था और इनके सामने एक मादा लवा का पिंजरा रख दिया जाता था, जिसे देखकर दोनों लड़ना शुरू कर देते थे। गुलदुम बुलबुल की तरह का एक परिन्दा होता है, जिसकी दुम के नीचे सुर्ख़ परों का एक गुच्छा होता है। सधाई के दौरान गुलदुम बिखरे हुए अनाज पर लड़ते थे। इनकी लड़ाई चिड़ियों की लड़ाई की तरह होती थी और लड़ाई के दौरान ये बार-बार हवा में उछलते थे।

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