दिल्ली के तख्त पर 1193 से 1320 ई. तक गुलाम वंश का रहा शासन

मोहम्मद गोरी के आगमन से दिल्ली की काया पलट गई। अब न तो यह कोई प्रांतीय नगर रह गई थी, न किसी छोटी-सी रियासत की राजधानी, न राजपूत राजाओं का मुख्य स्थान, बल्कि यह एक बड़ी सल्तनत का राजकीय केंद्र बन गई थी। बड़े साम्राज्यशाही राज्यों का दौर, जो हर्ष के समय समाप्त हो गया था, फिर एक बार शुरू हो गया।

कुतुबुद्दीन ऐबक मोहम्मद गोरी का गुलाम था। बादशाह ने इसे सूबे का नायब (गवर्नर) मुकर्रर किया हुआ था। गद्दी पर बैठकर इसने अपने खानदान का नाम गुलाम खानदान रखा। इस तरह गुलाम खानदान का आरंभ हुआ। उसने चार वर्ष हुकूमत की। उसकी राजधानी पृथ्वीराज की दिल्ली ही रही। रायपिथौरा के किले को ही उसने अपनी राजधानी बनाकर पुराने लालकोट की हदूद को अधिक बढ़ाया। उसके नाम की कई यादगारें मशहूर हैं। सर्वप्रथम है- ‘कुव्वतुलइस्लाम मस्जिद’ (इस्लाम की शक्ति की मस्जिद), जिसे 27 मंदिर तोड़कर उनकी सामग्री से बनाया गया था। इसको उसने 1193 ई. और 1198 ई. के दरमियानी समय में बनवाया। इसके नाम से दो और इमारतें बनवाने का जिक्र आता है। पहली कुतुब मीनार, जो संसार की आश्चर्यकारी इमारतों में गिनी जाने लगी है। दूसरी इमारत, कहते हैं, इसने पृथ्वीराज के किले के अंदर करने सफेद के नाम से बनवाई थी, जिसका अब कोई निशान मौजूद नहीं है।

कुव्वतुलइस्लाम मस्जिद (1193-1300 ई.)

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यह पृथ्वीराज के मंदिर को तोड़कर बनाई गई है। मुहम्मद गोरी ने 1193 ई. में दिल्ली पर विजय पाकर अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा इस मस्जिद को बनवाना शुरू किया था। मुस्लिम इतिहासकारों का कहना तो यह है कि मंदिर की केवल पश्चिमी दीवार तोड़ी गई थी, बाकी मंदिर ज्यों-का-त्यों है और उसमें मस्जिद बना दी गई। लेकिन कनिंघम का कहना है कि सिवा चंद स्तंभों के, बाकी तमाम हिस्सा गिरा दिया गया था। चबूतरा बेशक वहां है और उस पर मस्जिद बनाई गई है।

दरवाजे पर और बहुत सी बातों के अतिरिक्त यह भी लिखा हुआ है :-

हिजरी 587 में ऐबक ने इस किले को फतह किया और इस मस्जिद के बनवाने में 27 मंदिरों की मूर्तियों के सामान को काम में लिया। हर मंदिर की दौलत का अंदाजा बीस लाख दिलवाली था अर्थात 40 हजार रुपये। यह दिलवाली 2 नए पैसे के बराबर होता था। उस वक्त इसके पांच ही दर बन पाए थे। इसके एक दर पर इसकी तामीर का साल 1198 ई. लिखा हुआ है। 1220 ई. में शम्सुद्दीन अल्तमश ने तीन-तीन दर के दो दरवाजे और बनवाए। 80 वर्ष बाद 1300 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने दो दरवाजों का इजाफा किया।

फीरोज शाह तुगलक ने इस मस्जिद की मरम्मत करवाई थी। इस वक्त इसके ग्यारह दर मौजूद हैं, जिनमें तीन बड़े और आठ छोटे हैं। इन ग्यारह दरों की लंबाई 385 फुट है। बड़ी महराब 53 फुट ऊंची और 31 फुट चौड़ी है। मस्जिद की हर दो लंबाई और चौड़ाई आगे और पीछे से 150 फुट है और इधर-उधर की तरफ 75 फुट। इसका सहन 104 फुट से 152 फुट है। इसी सहन के मध्य में अगले दरवाजों के सामने की तरफ लोहे की कीली गड़ी हुई है, जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। हिंदू इस मस्जिद को ठाकुरद्वारा या चौंसठ खंभा भी कहते हैं। इसमें कितने ही दालान और सहंचियां बनी हुई हैं। सबसे सुंदर खंभे उत्तरी भाग में पूर्व की ओर के हैं, जिन पर बड़ी सुंदर पच्चीकारी का काम हुआ है। इसकी सहंचियां भी देखने योग्य हैं, जिनकी छतों पर पच्चीकारी का काम हुआ है। इब्नबतूता ने इस मस्जिद के बारे में लिखा है— ‘मस्जिद बहुत बड़ी और अपने सौंदर्य में अद्वितीय है।’ मुसलमानों के काल से पूर्व यह मंदिर था। इसके सहन में एक स्तंभ है, जिसे, कहते हैं, सात खानों के पत्थरों से बनाया गया है।

इस मस्जिद को आदीना और जामा दिल्ली भी कहते थे। कहते हैं कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने जिन मंदिरों को तोड़कर उनके मसाले से इसको बनवाया, उन मंदिरों को हाथियों द्वारा ढहवाया गया था और जो पैसा हाथ लगा, उससे मस्जिद की तामीर करवाई गई। इस मस्जिद के सामने अल्तमश ने एक नीचे स्थान पर शिव की मूर्ति स्थापित की, जिसे वह उज्जैन के महाकाल के मंदिर से लाया था। इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी सोमनाथ के मंदिर से जो मूर्ति लाया था, उसके टुकड़े-टुकड़े करके इस मस्जिद के दरवाजे के फर्श में लगवा दिया गया। चुनांचे दो मूर्तियां काले पत्थर की मस्जिद के उत्तरी दरवाजे में गड़ी हुई मिली थीं। अल्तमश के काल में इस मस्जिद में पनाह लेने वाले हिंदुओं को ऊपर से पत्थर मारकर मार डाला गया था।

1237 ई. में पुरानी दिल्ली के मलाहदों ने इस मस्जिद को लूट लिया था। तैमूर ने जब दिल्ली पर हमला किया तो हिंदुओं ने भागकर इस मस्जिद में फिर पनाह ली थी। तैमूर ने उनका पीछा किया और उनको कत्ल करवा डाला था।

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