दैत्यों का वध करने के बाद मां काली यहीं रहती थी

इस काली देवी का इतिहास बहुत प्राचीन है। कहते हैं कि लाखों वर्ष हुए जब इस मंदिर के सान्निध्य में देवताओं का वास था, जिन्हें दो दैत्य सदा सताया करते थे। तंग आकर देवता ब्रह्मा के पास अपनी शिकायत लेकर गए। लेकिन ब्रह्मा ने इसमें दखल देने से इंकार कर दिया और उन्हें पार्वती के पास जाने को कहा। पार्वती के मुंह से कुश्की देवी निकली जिसने दैत्यों पर आक्रमण किया और उन्हें मार डाला, लेकिन हुआ यह कि दैत्यों का रुधिर जमीन पर गिरने से हजारों अन्य दैत्य पैदा हो गए जिनके साथ कुश्की देवी का संग्राम चलता रहा। पार्वती को अपनी पैदा की हुई कुश्की को दैत्यों से घिरा देखकर दया आ गई और कुश्की देवी की पलकों से विकराल काली देवी का जन्म हुआ, जिसके नीचे का होठ निचली पहाड़ियों पर टिका हुआ था और ऊपर का आकाश को छू रहा था। उसने मारे हुए दैत्यों का रुधिर पी लिया, जो उनके जख्मों से निकल रहा था और इस प्रकार देवी की अपने शत्रुओं पर पूर्ण विजय हुई। कोई पांच हजार वर्ष पूर्व काली देवी इस स्थान पर आकर बस गई और तभी से वह यहां की मुख्य अधिष्ठात्री देवी के रूप में पुजने लगीं। कदाचित पांडवों ने ही उसे स्थापित किया होगा।

वर्तमान मंदिर का सबसे पुराना भाग 1768 ई. में बना बताते हैं। यद्यपि यह माना जाता है कि देवी का यह स्थान रायपिथौरा के समय में अवश्य रहा होगा और यहां पूजन होता होगा। योगमाया के मंदिर से यह सम रेखा में पांच मील के अंतर पर है। मंदिर मौजा बहापुर में दिल्ली से नौ मील मथुरा रोड पर ओखला के स्टेशन के पास से होकर जाते हुए पक्की सड़क पर पड़ता है। मंदिर पत्थर और चूने का बना हुआ है। देवी की मूर्ति मंदिर के मध्य में स्थापित है जिसके तीन ओर लाल पत्थर और संगमरमर का 6 फुट ऊँचा परदा और कटघरा है। आगे की तरफ संगमरमर की 6 फुट ऊंची चबूतरी है। परदे की बाईं ओर एक फारसी का और एक हिंदी का लेख है, जिसमें लिखा है-“श्री दुर्गा सिंह पर सवार 1821 फसली’

1816 ई. में पुजारियों ने मंदिर का जीर्णोद्धार करने की तजवीज रखी लेकिन लोगों ने सहयोग नहीं दिया। तब लोगों के नाम कागज की परची पर लिखकर देवी के सामने रखे गए और अकबर सानी के पेशकार राजा केदारनाथ का नाम निकला। राजा ने मंदिर के बाहर के बारह कमरे बनवाए और मंदिर का गोपुर बनवा दिया। हर कमरे में एक दरवाजा अंदर और दो बाहर हैं। मंदिर के बारह दरवाजे हैं। मंदिर के सामने दक्षिण की ओर लाल पत्थर के दो शेर हैं, जिनके सिर पर एक भारी घंटा लटकता रहता है जिसको दर्शक बड़े जोर से बजाते हैं। घंटे के अतिरिक्त और भी बहुत-सी घंटियां लटकी हुई हैं, जो यात्री बजाते रहते हैं। पिछले पचास-साठ वर्षों में मंदिर के इर्द-गिर्द यात्रियों के ठहरने के लिए बहुत से मकान बन गए है।

मंदिर में प्रातःकाल आरती होती है। घंटे की आवाज दूर-दूर तक जाती है। दोपहर को भोग लगता है। मिठाई और चने का पकवान भी चढ़ाया जाता है। यात्री कन्या लांगुरे जिमाते रहते हैं, जो यहां बड़ी संख्या में हर वक्त मौजूद रहते हैं। देवी लाल कपड़े की तियल पहने रहती हैं और अलंकारों से श्रृंगार हुआ रहता है। सिर के ऊपर चांदी आदि धातु के छत्तर लटकते रहते हैं। यहां भी पंखा चढ़ता है। घी की एक ज्योति रात-दिन जलती रहती है।

दिल्ली और आस-पास के देहातों में इस मंदिर की बहुत मान्यता है। वर्ष में दो मेले यहाँ खास तौर से लगते हैं- चैत्र शुक्ला अष्टमी और आश्विन शुक्ला अष्टमी को ये छमाही मेले कहलाते हैं। चैत्र की छमाही का मेला बड़ा होता है। हजारों शहरी और देहाती इसमें शरीक होते हैं। मेला सप्तमी से नवमी तक रहता है। रामनवमी को देवी के दर्शन करके ओखला के यमुना घाट पर जाकर स्नान करते हैं, जो मंदिर से दो-तीन मील पड़ता है। यहां वसंत पंचमी को भी मेला होता है और हर शुक्ल पक्ष की अष्टमी तथा मंगल को भी काफी यात्री दर्शन करने आते हैं। यहां के पंड़े चिराग दिल्ली में रहते हैं, जो यहां से दो मील के करीब है। पंडों की संख्या बहुत है, इसलिए चढ़ावे का बंटवारा हो जाता है और बारी-बारी से पंडे पूजा करवाते हैं। पंडों में विद्या का अभाव है।

दिल्ली वालों में वैश्य जाति वाले लड़का-लड़की के विवाह के पश्चात नव दंपति को इस मंदिर में आराधना करवाने एक बार अवश्य ले जाते हैं। किसी समय तो मंदिर उजाड़ में था, मगर अब मंदिर से आधा मील दूर शरणार्थियों की एक बहुत बड़ी कालोनी बस गई है, जो एक नगर ही है और जहां की प्रतिष्ठा और भी बढ़ गई है। 1947 ई. में जब शरणार्थी दिल्ली आए तो मंदिर के पास उनके लिए एक कैंप खोला गया था, जिसे देखने महात्मा गांधी गए थे और मंदिर के चारों ओर घूमकर उन्होंने वहां के मकानों में बसे हुए शरणार्थियों की हालत का निरीक्षण किया था।

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