पांडवों ने स्थापित किया था योगमाया मंदिर
श्रीकृष्ण के जन्म के संबंध में भागवत में कथा है कि वह योगमाया की सहायता से कंस के जाल से बच पाए। उसी योगमाया की स्मृति में संभवतः पांडवों ने यह मंदिर स्थापित किया होगा या यह हो सकता है कि जब खांडव वन को जलाकर कृष्ण और अर्जुन निवृत्त हुए तो उस विजय की स्मृति में यह मंदिर बना दिया गया हो, क्योंकि बिना भगवान की योग शक्ति के इंद्र को पराजित करना आसान न था। जब तोमरवंशीय राजपूतों ने इस स्थान पर दिल्ली बसाई तो संभव है कि उन्होंने योगमाया की पूजा करनी प्रारंभ कर दी हो क्योंकि वह भी चंद्रवंशी थे और देवी के उपासक थे।
वर्तमान मंदिर 1827 में अकबर द्वितीय के काल में लाला सेठमल जी ने बनवाया बताते हैं। मंदिर का अहाता चार सौ फुट मुरब्बा है। चारों ओर कोनों पर बुर्जियां हैं। मंदिर की चारदीवारी है, जिसमें पूर्व की ओर के दरवाजे से दाखिल होते हैं। चारदीवारी के बाहर कितने ही मकान यात्रियों के ठहरने के लिए बने हुए हैं। अंदर जाकर मंदिर के दक्षिण और उत्तर में चंद मकान यात्रियों के ठहरने के लिए बने हुए हैं। मंदिर लोहे की लाट से करीब 260 गज उत्तर-पश्चिम में स्थित है।
मंदिर में मूर्ति नहीं है, बल्कि काले पत्थर का गोलाकार एक पिंड संगमरमर के दो फुट चौकोर और एक फुट गहरे कुंड में स्थापित किया हुआ है। पिंडी को लाल वस्त्र से ढका हुआ है जिसका मुख दक्षिण की ओर है। मंदिर का कमरा करीब बीस फुट चौकोर होगा। फर्श संगमरमर का है। ऊपर गोपुर बना हुआ है जिसमें शीशे जड़े हुए हैं। मंदिर की दीवारों पर चित्रकारी की हुई है। मूर्ति के ऊपर छत्र और पंखा लटका हुआ है। मंदिर के द्वार पर लिखा हुआ है- ‘योगमाये महालक्ष्मी नारायणी नमस्तुते’। यह स्थान देवी के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में गिना जाता है। मंदिर में घंटे नहीं हैं। यहां मदिरा और मांस का चढ़ावा वर्जित है। श्रावण शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को यहां मेला लगता है।
मंदिर के तीन द्वार हैं। दक्षिण द्वार के ऐन सामने दो शेर लोहे के सींखचों के एक बक्स में बैठे हैं, जो देवी के वाहन हैं। इनके ऊपर चार घंटे लटकते हैं। शेरों की पुश्त की ओर एक दालान है, जिसमें पश्चिम की ओर के कोने में गणेश की मूर्ति है और एक छोटी शिला भैरव की है। मंदिर के उत्तरी द्वार के सामने शिव जी का मंदिर है, जिसके पीछे एक सैदरी बनी हुई है, जिसमें उत्तर की ओर खड़े होकर अनंगपाल ताल दिखाई देता है। उत्तर-पश्चिम कोण में एक पक्का कुआं है जो रायपिथौरा के समय का बताया जाता है। यहां करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व मुगल काल में वर्षा ऋतु का एक मेला ‘फूलवालों की सैर’ के नाम से शुरू हुआ। यह सैर प्राय: श्रावण मास में हुआ करती थी जिसमें हिंदू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे। सैर दो दिन हुआ करती थी- बुध और गुरुवार को बुध के दिन योगमाया के मंदिर में हिंदुओं की ओर से पंखा चढ़ता था और वृहस्पतिवार को मुसलमानों की ओर से हजरत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के मजार पर यह मेला हिंदू-मुसलमान एकता का प्रतीक था।